Sunday, January 22, 2017

कैमरे का जादूगर


प्रतिभा किसी परिचय की मोहताज नहीं होती. इंसान की लगन और मेहनत तमाम विषम परिस्थितियों के बावजूद उसे लक्ष्य तक पहुंचा कर दुनिया की नजरों में ला ही देती है. कुछ ऐसा ही किस्सा है बिहार के निर्मली गांव में जन्में बॉलीवूड के फेमस सिनेमेटोग्राफर असीम प्रकाश बजाज का. कैमरे के पीछे होने की वजह से नाम भले कम लोग जानते हों, पर काम ऐसा कि थियेटर में बैठा हर दर्शक मंत्रमुग्ध हो जाए. सन ऑफ सरदार, डबल धमाल, चमेली और गोलमाल जैसी 28 फिल्मों में बतौर सिनेमेटोग्राफर और 2016 की बहुचर्चित फिल्म पाच्र्ड के प्रोडय़ूसर असीम का सिनेमायी सफर भी किसी स्क्रिप्ट से कम नहीं रहा. गौरव से चंद घंटों की खास बातचीत में असीम ने इसी सफर को फिर से जीने की कोशिश की.
निर्मली जैसे छोटे से गांव से निकलकर पटना और दिल्ली होते हुए असीम बजाज की यात्र उन्हें उनके लक्ष्य मुंबई तक ले गयी. बचपन पिता के सानिध्य से महरूम रहा. फिल्मों के काम करने वाले पिता के पास पहुंचने की जिद ऐसी कि खुद फिल्मों की यात्र शुरू कर दी. यात्र के हर पड़ाव में लक्ष्य हासिल करने के लिए मेहनत दोगुनी होती गयी. और आज आलम ये कि पिता के सानिध्य के साथ-साथ कई नेशनल और इंटरनेशनल ट्रॉफी बिहार के छोटे से गांव के इस शख्स के कमरे की शोभा बढ़ा रहा है. एक बार इनसे मिलने वाला व्यक्ति असीम और उनके काम का मुरीद हो जाता है. बातचीत की शुरुआत ही उनके सबसे प्यारे साथी (कैमरे) की बात से हुई.
-शुरुआत कैमरे की बात से करते हैं. एक्टर बनने के ख्वाब ने अचानक कैमरे के साथ जादूगरी कैसे शुरू कर दी?
-कैमरे से दोस्ती अचानक तो नहीं कह सकते, हां इसके प्रोफेशनल इस्तेमाल की कोई प्लानिंग नहीं थी. गांव का बच्च था तो शुरुआत में परदे पर दिखने को ही फिल्मों में आने का माध्यम समझता था. इसी वजह से इस सफर की शुरुआत अभिनय से हुई. पर इस फ ील्ड में इंट्री के साथ समझ आया कि फिल्म निर्माण की कितनी सारी प्रक्रियाएं और विधाएं हैं. तब फ ोटोग्राफी से जो लगाव मन के अंदर कहीं दबा था वो उभर कर सामने आ गया. और तब से कैमरे के साथ का सफर अबतक जारी है.
-कैमरे से दोस्ती की शुरुआत की कुछ बातें बताएं?
-कैमरा थामना मुङो हमेशा से पसंद था. पर ये नहीं सोचा था कि मुङो इसे ही प्रोफेशनली इस्तेमाल करना है. धुंधला-धुंधला सा याद आता है 1991-92 के दौरान जब मैं पटना में रहता था. अशोक राजपथ के अलंकार ज्वैलर्स के मालिक के बेटे थे रवि. उन्हें अपनी तस्वीरें खिंचवाने का काफी शौक था. मैं उनकी तस्वीरें लेता और बदले में वो मुङो तब 50 रुपये प्रति तस्वीर देते थे. उस वक्त टाइम्स ऑफ इंडिया के सीनियर फ ोटोग्राफर थे प्रभाकर जी, जो मुङो फ ोटोग्राफी को ले काफी प्रोत्साहित करते थे. और मै कह सकता हूं कि इस विधा के वह मेरे पहले गुरु थे. तब से कैमरे के प्रति रुझान और समझ बढ़ी.
