Sunday, June 11, 2017

नलिन सिंह एक्टर-डायरेक्टर


सिनेमा को थियेटर से डिजिटल प्लेटफार्म तक लाना मेरी चुनौती

क्षेत्र चाहे कोई भी हो, बिहार की मिट्टी के पैदाइश समय-समय पर अपनी धमक का अहसास कराते रहते हैं. यह इस मिट्टी की उर्वरता ही है जो मेहनत और प्रतिरोध की संस्कृति में पले-बढ़े बिहारियों की प्रतिभा ही उनकी पहचान बन जाती है. कुछ ऐसी ही कहानी है प्रतिभा से लबरेज पटना के नलिन सिंह की. एमबीए की डिग्री और अच्छे जॉब के बावजूद अनिश्चितताओं भरी सिनेमा इंडस्ट्री में अपनी दखल और सिनेमा को डिजिटल प्लेटफार्म पर लाने की कोशिश में लगे नलिन अपनी सफलता के प्रति पूर्ण आश्वस्त हैं. मेहनत और दूरदर्शिता पर आधारित उनका यही यकीन उन्हें भीड़ में भी अलग पहचान देता है. प्रभात खबर के गौरव से बातचीत के दौरान उनका अपनी अगली फिल्म माय वजिर्न डायरी की तैयारी में लगे नलिन ने सिनेमा और उसके बदलते स्वरूप पर खुलकर अपनी सोच जाहिर की.

तकरीबन बीस साल पहले पटना के संत माइकल का छात्र आगे की पढ़ाई के लिए दिल्ली के हिंदू युनिवर्सिटी जाता है. अंग्रेजी से आनर्स करता है. फिर गाजियाबाद से एमबीए कर अच्छी जॉब भी करता है. पर हिंदू क ॉलेज में इम्तियाज अली और अर्णव गोस्वामी जैसों की संगत उसे टीवी के रास्ते सिनेमा की दुनिया में खींच लाती है. और फिर उसकी सिनेमायी सोच वाली तरकश से निकलता है गांधी टू हिटलर जैसा सराहनीय सिनेमा.

- शुरुआत माय वजिर्न डायरी से करते हैं. क्या है यह फिल्म?
- यह जर्नी है मेरे हॉस्टल के दिनों की. मेरे अंदर के और मेरे आस-पास की दुनिया को शब्दों और दृश्यों की शक्ल दी है मैंने. ओशो के विचारों (प्रेम, सेक्स और स्प्रिचुअलिटी) के इर्द-गिर्द घुमती यह फिल्म एक ऐसे यूवा की कहानी है जो अपने आस-पास की हर उस चीज से बात करता है जो दुनिया की नजर में निर्जीव है. इसमें मेरे एक ऐसे दोस्त की कहानी भी है जो शहर पढ़ने आता है पर बदलते जीवनशैली, परिवेश, करियर और तमाम अन्य दबावों का सामना नहीं कर पाता और सुसाइड जैसा कदम उठा लेता है. ऐसी कई घटनाएं दिखेंगी आपको इसमें जो सामान्य होते हुए भी कई गिरह खुद में समेटे है. इस फिल्म में ब्राजील, पोलैंड के साथ यूपी-बिहार के कलाकारों ने भी काम किया है.
- आगे बढ़ने से पहले कुछ अपने बारे में बताएं.
- जन्म पटना में ही हुआ. संत माइकल हाईस्कूल का पास आउट हूं. पिताजी डॉक्टरी पेशे में थे, मां बिहार गवर्नमेंट सर्विस में डिप्टी डायरेक्टर रह चुकी हैं. एक चाचाजी पटना एएन क ॉलेज के प्रिंसीपल रह चुके हैं. तो ऐसे माहौल में परवरिश हुई. क ॉलेज के दौरान कंगना रानौत जैसे साथियों के साथ थियेटर का मौका भी मिला. पर सिनेमा में जाने की बात दूर-दूर तक जेहन में नहीं थी. फिर इम्तियाज अली के फिल्मों में आने और अर्णव के सुझावों से लगा कि मेरे जैसा मिडिल क्लास का लड़का भी मेहनत के दम पर इस फील्ड में आ सकता है. यहीं से टीवी की जर्नी शुरू हुई जो फिल्मों तक पहुंच गयी.
