Monday, January 2, 2017

फिल्म समीक्षा

                जीतने से मिसाल बनने तक का सफरदंगल

जीत देखना और भूल जाना दुनिया की पुरानी रवायत है, याद तो दुनिया बस उसे ही रखती है जो जीत के साथ मिसाल बनाते हैं. और उस मिसाल बनने के पीछे की कवायद, मेहनत, तप, त्याग और अनुशासन के सफर का अंदाजा वही लगा सकता है जो इस आग से तपकर कुंदन बनकर निकला हो या फिर वो जिसने उस कुंदन को अपने खून-पसीने के साथ आग पर तपाया हो. दंगल उसी आग से तपकर और ठोंक-पीटकर निकले सोने की कहानी है. पूर्व कुश्ती खिलाड़ी महावीर सिंह फ ोगाट और उनकी रेसलर बेटियों की जीवनगाथा पर बनी दंगल इस साल की सबसे बहुप्रतीक्षित बायोपिक फिल्म थी. आमिर खान जैसे अभिनेता का फिल्म से जुड़ाव इस प्रतीक्षा के स्तर को चरम पर पहुंचा गया था. और यकीनन फिल्म दर्शकों को उस हद तक संतुष्ट कर पाने में पूरी सफल रहती है. जब फिल्म का कलाकार कलाकार न रहकर किरदार बन जाए तो फिल्म भी मिसाल बन जाती है, बिलकुल असल जिंदगी की वर्ल्ड चैंपियंस गीता और बबीता फ ोगाट की तरह.
फिल्म की कहानी है तो हरियाणा के भिवानी जिले के बिलाली गांव का, पर ये मिसाल है हर उस गांव-घर व समाज के लिए जहां लड़कियां चूल्हे-चौके और ससूराल के चक्की में ताउम्र पिसने को बेबस रहती हैं. मिसाल है हर उस अभिभावक के लिए जो बच्चों की नैसर्गिक प्रतिभा को समाज और लिंगभेद के बोझ तले कुचल देते हैं. और सीख है कि चाहे कुछ भी करों, कुछ भी बनों, वहां केवल खेलो नहीं, बल्कि जीतो, और जीत भी ऐसी कि समाज और देश के लिए मिसाल बन जाओ.
पारिवारिक जिम्मेदारियों के चलते देश को गोल्ड ना दिलाने की टीस हरवक्त महावीर सिंह फ ोगाट(आमिर खान) के अंदर फ ांस बनकर चूभती है. अपने उस अधूरे सपने को वह अपने बेटे के जरिये पूरा करने का ख्वाब पाल बैठता है. पर नियती को कुछ और ही मंजूर था. एक के बाद एक उसे चार बेटियां पैदा होती हैं. अपनी उम्मीदों को वह अपने मेडल्स के साथ बक्से में बंद कर देता है. पर थोड़ी बड़ी होने पर बेटियों के अंदर उसे पहलवानी खून का रंग नजर आता है. उसे अहसास होता है मेडल तो बेटियां भी जीत सकती हैं. फिर शूरू होता है मेहनत, अनुशासन और संघर्ष की वो यात्र जहां महावीर अपनी बेटियों गीता (फ ातिमा सना शेख-व्यस्क व जायरा वसीम-युवा ) और बबीता (सान्या मल्होत्र-व्यस्क व सुहानी भटनागर-युवा) को उस आग में तपाता है जिससे होकर वो देश के लिए सोने का मेडल निकाल सके. तमाम प्रतिरोधों के बावजूद महावीर की प}ी शोभा क ौर(साक्षी तंवर) की मूक सहमति भी इस यात्र की गवाह बनती है.
बधाई के पात्र हैं निर्देशक नीतेश तिवारी जिन्होंने कहानी में नाटकीयता या पुख्ता सिनेमायी एलिमेंट्स ना होने के बावजूद पियुष गुप्ता, श्रेयस जैन और निखिल मेहरोत्र के साथ मिलकर ऐसी कहानी बूनी जो पलभर भी बोङिाल नहीं होने देता. गंभीर विषय को भी ह्यूमर के साथ परोसकर उन्होंने इसे देखने और बार-बार देखने लायक बना दिया.
बात अभिनय की करें तों हर कलाकार यहां गौण है. कुछ उभरकर आता है तो बस किरदार और उनके अंदर आत्मसात की गयी कुश्ती की टेकिAक्स. आमिर की मौजूदगी के बावजूद अगर महावीर का किरदार हावी हो तो ये वाकई उनकी जीत है. पर तारीफ करनी होगी गीता और बबीता के दोनों किरदारों की, जिन्होंने आमिर के होने के बावजूद कहानी को पूरी विश्वसनीयता से अपने ऊपर ओढ़ लिया है. चचेरे भाई की भुमिका में अपारशक्ति खुराना और दंभी क ोच की भुमिका में गिरीश कुलकर्णी भी उम्दा चुनाव हैं. जुबां के बजाय आंखों से खेलती साक्षी तंवर की अदाकारी मुग्ध करती है. गाने भी कहानी के साथ-साथ चलते हुए दर्शकों के जोश को जगाते हैं.
क्यों देखें- सिनेमा देखने के बजाय उसके साथ जीना चाहते हों तो जरूर जाएं.
क्यों न देखें- वजह की तलाश फिल्म देखने के बाद गैरवाजिब लगेगी.





No comments: