पहले
हम घर-घर
में थे,
आज
हम जेब-जेब
में हैं:
राजेश
कुमार
टेलीविजन
की दुनिया से राब्ता रखने वाले
दर्शकों के लिए राजेश कुमार
किसी परिचय के मोहताज नहीं.
मुल
नाम से अगर ना पहचाने तो रोशेष
साराभाई और शर्मा जी इलाहाबाद
वाले जैसे किरदार उनकी पहचान
बताने को काफी है.
तकरीबन
सत्रह सालों से टेलीविजन की
दुनिया में निरंतर सक्रिय
राजेश एक बार फिर रोशेष साराभाई
के किरदार की वजह से चर्चा में
हैं.
बारह
साल बाद वेब सीरिज के जरिये
धारावाहिक साराभाई वर्सेस
साराभाई की नई कड़ी के साथ
दर्शकों को फिर से गुदगुदा
रहे राजेश ने प्रभात खबर से
मनोरंजन के बदलते माध्यम,
अपनी
जर्नी व बिहार में सिनेमा और
राजनीति के परिदृश्यों पर
खुलकर अपने विचार साझा किये.
देश
में निकला होगा चांद,
साराभाई
वर्सेस साराभाई,
बा,बहू
और बेबी,
मिसेज
एंड मिस्टर शर्मा इलाहाबाद
वाले और कुसुम जैसे धारावाहिक
से घर-घर
राज करने वाले राजेश कुमार
की जर्नी भी कम दिलचस्प नहीं
रही.
मॉडलिंग
व संजीदा किरदारों से करियर
की शुरूआत करने वाले राजेश
ने कुछ ही वक्त में क ॉमिक
किरदारों का दामन थाम लिया.
बेहतरीन
क ॉमिक टाइमिंग और अनूठे
एक्सप्रेशन ने जल्द ही उन्हें
सबका चहेता बना दिया.
इस
बीच फिल्मों में भी कोशिश की,
पर
सिनेमा की दुनिया रास नहीं
आयी.
हाल
ही में टीबी (ट्यूबरक्लॉसिस)
उन्मुलन
के लिए बिहार के ब्रांड अंबेसडर
बने राजेश से बातचीत की शुरुआत
साराभाई के साथ हुई.
- बातचीत
की शुरुआत रोशेष साराभाई की
दूसरी पारी से करते हैं.
इतने
सालों बाद वापस उसी किरदार
के साथ दर्शकों के बीच आने में
डर नहीं लगा?
- देखिए
डर अगर पौपुलरिटी के लिहाज
से कह रहे हैं तो बिलकुल नहीं
लगा.
मुङो
और पूरी टीम को इस शो की कामयाबी
का पूरा भरोसा था.
पहले
सीजन को मिले रिस्पांस से आप
भी वाकिफ होंगे.
लोग
आज भी साराभाई की दुनिया को
भूला नहीं पाये हैं.
दूसरे
सीजन के भी अनाउंसमेंट के बाद
से पॉजिटिव प्रतिक्रियाएं
आनी शुरू हो गयी.
हां
किरदार को लेकर मन थोड़ा सशंकित
था.
इतने
सालों बाद फिजीकल और मैच्योरिटी
के लेवल पर काफी डेवलप हो चुका
था.
सो
फिर से किरदार के उस इनोसेंस
और फ ील को वापस लाने का चैलेंज
था.
पर
शुटिंग शुरू होते ही जैसे ही
रोशेष के गेटअप में आया वो डर
भी दूर हो गया.
- इस
सीजन साराभाई टीवी के बजाय
वेब के जरिये लोगों के बीच
पहुंचा है.
यह
निर्णय कितना क ारगर रहा?
- थोड़ा
संशय तो रहता है.
पर
हमें कई मौकों पर रिस्क लेने
पड़ते हैं.
जिस
वक्त साराभाई का पहला सीजन
आया था तब लोग स्टार वन चैनल
ना के बराबर देखते थे.
पर
इस सीरियल के बाद उसकी पौपुलरिटी
चरम पर थी.
अब
चुंकि साराभाई पहले से ही
दर्शकों के जेहन में मौजूद
है तो हम सब को पूरा भरोसा है
कि माध्यम चाहे कोई भी हो दर्शक
हमतक पहुंच ही जाएंगे.
वैसे
भी वेब की रिच का आजकल काफी
तेजी से विस्तार हो रहा है.
वेब
तक पहुंच टीवी की अपेक्षा
थोड़ा टेढ़ा जरूर है पर मैं
तो इस बात को बिलकुल पॉजिटिवली
इस रूप में लेता हूं कि पहले
हम घर-घर
मौजूद थे आज हम जेब-जेब
में सफर कर रहे हैं.
- वापसी
का ख्याल कहां से आया?
- ऐसा
नहीं कि सीरियल खत्म होने के
बाद हम सब कलाकार एक-दूसरे
से मिलते नहीं थे.
मुलाकातें
होती रहती थी.
पहले
सीजन के दस साल बाद ऐसी ही एक
मुलाकात में सुमित (राघवन)
के
घर इस ख्याल ने जन्म लिया.
फिर
एक साल बाद इंद्रवदन और सतीश
शाह जी के साथ मुलाकात में
सबने तय किया कि कम से कम एक
बार और साराभाई की वापसी तो
बनती है.
खुद
के लिए ना सही पर दर्शकों का
इतना हक तो बनता है.
चले
न चले ये शो का नसीब है.
पहले
सीजन के वक्त भी हमने कहां
सोचा था कि शो इतना हिट होगा.
- एक
बात आपसे पुछने की इच्छा हमेशा
रही कि क्या कारण है कि बाकी
बिहारी कलाकारों की तरह आपकी
पटना यात्र मीडिया की सुर्खियों
से दूर रहती हैं?
- (हंसते
हैं)
बात
कुछ खास नहीं.
मुङो
भी लोगों से मिलना अच्छा लगता
है,
बात
करना भाता है.
पर
सच कहूं तो इंटरव्यू शब्द से
मुङो बड़ी परेशानी होती है.
ईमानदारी
से कहूं तो मैंने कभी खुद को
स्टार नहीं माना.
मैं
खुद को आपकी तरह ही एक प्रोफेशन
वाला व्यक्ति मानता हूं जो
सूबह से शाम तक अभिनय करता है
और फिर घर वापस आ जाता है.
लाइमलाइट
में रहने का आदी आज भी नहीं हो
पाया हूं.
यहां-वहां
घूमकर प्रोग्राम अटेंड करने
और शो ऑफ के बजाय मैं खुद को
मम्मी-पापा
से बात करने,
उनकी
हेल्प करने और घर की साफ-सफाई(राजेश
के अनुसार हर बार पटना यात्र
के दौरान वो घर झाड़ू-पोछा
खुद करते हैं)
करने
में ज्यादा कंफर्टेबल फ ील
करता हूं.
- अभिनय
के शुरुआत की क्या कहानी है?
- इस
सवाल का जवाब दे दे कर थक चुका
हूं.
पर
इस बार शब्दों के जरिये नहीं
तस्वीर के जरिये इसका जवाब
दूंगा.
देखो
और खुद अंदाजा लगा लो कि ये
रोग कब लग गया.
- हर
कलाकार का सपना बड़े परदे पर
दिखना होता है.
इतने
लंबे जर्नी में आपने कभी ऐसी
कोशिश क्यों नहीं की?
- हर
किसी का अपना-अपना
माइंडसेट होता है.
मैंने
भी एक फिल्म की सूपर नानी.
पर
सच कहूं तो टीवी मुङो हमेशा
से ज्यादा अपना लगा.
हम
बिहारियों की एक मेंटिलिटी
रही है कि हर दिन काम करना ही
करना है.
सिनेमा
की दुनिया इस मामले में बिलकुल
उलट है.
दस
दिन काम के बाद शायद महीनों
का इंतजार करना पड़ जाता है.
पर
यहां टीवी में आपको महीने भर
की छुट्टियां शायद साल-दो
साल के बाद मिल पाती हैं.
और
दूसरी बात यह भी है कि फिल्मों
से कभी उस किस्म का रोल ऑफर ही
नहीं हुआ जो अंदर तक एक्साइटेड
कर दे.
तो
फिल्मों में जाकर भिखारी के
किरदार में वेस्ट होने से
अच्छा टीवी की दुनिया में
महाराजा बनूं और उसे इंन्जॉय
करूं.
- क
ॉमिक जॉनर से बाहर आने की कितनी
खलबली है आपके अंदर के कलाकार
में?
- शुरुआत
मैंने इस जॉनर के बाहर रहकर
ही की है.
बाद
के दिनों में मैं इस दायरे में
शामिल हो गया.
पर
आप इसे मेरा कंफर्ट जोन नहीं
कह सकते.
मेरे
ख्याल में अभिनय की सबसे क ठिन
विधा है हास्यरस में किसी को
उतार पाना.
हां
निगेटिव रोल की ख्वाहिश जरूर
है अंदर पर कुछ भी आसान चुनने
के बजाय मैं मुश्किल रास्तों
पर ही चलना ज्यादा पसंद करता
हूं.
और
कॉमेडी इज लाइक क्लासिकल
म्यूजिक.
आप
कैसे भी गाने सून लो पर आखिर
में मुश्किल क्लासिकल म्यूजिक
ही सूकून देता है.
तो
चाहे कोई विधा अपना लें पर
कॉमेडी का स्तर हमेशा ही
सर्वोपरी रहेगा.
- आज
टीवी और सिनेमा इंडस्ट्री
में कई बिहारी सक्रिय हैं.
बावजुद
इसके बिहार की पॉजिटिव छवि
कहानियों में क्यों नहीं
दिखती?
- देखिए
इसका सबसे बड़ा कारण है जबतक
हम बिहारी इस शब्द को लेकर खुद
में प्राइड फ ील नहीं करेंगे
बाहर वालों का नजरिया नहीं
बदलेगा.