- बैकग्राउंड आपका कहीं से फिल्मी नहीं था. फिर आपने सिनेमा में आने के लिए घरवालों को कैसे राजी किया?
- एमबीए करने के बाद मुङो अच्छा-खासा जॉब मिल चुका था. पर थियेटर की अकुलाहट मुङो सिनेमा की ओर खींच रही थी. आखिरकार मैंने रिजाइन दे दिया. घरवालों को कहा डिग्री है तो जॉब कभी भी मिल जाएगा. बस एक साल आप मुङो दे दें मेरे मन का करने को. फिर उनकी इजाजत के बाद टीवी इंडस्ट्री ज्वाइन किया. इसी दौरान मास कम्युनिकेशन भी की. वहीं मुङो गांधी टू हिटलर का आयडिया आया.
- आपने कभी कहा था कि गांधी टू हिटलर की जर्नी आपके लिए काफी पेनफुल रही. ऐसा क्यों?
- आज भी कहता हूं. वाकई उस जर्नी ने मुङो बिलकुल खुशी नहीं दी. शुरुआत में काफी पैसे खर्च हो गये. एक्टर्स और टेक्नीशियंस का एटीच्यूड इतना परेशान करने वाला था कि एक वक्त तो निर्देशन और फिल्मकार बनने के नाम से विरक्ति हो गयी. मैं जिस बिहारी मानसिकता वाले सपोर्ट की अपेक्षा कर रहा था सब बिलकुल उसके उलट थे. मीडिया भी एक नये फिल्ममेकर को स्पेस देने से कतरा रही थी. उनके लिए मैं बिकाऊ हाथी कतई नहीं था. राहत तब जाकर मिली जब फिल्म कांस, बर्लिन फिल्म फेस्टिवल्स के जरिये इंटरनेशनल मीडिया में छायी. तब इंडियन मीडिया ने भी उसके पीछे भागना शुरू किया.
- क्या वजह मानते हैं कि गांधी टू हिटलर जैसी फिल्में फॉरेन फिल्म फेस्टिवल्स और मीडिया में तो अक्लेम्ड हो जाती है पर अपने देश में थियेटर को तरस जाती हैं?
- सीरियसली कहूं तो यहां एक लॉबी है जो पूरी इंडस्ट्री पर हावी है. भले आपको यह मेरे भीतर का झोभ लगेगा पर यह हकीकत है कि अगर आप उस लॉबी में फिट नहीं बैठते हैं, आउटसाइडर हैं तो वे आपको डरायेंगे. कदम-कदम पर आपको गिराने की कोशिश करेंगे.
- आपके अंदर एक्टर और डायरेक्टर दोनों छिपा बैठा है. इनमें कौन सा किरदार बाहर आने को ज्यादा उबाल मारता है.
- हा-हा(जोर से हंसते हुए), ये आपने मेरे मन का पुछा. देखिए, एक्टर तो हर इंसान पैदाइशी होता है. जिंदगी के अलग-अलग मोड़ पर अलग-अलग लोगों के साथ हम हर वक्त अभिनय करते हैं. डायरेक्शन में हमें एक अच्छा ऑबजर्वर बनना पड़ता है. चीजों की गहन पड़ताल करनी पड़ती है और उसे रीक्रियेट करना पड़ता है. दोनों ही पक्ष मुझमें हैं. पर यह कन्फ्यूजन अब तक बरकरार है कि मेरा कौन किरदार दूसरे पर भारी पड़ने वाला है.
- फिल्मकार के अलावे आपके अंदर और कौन सा किरदार जज्ब है?