-थोड़ा पीछे चलते हैं. निर्मली से मुंबई तक के सफर को कैसे याद करेंगे?
-तो गाना-वाना भी हो जाता था. फिर दिल्ली में एक्ट वन के लिए एन के शर्मा जी के साथ काम किया. काफी रंगमंच किये. एक तरह से कह सकते हैं कि रंगमंच की जो बुनियाद पटना में पड़ी थी वो दिल्ली पहुंचकर और पुख्ता हो गयी. और आखिर में मुंबई पहुंचा.
-जेहन में कहीं याद आता है कि सिनेमा के लिए पहला आकर्षण कब महसूस हुआ?
-नौ साल की उम्र में. वो दिन मै कभी नहीं भूल सकता. अंतर्मन में शायद पहले से हो, पर सार्वजनिक रूप से अपने नौवें जन्मदिन पर इसे स्वीकार किया था. मुङो याद है एक मार्च का दिन था, जब मेरे जन्मदिन पर रिश्तेदारों ने मुझसे पुछा बड़े होकर क्या बनना है? तब मैंने शान से जवाब दिया था फिल्मों में जाना है. सिनेमा के लिए खुद की वह पहली स्वीकरोक्ति थी. दूसरी आकर्षण की एक बड़ी वजह मैं अपने पिताजी(एनएसडी के पूर्व निदेशक रामगोपाल बजाज) को मानता हूं. जैसा कि सबको पता है कि मेरे बचपन में ही पिताजी और मां का अलगाव हो गया था. सात वर्ष की अवस्था में मैंने उन्हें पहली बार देखा था. उन्हें फिल्मों में देखकर मन में कहीं यह भाव बैठ गया था कि अगर मै भी फिल्मों में गया तो शायद पिताजी से मिल सकूंगा. सिनेमा मुङो उन तक पहुंचने का सबसे सशक्त माध्यम लगा. और मुङो लगता है यह सबसे मुख्य वजह रही मेरे सिनेमा से जुड़ाव की.
-योगदान की बात करें तो इस सफर में किन-किन का सहयोग मानते हैं?
-मैं तो हर उस शख्स का शुक्रिया अदा करता हूं जिन्होंने मुङो कला के स्तर पर कभी भी सराहा या सुझाव दिया. फिर चाहे वो मेरे सहपाठी हों जिन्होंने मेरे हर गानों, मिमिक्री और नाटकों पर वाहवाही दी या फिर गांव के वे लोग जो किसी भी सार्वजनिक क ार्यक्रम में मनोरंजन के लिए गुड्डू (घर का नाम) का नाम सबसे पहले लेते थे. इन गतिविधियों और मस्ती में रुचि का आलम ये था कि बड़े भाई साहब (शांति प्रकाश बजाज) गुस्से में हमेशा ही ये कहते बड़े होकर गवैया, बजनिया और नौटंकी ही करोगे क्या? पर मेरी सफलता में सबसे अधिक सहयोग मेरे भाई साहब का ही रहा जिन्होंने तमाम गुस्से के बावजूद हर कदम पर प्रोत्साहित करते हुए ये भी कहा कि जो करो मेहनत और पूरी ईमानदारी से करो. इन सबके साथ-साथ मां और प}ी के सहयोग को तो भुलाया ही नहीं जा सकता.
-अभिनय, फ ोटोग्राफी, सिनेमेटोग्राफी, संगीत और फिल्मनिर्माण के क्षेत्र में आप पहले ही दखल दे चुके हैं. इन सब के अलावे असीम के अंदर और क ौन-कौन सी चाहतें हैं?
-कविताएं लिखना और सूनाना. मुङो लगता है ये शायद मुङो पिताजी से जेनेटिकली हासिल हुआ है. बचपन साथ नहीं गुजारने के बावजूद क विताएं पढ़ना, उनसे इश्क और मस्ती करना, फिर उतने ही असरकारी भावों के साथ सूनाना ये सब मुङो उनसे कहीं न कहीं जोड़ता है.
-अजय देवगन की फिल्मों से खासा जुड़ाव रहा है. ये किस तरह की बांन्डिंग है?