हमारी
सबसे बड़ी कमजोरी हमारी
इंडिविजुअलिटी है.
आज
हर रीजन की अपनी कम्युनिटी
अपनी एकता है,
जो
गाहे-बगाहे
देश ही नहीं विदेशों में भी
त्योहारों के जरिये,
कल्चरल
प्रोग्राम्स के जरिये झलकती
है.
पर
हम बिहारी मुंबई में होते हुए
भी एक-दूसरे
से कटे हैं.
दूसरी
बात है हमारी प्रोग्रेस.
तमाम
विरासतों के बावजूद हम बाकी
राज्यों की तुलना में बिहार
को तरक्की से क ोसों दूर पाते
हैं.
छोटा
सा उदाहरण दूं तो आज हमारे पास
गुजरात,
एमपी
और केरला टुरिज्म की तरह लोगों
को दिखाने के लिए एक विजुअल
तक नहीं है.
ऐसे
में हम कैसे उम्मीद करें कि
बाहर वाले हमारी छवि को बदल
कर दिखाऐं.
जबतक
हम खुद को उस मुकाम तक ले जाकर
दूसरों के सामने प्रोजेक्ट
नहीं करेंगे दूसरों की नजरों
में हमारी बरसों पुरानी छवि
ही क ायम रहेगी और कहानियों
में वही दिखेगा.
-
इस
निगेटिव छवि के लिए भोजपुरी
फिल्म इंडस्ट्री की भुमिका
कहां पाते हैं?
- यहां
भी वही बात है.
यहां
कुछ अच्छे सोच वालों,
कुछ
अच्छा करने की चाहत रखने वालों
पर मसाला मनोरंजन छवि वाले
हावी हैं.
कल्पना
क ीजिए मैं अपना सबकुछ दांव
पर लगाकर भोजपुरी सिनेमा को
संस्कृति की ओर मोड़ने की
कोशिश करता हूं.
और
यहां के रहनुमा ही टांग खिंचाई
में लग जाते हैं तो सुधार की
गुंजाइश कहां से होगी.
और
यह हो रहा है.
बेहतर
फिल्में जहां थियेटर की आस
में दम तोड़ देती हैं और वहीं
चालू किस्म की फिल्मों को शो
पर शो मिलते हैं ऐसे में आप
खुद ही अंदाजा लगा लें.
इतनी
बड़ी इंडस्ट्री को बिहार की
इतनी बड़ी विरासत से एक उम्दा
कहानी तक नहीं मिलती.
भोजपुरी
सिनेमा का इतना बड़ा माध्यम
होने के बावजुद जब हम खुद को
ही उस बूरी छवि के दायरे से
बाहर लाने को तैयार नहीं हैं
तो बाहरवालों से उम्मीद भी
क्यों?
- इन
सत्रह सालों में बिहार में
क्या बदलाव नजर आता है आपको?
- एटीट्यूड
अब भी वही है,
सोच
अब भी वही है.
कुछ
बदला है तो संरचना.
पॉजिटिव-निगेटिव
की बात नहीं करूंगा पर बिल्डिंग्स
बढ़ गयी हैं,
इंफ्रास्ट्रक्चर
चेंज हो गये हैं पर सब अनप्लान्ड
वे में.
पहले
की अपेक्षा सिक्योरिटी का
भाव जरूर आम आदमी के मन में
आया है पर विकास के रास्ते पर
मंजिल अभी काफी दूर है.
गाड़ियां
भले बढ़ रही हों पर रिक्से भी
उसी अनुपात में बढ़ रहे हैं.
तो
जबतक हम हर इंसान को गरीबी
रेखा से ऊपर नहीं ले आते बदलाव
के कोई मायने नहीं रह जाते.
- मुंबई
(मायानगरी)
की
ओर रुख करने वालों को क्या
सुझाव देंगे?
- क्रियेटिविटी
किसी जमीन की मोहताज नहीं
होती.
हां
यहां इंफ्रास्ट्रर का अभाव
जरूर मुंबई की ओर ले जाता है.
सबसे
पहला तो मैं यह कहूंगा स्टडी
कम्पलीट करो.
क्योंकि
यही है जो तुम्हें विफलता के
दौर में भी स्ट्रेंथ देगा.
मुंबई
ऐसा शहर है जहां चीजें वर्क
आउट ना करें तो आपको डिप्रेशन
में भी ले जा सकता है और अगर
साथ दे दे तो अमिताभ बच्चन भी
बना सकता है.
दूसरी
बात इकोनोमिकली स्ट्रांग
होकर अगर वहां मूव करें तो
बेहतर होगा.
एक
बात और कहना चाहूंगा कि आजकल
इतनी टेकAोलॉजी
आ गयी हैं कि आप यहां बैठे हुए
भी अपने काम के जरिये देश-दुनिया
की नजरों में आ सकते हो.
तो
बेहतर होगा पहले खुद को एक्सप्लोर
करो,
चीजें
खुद ब खुद वर्क आउट करेंगी.
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