- एक संगीतज्ञ का. यकीनन अगर मैं एक्टर-डायरेक्टर नहीं होता तो आज कहीं स्कूल खोलकर संगीत की शिक्षा दे रहा होता. दुविधा यह है कि मेरे अंदर के कलाकार ने कभी किसी और पक्ष को उभरने ही नहीं दिया. पर संगीत के प्रति आकर्षण मैं गाहे-बगाहे महसूस करता रहता हूं.
- आजकल आप सिनेमा में डिजिटल प्लेटफार्म के पैरवीकार नजर आ रहे हैं, क्या फ्यूचर दिखता है आपको इसका?
- गांधी टू हिटलर की जर्नी के बाद मैं काफी दबाव में था. फिर यू ट्यूब, नेटफ्लिकस और अन्य डिजिटल प्लेटफार्म के आने के बाद मुङो लगा कि अब वो वक्त आ गया है जब मैं अपनी बात आसानी से लोगों तक पहूंचा सकता हूं. क्योंकि यहां स्टार ओरियेंटेड नहीं कंटेंट ओरियेंटेड व्यूअर्स हैं. दूसरी बात अब लोग भी थियेटर से मुंह मोड़ रहे हैं. आप ही बताइए आपने पिछली बार कब फुल फैमिली थियेटर का रुख किया था. अब वक्त नहीं है लोगों के पास थियेटर के लिए. ऐसे में डिजिटल प्लेटफार्म ही सिनेमा को जिंदा रखेगा. शुरुआत मैंने कर दी है. मेरी फिल्म माय वजिर्न डायरी भारत की पहली फिल्म होगी जो वेब के जरिये एक साथ पांच देशों में अलग-अलग लैंग्वेज के सब टाइटल्स के साथ रिलीज होगी.
- रुख थोड़ा बिहार की ओर करते हैं. बिहारी फिल्मकारों की फौज होने के बावजूद सिनेमा में बिहार आज भी नकारात्मक छवि की गिरफ्त में है. आखिर ऐसा क्यों है?
- देखिए, इसकी बड़ी जिम्मेदारी बिहारियों की खुद है. छोटा सा उदाहरण लें तो इंटर एग्जाम रिजल्ट के बाद की घटना पूरे देश ने देखा. देश ही नहीं विदेशी भारतीयों में भी चर्चा का विषय बना. ऐसी ही कई घटनाएं हैं. अब आप बताइए, फिल्मकार तो आपकी वही छवि दिखाएंगे जो वो आपमें देख रहे हैं. हम लोगों तक अपनी अच्छाइयां, अपने रिच कल्चर को पहुंचा ही नहीं पा रहे. बुराईयां और निगेटिविटी देश-दुनिया में हर जगह हैं, पर हम अपनी अच्छाईयां भूलकर बस बुराइयों को प्रोजेक्ट कर रहे हैं. जरूरी है पहले हम खुद अपनी इमेज बदलें, सिनेमा में वो अपने-आप दिखने लगेगा.
- क्या ये विडंबना नहीं है कि बिहार के रिफरेंस पर बनी अच्छी फिल्में विदेशी दर्शकों को लुभा रही हैं पर बिहार के दर्शकों की पसंद नहीं बन पा रही?
- थोड़ा वक्त दीजिए, लोग समङोंगे और सराहेंगे भी. मैं किसी को दोष नहीं दे रहा पर बात बस इतनी है कि सालों से औसत दज्रे के फिल्ममेकर्स और थियेटर्स दर्शकों का एक्सप्लॉयटेशन करते आ रहे हैं. पैसे की चाहत में दर्शकों को सस्ता मसाला परोसने से भी उन्हें गुरेज नहीं. पर अब यह बदलेगा. फेसबुक, यूट्यूब और व्हाट्सएप जैसे मीडिया के आने के बाद मनोरंजन अब थियेटर से निकलकर जेब तक आ गया है. अब दर्शक कंटेंट समझने लगे हैं. यकीनन डिजिटल क्रांति दर्शकों को असली मनोरंजन का मतलब सिखाएगा.
