Saturday, December 2, 2017

फिल्म समीक्षा

कपिल की लोकप्रियता भुनाने की कोशिश है फिरंगी

जरूरी नहीं कि आपको किसी विधा में महारथ हासिल हो तो उससे जूड़े अन्य विधाओं में भी आप अव्वल ही आएं. हिमेश रेशिमिया जैसे कई ऐसे उदाहरण हैं जिन्होंने दो नावों पर सवारी के चक्कर में करियर दांव पर लगा ली. कुछ ऐसी ही स्थिति कपिल शर्मा की भी हो गयी है. कॉमेडी की दुनिया में बड़ा मुकाम हासिल करने के बाद फिल्मों में अभिनय की चाहत से उनकी स्थिति भी डांवाडोल होती दिख रही है. निर्देशक राजीव ढिंगरा की फिरंगी भी कपिल की बतौर एक्टर स्थापित होने की असफल कोशिश है. फिल्म की अनावश्यक लंबाई, कई पुरानी फिल्मों का प्रभाव और कहानी की धीमी रफ्तार के अलावे कई अन्य कमजोरियां भी हैं, पर फिल्म की सबसे बड़ी कमजोरी रही पूरी फिल्म में कपिल का सपाट चेहरे से अभिनय.
फिरंगी अंग्रेजो के खिलाफ आंदोलन और अंग्रेजी सामान के बहिष्कार के वक्त की कहानी है. पंजाब के एक छोटे से गांव का बेरोजगार मंगा (कपिल शर्मा) अपनी एक अलग खूबी के लिए फेमस था. किसी के कमरदर्द में उसकी कमर पर लात मारकर दर्द खत्म देने की खूबी की वजह से उसकी वाहवाही हो जाती. ऐसे ही एक दिन उसे किस्मत से ब्रिटीश अधिकारी डेनियल से मिलने का अवसर मिलता है, जहां हुनर की बदौलत उसे ब्रिटीश पुलिस में नौकरी मिल जाती है. इस बीच उसकी मुलाकात सरगी(इशिता दत्ता) से होती है, जिसे देखते ही मंगा उसे दिल दे बैठता है. दोनों शादी की सोचते हैं पर सरगी के दादा(अंजन श्रीवास्तव) को यह मंजूर नहीं कि किसी अंग्रेज के पिट्ठू से उसकी शादी हो. उधर डेनियल वहां के राजा के साथ मिल शराब फैक्ट्री बैठाने की नीयत से गांव की जमीन हड़पना चाहता है. इस काम के लिए वह मंगा को नियुक्त करता है. अब मंगा के सामने गांव की जमीन बचाने की चुनौती आ खड़ी होती है.
फिल्म की सबसे बड़ी दुविधा यह है कि यह कहानी से तो पीरियड फिल्म है पर पीरियड फिल्मों की सारी जरूरी बात मसलन परिधान, बॉडी लैंग्वेज नदारद हैं. पीरियड फिल्मों के लिए किये जाने वाले जरूरी शोधों का अभाव फिल्म में साफ दिखता है. अभिनय की बात करें तो इशिता दत्ता ठीक-ठाक लगी हैं. अगर कुछ प्रभावित कर पाते हैं तो वो फिल्म के सहयोगी कलाकार ही हैं. राजेश शर्मा , इनामुल हक, अंजन श्रीवास्तव और कुमुद मिश्र जैसे कलाकार ही थोड़ी-बहुत अभिनय की इज्जत बचा ले जाते हैं. गीत-संगीत जरूर राहत प्रदान करने वाला है. कुल मिलाकर अगर आप कपिल के हार्ड क ोर फैन हैं, जो उन्हें किसी भी सूरत में ङोल सके तो बेशक थियेटर का रुख करें वरना मनोरंजन के लिए किसी अन्य माध्यम की तलाश ही बेहतर होगा.