-अजय जी का मैं हमेशा शुक्रगुजार रहूंगा. उनसे मेरा खास तरह का रिश्ता (दोस्ती और बड़े भाई जैसा) रहा है. पहली बार मैं उनसे जमीन फिल्म के दौरान मिला जो रोहित शेट्टी की पहली फिल्म थी. तब मैं बिलकुल फ्रेशर था. पहली मुलाकात में मैं काफी तैयारियों के साथ गया था. पर उन्होंने मुझसे सिर्फ इतना पुछा, काम कर लोगे ना?और हां के साथ ही फिल्म मेरे हाथ में थी. तब से शुरू हुआ रिश्ता उनकी नयी फिल्म शिवाय तक जारी है जिसमें मैं डीओपी (डायरेक्टर ऑफ फोटोग्राफी) था.
-इतने सारे नेशनल और इंटरनेशनल क ामयाबी के बाद बिहार की सांस्कृतिक विरासत को खुद के अंदर कहां पाते हैं?
-देखिए मेरा मानना तो यह है कि आप चाहें तो बिहार से बिहारियों को निकाल सकते हैं, पर बिहारियों के अंदर से बिहार को कभी नहीं निकाल सकते. मैं कहीं भी चला जाऊं मेरे अंदर का बिहार नहीं मर सकता. मैं इंटरनेशनल लेवल पर क ार्यक्रम में भी बिहारी संस्कृति की छाप लेकर ही शिरकत करता हूं. मेहनत, लगन और हक की लड़ाई हम बिहारियों की खास पहचान है, जो हर बिहारी के अंदर ताउम्र जिंदा रहता है.
-बिहार से जुड़ी कोई खास याद?
-यादें तो इतनी है कि वक्त कम पड़ जाए बताने को. पर अतीत की एक घटना जो अब तक मेरे साथ है वो है लाइट और शैडो का खेल. मुङो याद है जब भी कोई हवाईजहाज मेरे गांव के ऊपर से जाता तो मैं उसकी परछाई का पीछा करता. कुछ दूर भागने के बाद मैं पीछे रह जाता और वो परछाई नदी, नाले और मैदान होता हुआ दूर निकल जाता. परछाई नहीं पकड़ पाने की कसक के साथ लाइट और शैडो के इस खेल ने मेरे अंदर फ ोटोग्राफी क्वालिटी को जिंदा कर दिया. आज भी जब कभी हवाईजहाज पर चढ़ता हूं वह अहसास अंदर तक रोमांचित करता है.
-पाच्र्ड जैसी संजीदा फिल्म के बाद बिहार से जुड़ी विषय पर फिल्म बनाने की कोई योजना?
-है, बिलकुल है. और आपको बता दूं मैंने कोशिश भी की थी. सम्राट अशोक पर फिल्म बनाने के लिए मैं तीन साल पहले इरफान खान के साथ मुंगेर आया था. हमने दो दिन की शुटिंग भी की थी. पर कुछ फ ाइनेंशियल प्रॉब्लम्स की वजह से चीजें वर्कआउट नहीं कर पायीं. तमन्ना है और विश्वास भी कि एक न एक दिन वह फिल्म करूंगा जरूर. क्योंकि इस फिल्म के साथ-साथ एक फिल्म मिथिला में मुङो करनी ही करनी है.
-अपने अबतक के जर्नी में खुद को कहां पाते हैं?
-शुरुआत है. बड़ा अचीवमेंट तो नहीं कहूंगा. क्योंकि चालीस की उम्र में न्यूटन को देखें तो खुद की अचीवमेंट बौनी नजर आती है. हां अचीवमेंट बस इतना है कि निर्मली, पटना और दिल्ली का असीम आज भी मेरे अंदर जिंदा है. बाकी तो मैं इसे शुरुआत ही मानता हूं.