- बीस साल की जर्नी पर एक सरसरी निगाह डालें तो खुद को कहां पाते हैं?
- मैं अब भी वहीं खड़ा हूं. जिंदगी के सफर में कितना भी आगे निकल जाऊं पर दिल अब भी पटना में ही है. अचीवमेंट बस इतना सा है कि संत माइकल का बैक बेंचर लड़का आज उसी स्कूल में स्टेज से बच्चों को संबोधित करने के लिए आमंत्रित होता है. थोड़ा अटपटा लगता है पर इसे ही उपलब्धि भी मानता हूं. दिल्ली-मुंबई में तन होते हुए भी मन बिहार में है यही जमा-पुंजी है.
- डिजिटल प्लेटफार्म के जरिये सिनेमा का रुख करने वाले युवाओं के लिए कुछ मंत्र?
- इस प्लेटफार्म का सबसे बड़ा फायदा यह है कि आपको कहीं जाने की जरूरत नहीं है. आप जहां हो वहीं से अच्छे कंटेंट और परफार्मेस के जरिये दुनिया की नजरों में आ सकते हैं. और यह प्लेटफार्म कम खर्चे में आपकी आमदनी का जरिया भी बन सकता है. मेरी डिजिटल कंपनी भी ऐसे युवाओं को प्रमोट करने का काम करती है. सुविधाओं के बजाय क ाबिलियत पर भरोसा रखकर आगे बढ़ो तो यह प्लेटफार्म निश्चित ही कामयाबी दिलायेगी.


इन्टरव्यू

   पहले हम घर-घर में थे, आज हम जेब-जेब में हैं: राजेश कुमार

टेलीविजन की दुनिया से राब्ता रखने वाले दर्शकों के लिए राजेश कुमार किसी परिचय के मोहताज नहीं. मुल नाम से अगर ना पहचाने तो रोशेष साराभाई और शर्मा जी इलाहाबाद वाले जैसे किरदार उनकी पहचान बताने को काफी है. तकरीबन सत्रह सालों से टेलीविजन की दुनिया में निरंतर सक्रिय राजेश एक बार फिर रोशेष साराभाई के किरदार की वजह से चर्चा में हैं. बारह साल बाद वेब सीरिज के जरिये धारावाहिक साराभाई वर्सेस साराभाई की नई कड़ी के साथ दर्शकों को फिर से गुदगुदा रहे राजेश ने प्रभात खबर से मनोरंजन के बदलते माध्यम, अपनी जर्नी व बिहार में सिनेमा और राजनीति के परिदृश्यों पर खुलकर अपने विचार साझा किये.
देश में निकला होगा चांद, साराभाई वर्सेस साराभाई, बा,बहू और बेबी, मिसेज एंड मिस्टर शर्मा इलाहाबाद वाले और कुसुम जैसे धारावाहिक से घर-घर राज करने वाले राजेश कुमार की जर्नी भी कम दिलचस्प नहीं रही. मॉडलिंग व संजीदा किरदारों से करियर की शुरूआत करने वाले राजेश ने कुछ ही वक्त में क ॉमिक किरदारों का दामन थाम लिया. बेहतरीन क ॉमिक टाइमिंग और अनूठे एक्सप्रेशन ने जल्द ही उन्हें सबका चहेता बना दिया. इस बीच फिल्मों में भी कोशिश की, पर सिनेमा की दुनिया रास नहीं आयी. हाल ही में टीबी (ट्यूबरक्लॉसिस) उन्मुलन के लिए बिहार के ब्रांड अंबेसडर बने राजेश से बातचीत की शुरुआत साराभाई के साथ हुई.
- बातचीत की शुरुआत रोशेष साराभाई की दूसरी पारी से करते हैं. इतने सालों बाद वापस उसी किरदार के साथ दर्शकों के बीच आने में डर नहीं लगा?