फिल्म समीक्षा

भविष्य की भयावह तस्वीर है कड़वी हवा

सिनेमा दो तरह के होते हैं. पहला वो जो कमायी के जोड़-घटाव वाले समीकरण के खांचे में रखकर बनाया गया हो, दूसरा वो जो इस समीकरण से बेपरवाह बस ईमानदारी की कड़वी चाशनी में लिपटा हो. कड़वी हवा उसी दूसरी किस्म की फिल्म है. बॉक्स ऑफिस की सोच वाली भेड़चाल से दूर, एक ईमानदार मगर कड़वी सच्चई बयां करती फिल्म. क्लाइमेट चेंज जैसी भयावह हकीकत और उसके दुस्परिणाम का आईना. कमोबेश जिसका टीजर दिल्लीवाले स्मॉग हादसे के दौरान देख चुके हैं. स्थिति की भयावहता का अंदाजा तब आपको खुद ही होता है जब फिल्म के एक दृश्य में आप क्लास रूम में टीचर को सवाल पुछते देखते हैं देश में कितने मौसम होते हैं? और जवाब आता है दो, जाड़ा और गर्मी, क्योंकि बरसात तो उसने देखी ही नहीं. यह एक जवाब आपको अंदर तक दहला देता है और मजबूर करता है सोचने को कि कब ये जवाब दो से एक हो जाए और फिर एक से विनाश में बदल जाए. आई एम कलाम और जलपरी जैसी फिल्मों से चर्चा में आये नीला माधव पांडा की यह फिल्म शायद टिकट खिड़की पर भले शेखी बघारती नजर न आये, पर यकीनन आपको झकझोरती, स्थिति की भयावहता से दहलाती और भविष्य के लिए आगाह करती नजर आएगी.
कहानी बुंदेलखंड के छोटे से गांव की है जहां अंधा किसान हेडू (संजय मिश्र) अपने बेटे मुकुंद (भुपेश सिंह), बहू (तिलोत्तमा सोम) और दो पोतियों के साथ रहता है. गांव में पिछले 15 वर्षाें से बारिश नहीं हुई है. सूखे की वजह से गांव का हर किसान बैंक का कजर्दार हो चुका है. हर साल बिन बरसात फसल चौपट ह7ोने की वजह से कोई क र्ज चुका नहीं पाता. मुकुंद भी ऐसे ही क ज्रे के बोझ तले दबा है. हेडू इस कज्रे की जानकारी के लिए बैंक के चक्कर भी लगाता है पर निराशा ही हाथ लगती है. क ज्रे की वसूली के लिए बैंक की ओर से रिकवरी एजेंट गुन्नू (रणवीर शौरी) भेजा जाता है. गांव वाले गुन्नू को यमदूत के नाम से बुलाते हैं. गुन्नू की भी अपनी समस्या है. एक ओर उसकी फैमिली है जो उड़ीसा के तुफान में फंसी है और दूसरी ओर वो जिस भी गांव में रिकवरी के लिए जाने को होता है वहां के कई किसान कर्ज वापसी की दहशत से आत्महत्या कर लेते हैं. ऐसे में जब गुन्नू गांव में क र्ज वसूली के लिए जाता है तब उसकी मुलाकात हेडू से होती है. मौसम की मार ङोल रहे दोनों अपनी समस्या से निबटने के लिए साथ आते हैं.
संजय मिश्र पहले भी समय-समय पर अभिनय की विविधताओं से चौंकाते रहे हैं. गोलमाल अगेन के बाद उन्हें इस रूप में देखना दिली सुकून देता है. हेडू के किरदार में संजय की भावसंप्रेषणता ही रही जो कहानी के दर्द को जरूरी धरातल प्रदान करती है. रही-सही कसर रणवीर शौरी ने चेहरे की झुंझलाहट और अभिनय की बारीकी से पूरी कर दी. कहानी के साथ-साथ चलता गुलजार का गीत मैं बंजर भी कु रेदने का काम करता है.
क्यों देखें- प्रकृ ति और इंसान के बीच की खींचतान से उपजती भयावह स्थिति को करीब से देखना, समझना और संभलना चाहते हों तो जरूर देखें.
क्यों न देखें- लीक से हटकर फिल्म देखने के आदी न हों तो फिल्म आपके लिए नहीं है.