Monday, January 2, 2017

फिल्म समीक्षा

                जीतने से मिसाल बनने तक का सफरदंगल

जीत देखना और भूल जाना दुनिया की पुरानी रवायत है, याद तो दुनिया बस उसे ही रखती है जो जीत के साथ मिसाल बनाते हैं. और उस मिसाल बनने के पीछे की कवायद, मेहनत, तप, त्याग और अनुशासन के सफर का अंदाजा वही लगा सकता है जो इस आग से तपकर कुंदन बनकर निकला हो या फिर वो जिसने उस कुंदन को अपने खून-पसीने के साथ आग पर तपाया हो. दंगल उसी आग से तपकर और ठोंक-पीटकर निकले सोने की कहानी है. पूर्व कुश्ती खिलाड़ी महावीर सिंह फ ोगाट और उनकी रेसलर बेटियों की जीवनगाथा पर बनी दंगल इस साल की सबसे बहुप्रतीक्षित बायोपिक फिल्म थी. आमिर खान जैसे अभिनेता का फिल्म से जुड़ाव इस प्रतीक्षा के स्तर को चरम पर पहुंचा गया था. और यकीनन फिल्म दर्शकों को उस हद तक संतुष्ट कर पाने में पूरी सफल रहती है. जब फिल्म का कलाकार कलाकार न रहकर किरदार बन जाए तो फिल्म भी मिसाल बन जाती है, बिलकुल असल जिंदगी की वर्ल्ड चैंपियंस गीता और बबीता फ ोगाट की तरह.
फिल्म की कहानी है तो हरियाणा के भिवानी जिले के बिलाली गांव का, पर ये मिसाल है हर उस गांव-घर व समाज के लिए जहां लड़कियां चूल्हे-चौके और ससूराल के चक्की में ताउम्र पिसने को बेबस रहती हैं. मिसाल है हर उस अभिभावक के लिए जो बच्चों की नैसर्गिक प्रतिभा को समाज और लिंगभेद के बोझ तले कुचल देते हैं. और सीख है कि चाहे कुछ भी करों, कुछ भी बनों, वहां केवल खेलो नहीं, बल्कि जीतो, और जीत भी ऐसी कि समाज और देश के लिए मिसाल बन जाओ.
पारिवारिक जिम्मेदारियों के चलते देश को गोल्ड ना दिलाने की टीस हरवक्त महावीर सिंह फ ोगाट(आमिर खान) के अंदर फ ांस बनकर चूभती है. अपने उस अधूरे सपने को वह अपने बेटे के जरिये पूरा करने का ख्वाब पाल बैठता है. पर नियती को कुछ और ही मंजूर था. एक के बाद एक उसे चार बेटियां पैदा होती हैं. अपनी उम्मीदों को वह अपने मेडल्स के साथ बक्से में बंद कर देता है. पर थोड़ी बड़ी होने पर बेटियों के अंदर उसे पहलवानी खून का रंग नजर आता है. उसे अहसास होता है मेडल तो बेटियां भी जीत सकती हैं. फिर शूरू होता है मेहनत, अनुशासन और संघर्ष की वो यात्र जहां महावीर अपनी बेटियों गीता (फ ातिमा सना शेख-व्यस्क व जायरा वसीम-युवा ) और बबीता (सान्या मल्होत्र-व्यस्क व सुहानी भटनागर-युवा) को उस आग में तपाता है जिससे होकर वो देश के लिए सोने का मेडल निकाल सके. तमाम प्रतिरोधों के बावजूद महावीर की प}ी शोभा क ौर(साक्षी तंवर) की मूक सहमति भी इस यात्र की गवाह बनती है.
बधाई के पात्र हैं निर्देशक नीतेश तिवारी जिन्होंने कहानी में नाटकीयता या पुख्ता सिनेमायी एलिमेंट्स ना होने के बावजूद पियुष गुप्ता, श्रेयस जैन और निखिल मेहरोत्र के साथ मिलकर ऐसी कहानी बूनी जो पलभर भी बोङिाल नहीं होने देता. गंभीर विषय को भी ह्यूमर के साथ परोसकर उन्होंने इसे देखने और बार-बार देखने लायक बना दिया.