- देखिए डर अगर पौपुलरिटी के लिहाज से कह रहे हैं तो बिलकुल नहीं लगा. मुङो और पूरी टीम को इस शो की कामयाबी का पूरा भरोसा था. पहले सीजन को मिले रिस्पांस से आप भी वाकिफ होंगे. लोग आज भी साराभाई की दुनिया को भूला नहीं पाये हैं. दूसरे सीजन के भी अनाउंसमेंट के बाद से पॉजिटिव प्रतिक्रियाएं आनी शुरू हो गयी. हां किरदार को लेकर मन थोड़ा सशंकित था. इतने सालों बाद फिजीकल और मैच्योरिटी के लेवल पर काफी डेवलप हो चुका था. सो फिर से किरदार के उस इनोसेंस और फ ील को वापस लाने का चैलेंज था. पर शुटिंग शुरू होते ही जैसे ही रोशेष के गेटअप में आया वो डर भी दूर हो गया.
- इस सीजन साराभाई टीवी के बजाय वेब के जरिये लोगों के बीच पहुंचा है. यह निर्णय कितना क ारगर रहा?
- थोड़ा संशय तो रहता है. पर हमें कई मौकों पर रिस्क लेने पड़ते हैं. जिस वक्त साराभाई का पहला सीजन आया था तब लोग स्टार वन चैनल ना के बराबर देखते थे. पर इस सीरियल के बाद उसकी पौपुलरिटी चरम पर थी. अब चुंकि साराभाई पहले से ही दर्शकों के जेहन में मौजूद है तो हम सब को पूरा भरोसा है कि माध्यम चाहे कोई भी हो दर्शक हमतक पहुंच ही जाएंगे. वैसे भी वेब की रिच का आजकल काफी तेजी से विस्तार हो रहा है. वेब तक पहुंच टीवी की अपेक्षा थोड़ा टेढ़ा जरूर है पर मैं तो इस बात को बिलकुल पॉजिटिवली इस रूप में लेता हूं कि पहले हम घर-घर मौजूद थे आज हम जेब-जेब में सफर कर रहे हैं.
- वापसी का ख्याल कहां से आया?
- ऐसा नहीं कि सीरियल खत्म होने के बाद हम सब कलाकार एक-दूसरे से मिलते नहीं थे. मुलाकातें होती रहती थी. पहले सीजन के दस साल बाद ऐसी ही एक मुलाकात में सुमित (राघवन) के घर इस ख्याल ने जन्म लिया. फिर एक साल बाद इंद्रवदन और सतीश शाह जी के साथ मुलाकात में सबने तय किया कि कम से कम एक बार और साराभाई की वापसी तो बनती है. खुद के लिए ना सही पर दर्शकों का इतना हक तो बनता है. चले न चले ये शो का नसीब है. पहले सीजन के वक्त भी हमने कहां सोचा था कि शो इतना हिट होगा.
- एक बात आपसे पुछने की इच्छा हमेशा रही कि क्या कारण है कि बाकी बिहारी कलाकारों की तरह आपकी पटना यात्र मीडिया की सुर्खियों से दूर रहती हैं?
- (हंसते हैं) बात कुछ खास नहीं. मुङो भी लोगों से मिलना अच्छा लगता है, बात करना भाता है. पर सच कहूं तो इंटरव्यू शब्द से मुङो बड़ी परेशानी होती है. ईमानदारी से कहूं तो मैंने कभी खुद को स्टार नहीं माना. मैं खुद को आपकी तरह ही एक प्रोफेशन वाला व्यक्ति मानता हूं जो सूबह से शाम तक अभिनय करता है और फिर घर वापस आ जाता है. लाइमलाइट में रहने का आदी आज भी नहीं हो पाया हूं. यहां-वहां घूमकर प्रोग्राम अटेंड करने और शो ऑफ के बजाय मैं खुद को मम्मी-पापा से बात करने, उनकी हेल्प करने और घर की साफ-सफाई(राजेश के अनुसार हर बार पटना यात्र के दौरान वो घर झाड़ू-पोछा खुद करते हैं) करने में ज्यादा कंफर्टेबल फ ील करता हूं.
- अभिनय के शुरुआत की क्या कहानी है?
- इस सवाल का जवाब दे दे कर थक चुका हूं. पर इस बार शब्दों के जरिये नहीं तस्वीर के जरिये इसका जवाब दूंगा. देखो और खुद अंदाजा लगा लो कि ये रोग कब लग गया.
- हर कलाकार का सपना बड़े परदे पर दिखना होता है. इतने लंबे जर्नी में आपने कभी ऐसी कोशिश क्यों नहीं की?
- हर किसी का अपना-अपना माइंडसेट होता है. मैंने भी एक फिल्म की सूपर नानी. पर सच कहूं तो टीवी मुङो हमेशा से ज्यादा अपना लगा. हम बिहारियों की एक मेंटिलिटी रही है कि हर दिन काम करना ही करना है. सिनेमा की दुनिया इस मामले में बिलकुल उलट है. दस दिन काम के बाद शायद महीनों का इंतजार करना पड़ जाता है. पर यहां टीवी में आपको महीने भर की छुट्टियां शायद साल-दो साल के बाद मिल पाती हैं. और दूसरी बात यह भी है कि फिल्मों से कभी उस किस्म का रोल ऑफर ही नहीं हुआ जो अंदर तक एक्साइटेड कर दे. तो फिल्मों में जाकर भिखारी के किरदार में वेस्ट होने से अच्छा टीवी की दुनिया में महाराजा बनूं और उसे इंन्जॉय करूं.
- क ॉमिक जॉनर से बाहर आने की कितनी खलबली है आपके अंदर के कलाकार में?
- शुरुआत मैंने इस जॉनर के बाहर रहकर ही की है. बाद के दिनों में मैं इस दायरे में शामिल हो गया. पर आप इसे मेरा कंफर्ट जोन नहीं कह सकते. मेरे ख्याल में अभिनय की सबसे क ठिन विधा है हास्यरस में किसी को उतार पाना. हां निगेटिव रोल की ख्वाहिश जरूर है अंदर पर कुछ भी आसान चुनने के बजाय मैं मुश्किल रास्तों पर ही चलना ज्यादा पसंद करता हूं. और कॉमेडी इज लाइक क्लासिकल म्यूजिक. आप कैसे भी गाने सून लो पर आखिर में मुश्किल क्लासिकल म्यूजिक ही सूकून देता है. तो चाहे कोई विधा अपना लें पर कॉमेडी का स्तर हमेशा ही सर्वोपरी रहेगा.
- आज टीवी और सिनेमा इंडस्ट्री में कई बिहारी सक्रिय हैं. बावजुद इसके बिहार की पॉजिटिव छवि कहानियों में क्यों नहीं दिखती?
- देखिए इसका सबसे बड़ा कारण है जबतक हम बिहारी इस शब्द को लेकर खुद में प्राइड फ ील नहीं करेंगे बाहर वालों का नजरिया नहीं बदलेगा. हमारी सबसे बड़ी कमजोरी हमारी इंडिविजुअलिटी है. आज हर रीजन की अपनी कम्युनिटी अपनी एकता है, जो गाहे-बगाहे देश ही नहीं विदेशों में भी त्योहारों के जरिये, कल्चरल प्रोग्राम्स के जरिये झलकती है. पर हम बिहारी मुंबई में होते हुए भी एक-दूसरे से कटे हैं. दूसरी बात है हमारी प्रोग्रेस. तमाम विरासतों के बावजूद हम बाकी राज्यों की तुलना में बिहार को तरक्की से क ोसों दूर पाते हैं. छोटा सा उदाहरण दूं तो आज हमारे पास गुजरात, एमपी और केरला टुरिज्म की तरह लोगों को दिखाने के लिए एक विजुअल तक नहीं है. ऐसे में हम कैसे उम्मीद करें कि बाहर वाले हमारी छवि को बदल कर दिखाऐं. जबतक हम खुद को उस मुकाम तक ले जाकर दूसरों के सामने प्रोजेक्ट नहीं करेंगे दूसरों की नजरों में हमारी बरसों पुरानी छवि ही क ायम रहेगी और कहानियों में वही दिखेगा.