बात अभिनय की करें तों हर कलाकार यहां गौण है. कुछ उभरकर आता है तो बस किरदार और उनके अंदर आत्मसात की गयी कुश्ती की टेकिAक्स. आमिर की मौजूदगी के बावजूद अगर महावीर का किरदार हावी हो तो ये वाकई उनकी जीत है. पर तारीफ करनी होगी गीता और बबीता के दोनों किरदारों की, जिन्होंने आमिर के होने के बावजूद कहानी को पूरी विश्वसनीयता से अपने ऊपर ओढ़ लिया है. चचेरे भाई की भुमिका में अपारशक्ति खुराना और दंभी क ोच की भुमिका में गिरीश कुलकर्णी भी उम्दा चुनाव हैं. जुबां के बजाय आंखों से खेलती साक्षी तंवर की अदाकारी मुग्ध करती है. गाने भी कहानी के साथ-साथ चलते हुए दर्शकों के जोश को जगाते हैं.
क्यों देखें- सिनेमा देखने के बजाय उसके साथ जीना चाहते हों तो जरूर जाएं.
क्यों न देखें- वजह की तलाश फिल्म देखने के बाद गैरवाजिब लगेगी.





                  ठेठ मिजाज की सुरीली आवाज
मन में लगन और लक्ष्य के प्रति समर्पण देर-सवेर ही सही इंसान को क ामयाबी जरूर देता है. और तब जब वो विपरित परिस्थितियों में हासिल की गयी हो वही क ामयाबी मिसाल बन जाती है. ईलता का पर्याय बन चुके भोजपुरी गीतों की मिठास और उसकी गरिमा को पुन: उसका स्थान दिलाने की जद्दोजहद करती पुरबिया तान की भोजपुरी लोकगायिका चंदन तिवारी का संघर्ष और मिसाल बनने की ओर अग्रसर उनकी यात्र भी कुछ ऐसी ही है. समर्पण ऐसा कि संगीत के अलावे कोई बात मन-मस्तिष्क में उतरती ही नहीं. प्रभात खबर से बातचीत में गीत-संगीत को लेकर उनका यही जूनून शब्दों की शक्ल में सुनने को मिला.

गीतों में मिठास और बातों में सादगी चंदन तिवारी की सबसे बड़ी खासियत है. सखिया सावन बहुत सुहावन, नदिया धीरे बहो, गंगाजी से मटियाजैसे उनके गाये 75 कर्णप्रिय गीत इसकी ही बानगी हैं. सोहर, पूर्वी, झूमर, क जरी, बटोहिया व बारहमासा जैसे विविधता भरे गीतों से राष्ट्रीय स्तर पर पहचान बना चुकी चंदन यंग जेनरेशन के तौर पर भोजपुरी गीतों की एकमात्र पैरोकार दिखती हैं. मूलत: भोजपूर जिले की व बोकारों में पली-बढ़ी चंदन से मिलने की इच्छा उनके गीतों के जरिये ही जगी. तकरीबन घंटे भर की बातचीत और भोजपुरी गीत-संगीत के प्रति उनकी चिंता यकीनन लोकगीतों के सूनहरे भविष्य की आस जगा गयी.
-सबसे पहले तो ये बताएं, भोजपुरी ही क्यों?
- भोजपुरी वासी और भोजपुरी निवासी होने के नाते ये मेरा ये फ र्ज था कि मै इस भाषा के उत्थान के लिए कुछ करूं. मै किसी भाषा को बुरा नहीं कह रही. पर मातृभाषा के लिए हमारी जिम्मेवारी खुद ब खुद बढ़ जाती है. गानों में इस भाषा के गिरते स्तर से मन में हमेशा एक कसक रहती कि क्यूं न इसकी गरिमा बढ़ाने की दिशा में कुछ करूं. वहीं से इसके प्रति लगाव जागृत हुआ.
-भोजपुरी गायकी चुनते वक्त कभी बाजार का दबाव या ईल गानों के बढ़ते प्रभाव से टकराहट का डर नहीं लगा?
देखिये डर जैसी तो कोई बात ही नहीं थी. मुङो हमेशा से पता था बुराई की पकड़ चाहे जितनी मजबूत हो अच्छाई अपना रास्ता तलाश ही लेगी. मेरा काम था लोगों तक अच्छे गाने पहुंचाना और वो मै अब तक कर रही हूं. आज लोग मुङो पसंद कर रहे हैं, मेरे गाने उनके टेस्ट को बदल रहे हैं, और मुङो क्या चाहिए. यही तो मेरा संघर्ष है. और सबसे बड़ी बात कि मै अपने गाने बाजार में नहीं बेचती. आप मेरे शोज के जरिये मुङो सूनते हैं, और शोज से मिले पेमेंट से ही मै अपने अगले प्रोजेक्ट की तैयारी करती हूं. मेरे गाने वेबसाइट्स (यू ट्यूब, पुरबिया तान, लोकराग व साउंड क्लाउड) के जरिये लोगों तक पहुंचते हैं तो बाजार का डर कैसा?
झ्र बाजार के दुस्प्रभाव का जिम्मेदार किसे मानती हैं?
झ्र जिम्मेदारी तो सबकी है. पर सबसे ज्यादा मै इसके लिए (माफ क ीजिएगा) श्रोताओं को जिम्मेवार मानती हूं. वो ऐसे गाने सूनना बंद कर दें तो ऐसे लोगों की दुकान अपने-आप बंद हो जाएगी. फिर राइटर्स और सिंगर्स भी कसूरवार हैं. राइटर्स और सिंगर्स ठान लें कि वो ईल गानें ना लिखेंगे और ना गायेंगे तो परेशानियां खूद ब खूद दूर हो जाएंगी.
झ्र थोड़ा पीछे चलते हैं, बोकारो की गलियों से भोजपुरी लोकगीतों की उभरती पहचान बन रही चंदन तिवारी की संक्षिप्त जर्नी बताएं.
झ्र मां (रेखा तिवारी) से संगीत का ककहरा सीखा. स्कूल के क ार्यक्रम और मंदिर के भजन क ीर्तन से सार्वजनिक मंच पर गाने की शुरुआत की. आगे चलकर प्रयागराज संगीत समिति इलाहाबाद से शास्त्रीय संगीत की शिक्षा ली. कुछ समय बाद जब लोगों के क ानों तक मेरे गाने पहुंचे तो सबने ध्यान देना शुरू किया. शुरू में कुछ फिल्मी गाने गाये और टीवी शोज(सुर संग्राम, जिला टॉप) भी किया. पर जल्द ही ऐसे गानों से विरक्ति हो गयी. फिर स्टेज के जरिये खुद के गानें और भोजपुरी मिट्टी में गुम हो चुके गीतों को सामने लाना शुरू किया. ऊपरवाले का आशीर्वाद है कि गानें लोगों के दिलों में उतर रहे हैं. तब से ये सफर जारी है.
झ्र इस सफर की कुछ और उपलब्धियां शेयर करें.
झ्र पुरबिया तान को मै अपनी सबसे बड़ी उपलब्धि मानती हूं. महेन्द्र मिसिर के कुछ गीत गाने के बाद मैंने 16 मार्च 2014 को पुरबिया तान की शुरुआत की. रांची स्थित अंचल शिशु आश्रम से जुड़कर बच्चों के लिए गानें गा रही हूं. वैसे गीतों को लय दे रही हूं जो हम दादी-नानी से किस्सों के रूप में सुनते थे. गंगा बचाओ अभियान से जुड़कर गीतों के माध्यम से गंगा की आह और तड़प को जुबान दे रही हूं. इन्हीं क ार्यों के जरिये कई महोत्सवों से आमंत्रण मिलता है. भोपाल के भोजपुरी अकादमी में तीन-चार प्रस्तुतियां दे चुकी हूं.
झ्र पुरबिया तान को जरा विस्तार से बताएं.
झ्र महेंदर मिसिर को लोग पूर्वी का जन्मदाता और पुरोधा मानते हैं. पर जहां तक मुङो समझ हैपहले जब बिहार से लोग चटकल (क ोलकाता) जूट मिल में काम करने जाते थे तो यहां की स्त्रियां कुछ खास तरह के लय में गाने गाती थी. जिसे तान कहते थे. चुंकि बंगाल बिहार के पुरब में था इसलिए क ालांतर में इसे पुरबिया तान का नाम मिला.