- इस निगेटिव छवि के लिए भोजपुरी फिल्म इंडस्ट्री की भुमिका कहां पाते हैं?
- यहां भी वही बात है. यहां कुछ अच्छे सोच वालों, कुछ अच्छा करने की चाहत रखने वालों पर मसाला मनोरंजन छवि वाले हावी हैं. कल्पना क ीजिए मैं अपना सबकुछ दांव पर लगाकर भोजपुरी सिनेमा को संस्कृति की ओर मोड़ने की कोशिश करता हूं. और यहां के रहनुमा ही टांग खिंचाई में लग जाते हैं तो सुधार की गुंजाइश कहां से होगी. और यह हो रहा है. बेहतर फिल्में जहां थियेटर की आस में दम तोड़ देती हैं और वहीं चालू किस्म की फिल्मों को शो पर शो मिलते हैं ऐसे में आप खुद ही अंदाजा लगा लें. इतनी बड़ी इंडस्ट्री को बिहार की इतनी बड़ी विरासत से एक उम्दा कहानी तक नहीं मिलती. भोजपुरी सिनेमा का इतना बड़ा माध्यम होने के बावजुद जब हम खुद को ही उस बूरी छवि के दायरे से बाहर लाने को तैयार नहीं हैं तो बाहरवालों से उम्मीद भी क्यों?
- इन सत्रह सालों में बिहार में क्या बदलाव नजर आता है आपको?
- एटीट्यूड अब भी वही है, सोच अब भी वही है. कुछ बदला है तो संरचना. पॉजिटिव-निगेटिव की बात नहीं करूंगा पर बिल्डिंग्स बढ़ गयी हैं, इंफ्रास्ट्रक्चर चेंज हो गये हैं पर सब अनप्लान्ड वे में. पहले की अपेक्षा सिक्योरिटी का भाव जरूर आम आदमी के मन में आया है पर विकास के रास्ते पर मंजिल अभी काफी दूर है. गाड़ियां भले बढ़ रही हों पर रिक्से भी उसी अनुपात में बढ़ रहे हैं. तो जबतक हम हर इंसान को गरीबी रेखा से ऊपर नहीं ले आते बदलाव के कोई मायने नहीं रह जाते.
- मुंबई (मायानगरी) की ओर रुख करने वालों को क्या सुझाव देंगे?
- क्रियेटिविटी किसी जमीन की मोहताज नहीं होती. हां यहां इंफ्रास्ट्रर का अभाव जरूर मुंबई की ओर ले जाता है. सबसे पहला तो मैं यह कहूंगा स्टडी कम्पलीट करो. क्योंकि यही है जो तुम्हें विफलता के दौर में भी स्ट्रेंथ देगा. मुंबई ऐसा शहर है जहां चीजें वर्क आउट ना करें तो आपको डिप्रेशन में भी ले जा सकता है और अगर साथ दे दे तो अमिताभ बच्चन भी बना सकता है. दूसरी बात इकोनोमिकली स्ट्रांग होकर अगर वहां मूव करें तो बेहतर होगा. एक बात और कहना चाहूंगा कि आजकल इतनी टेकAोलॉजी आ गयी हैं कि आप यहां बैठे हुए भी अपने काम के जरिये देश-दुनिया की नजरों में आ सकते हो. तो बेहतर होगा पहले खुद को एक्सप्लोर करो, चीजें खुद ब खुद वर्क आउट करेंगी.