झ्र गायकी की शुरुआत के वक्त की चंदन और अब की चंदन तिवारी में कितना अंतर पाती हैं?
झ्र (हंसती हैं) चंदन तो वही है फर्क बस सोच और अनुभव का आया है. आज मेरे पास बहुत सारे गाने हैं, जो मेरे गाये हुए खुद के गाने हैं. शुरुआत में मै भोजपुरी फिल्मों, गजल और अलबम्स में किसी और के गाने गाती थी. आज मै खुद के गाने गाती हूं. भोजपुरी परिवेश की गुम हो चुकी रचनाओं और दादी-नानी के गीतों की तलाश करती हूं और उन्हें सुर के साथ साधकर उनसे आज की पीढ़ी को रूबरू कराती हूं.
झ्र गुम हो चुकी स्मृतियों की बात चली है तो भोजपुरी फिल्मी गीतों पर उछलने वाले श्रोताओं को उन स्मृतियों की ओर मोड़ना क्या आसान होगा?
झ्र आसान नहीं है, पर नामुमकीन भी नहीं है. थोड़ा वक्त दीजिए उन्हें पटरी पर आने के लिए. वो आयेंगे और सूनेंगे, और ना केवल सूनेंगे बल्कि गायेंगे भी. और जिस तरह के गाने मै गा रही हूं मुङो विश्वास है वो वक्त भी आएगा जब लोग ये कहेंगे कि अरे भोजपुरी गाने इतनी मिठास लिए भी हो सकते हैं.
झ्र भोजपुरी गीतों में वेस्टर्न प्रयोग कितना सही है?
झ्र प्रयोग बूरी बात नहीं है. अगर गानों की मिठास और गीतों की आत्मा बरकरार रहे तो नये प्रयोग बेशक करने चाहिए. यह प्रयोग उन युवाओं के नजरिये से भी जरूरी है जो रॉक और पॉप की वजह से अपनी माटी के गीतों से दूर जा रहे हैं. आज भी कई लोग ऐसे हैं जो मुझसे कहते हैं कि भोजपुरी गाती हो, अच्छा! भोजपुरी में सुनने लायक क्या होता है. वैसे परसेप्शन को बदलने के लिए भी ऐसे प्रयोग जरूरी हैं.
झ्र सिंगिंग के अलावे आप चंदन तिवारी को किस रूप में देखती हैं?
झ्र सच पुछिए तो गायकी से परे मै खुद की कल्पना भी नहीं कर पाती. पढ़ाई-लिखाई में तो मै वैसे भी जीरो हूं(जोर का ठहाका लगाती हैं), सो डॉक्टर-इंजीनियर बनने का सवाल ही नहीं था. हां अगर सिंगर नहीं होती कहीं घर के क ामों में बंधी होती या थोड़ी-बहुत पेंटिंग का शौक था उसे ही उभार रही होती. पर इस दिशा में कभी सोचा ही नहीं. हमेशा से सिंगिंग पर ही फ ोकस किया. मेरा मानना है कि दो नावों की सवारी हमेशा डूबाती है, तो जो भी करो, पूरी एकाग्रता से करो.
झ्र लोकगायकी से नयी प्रतिभाओं को जोड़ने की दिशा में क्या सोच है आपकी?
झ्र रास्ता थोड़ा क ठिन है. क्योंकि नये लोग इस दबाव को सहने से कतराते हैं. क ामयाबी का शार्ट कट उन्हें ज्यादा आसान लगता है. मुझसे आज भी कई लोग खास(अस्वीकार्य) तरह के गीत गाने की फरमाइश करते हैं. कई अच्छे गानें वाले लोग आज भी माहौल बदलने के इंतजार में बैठे हैं. मेरी कोशिश यही है कि बेहतरी की दिशा में मै अपने पीछे एक ऐसी राह तैयार कर सकूं जिससे होकर नयी प्रतिभाएं बिना संशय के आगे आयें. और जिस दिन मै ऐसा कर पाने में सफल हो पायी, खुद को धन्य समझूंगी.