Sunday, June 11, 2017

नलिन सिंह एक्टर-डायरेक्टर


सिनेमा को थियेटर से डिजिटल प्लेटफार्म तक लाना मेरी चुनौती

क्षेत्र चाहे कोई भी हो, बिहार की मिट्टी के पैदाइश समय-समय पर अपनी धमक का अहसास कराते रहते हैं. यह इस मिट्टी की उर्वरता ही है जो मेहनत और प्रतिरोध की संस्कृति में पले-बढ़े बिहारियों की प्रतिभा ही उनकी पहचान बन जाती है. कुछ ऐसी ही कहानी है प्रतिभा से लबरेज पटना के नलिन सिंह की. एमबीए की डिग्री और अच्छे जॉब के बावजूद अनिश्चितताओं भरी सिनेमा इंडस्ट्री में अपनी दखल और सिनेमा को डिजिटल प्लेटफार्म पर लाने की कोशिश में लगे नलिन अपनी सफलता के प्रति पूर्ण आश्वस्त हैं. मेहनत और दूरदर्शिता पर आधारित उनका यही यकीन उन्हें भीड़ में भी अलग पहचान देता है. प्रभात खबर के गौरव से बातचीत के दौरान उनका अपनी अगली फिल्म माय वजिर्न डायरी की तैयारी में लगे नलिन ने सिनेमा और उसके बदलते स्वरूप पर खुलकर अपनी सोच जाहिर की.

तकरीबन बीस साल पहले पटना के संत माइकल का छात्र आगे की पढ़ाई के लिए दिल्ली के हिंदू युनिवर्सिटी जाता है. अंग्रेजी से आनर्स करता है. फिर गाजियाबाद से एमबीए कर अच्छी जॉब भी करता है. पर हिंदू क ॉलेज में इम्तियाज अली और अर्णव गोस्वामी जैसों की संगत उसे टीवी के रास्ते सिनेमा की दुनिया में खींच लाती है. और फिर उसकी सिनेमायी सोच वाली तरकश से निकलता है गांधी टू हिटलर जैसा सराहनीय सिनेमा.

- शुरुआत माय वजिर्न डायरी से करते हैं. क्या है यह फिल्म?
- यह जर्नी है मेरे हॉस्टल के दिनों की. मेरे अंदर के और मेरे आस-पास की दुनिया को शब्दों और दृश्यों की शक्ल दी है मैंने. ओशो के विचारों (प्रेम, सेक्स और स्प्रिचुअलिटी) के इर्द-गिर्द घुमती यह फिल्म एक ऐसे यूवा की कहानी है जो अपने आस-पास की हर उस चीज से बात करता है जो दुनिया की नजर में निर्जीव है. इसमें मेरे एक ऐसे दोस्त की कहानी भी है जो शहर पढ़ने आता है पर बदलते जीवनशैली, परिवेश, करियर और तमाम अन्य दबावों का सामना नहीं कर पाता और सुसाइड जैसा कदम उठा लेता है. ऐसी कई घटनाएं दिखेंगी आपको इसमें जो सामान्य होते हुए भी कई गिरह खुद में समेटे है. इस फिल्म में ब्राजील, पोलैंड के साथ यूपी-बिहार के कलाकारों ने भी काम किया है.
- आगे बढ़ने से पहले कुछ अपने बारे में बताएं.
- जन्म पटना में ही हुआ. संत माइकल हाईस्कूल का पास आउट हूं. पिताजी डॉक्टरी पेशे में थे, मां बिहार गवर्नमेंट सर्विस में डिप्टी डायरेक्टर रह चुकी हैं. एक चाचाजी पटना एएन क ॉलेज के प्रिंसीपल रह चुके हैं. तो ऐसे माहौल में परवरिश हुई. क ॉलेज के दौरान कंगना रानौत जैसे साथियों के साथ थियेटर का मौका भी मिला. पर सिनेमा में जाने की बात दूर-दूर तक जेहन में नहीं थी. फिर इम्तियाज अली के फिल्मों में आने और अर्णव के सुझावों से लगा कि मेरे जैसा मिडिल क्लास का लड़का भी मेहनत के दम पर इस फील्ड में आ सकता है. यहीं से टीवी की जर्नी शुरू हुई जो फिल्मों तक पहुंच गयी.
- बैकग्राउंड आपका कहीं से फिल्मी नहीं था. फिर आपने सिनेमा में आने के लिए घरवालों को कैसे राजी किया?
- एमबीए करने के बाद मुङो अच्छा-खासा जॉब मिल चुका था. पर थियेटर की अकुलाहट मुङो सिनेमा की ओर खींच रही थी. आखिरकार मैंने रिजाइन दे दिया. घरवालों को कहा डिग्री है तो जॉब कभी भी मिल जाएगा. बस एक साल आप मुङो दे दें मेरे मन का करने को. फिर उनकी इजाजत के बाद टीवी इंडस्ट्री ज्वाइन किया. इसी दौरान मास कम्युनिकेशन भी की. वहीं मुङो गांधी टू हिटलर का आयडिया आया.
- आपने कभी कहा था कि गांधी टू हिटलर की जर्नी आपके लिए काफी पेनफुल रही. ऐसा क्यों?
- आज भी कहता हूं. वाकई उस जर्नी ने मुङो बिलकुल खुशी नहीं दी. शुरुआत में काफी पैसे खर्च हो गये. एक्टर्स और टेक्नीशियंस का एटीच्यूड इतना परेशान करने वाला था कि एक वक्त तो निर्देशन और फिल्मकार बनने के नाम से विरक्ति हो गयी. मैं जिस बिहारी मानसिकता वाले सपोर्ट की अपेक्षा कर रहा था सब बिलकुल उसके उलट थे. मीडिया भी एक नये फिल्ममेकर को स्पेस देने से कतरा रही थी. उनके लिए मैं बिकाऊ हाथी कतई नहीं था. राहत तब जाकर मिली जब फिल्म कांस, बर्लिन फिल्म फेस्टिवल्स के जरिये इंटरनेशनल मीडिया में छायी. तब इंडियन मीडिया ने भी उसके पीछे भागना शुरू किया.
- क्या वजह मानते हैं कि गांधी टू हिटलर जैसी फिल्में फॉरेन फिल्म फेस्टिवल्स और मीडिया में तो अक्लेम्ड हो जाती है पर अपने देश में थियेटर को तरस जाती हैं?
- सीरियसली कहूं तो यहां एक लॉबी है जो पूरी इंडस्ट्री पर हावी है. भले आपको यह मेरे भीतर का झोभ लगेगा पर यह हकीकत है कि अगर आप उस लॉबी में फिट नहीं बैठते हैं, आउटसाइडर हैं तो वे आपको डरायेंगे. कदम-कदम पर आपको गिराने की कोशिश करेंगे.
- आपके अंदर एक्टर और डायरेक्टर दोनों छिपा बैठा है. इनमें कौन सा किरदार बाहर आने को ज्यादा उबाल मारता है.
- हा-हा(जोर से हंसते हुए), ये आपने मेरे मन का पुछा. देखिए, एक्टर तो हर इंसान पैदाइशी होता है. जिंदगी के अलग-अलग मोड़ पर अलग-अलग लोगों के साथ हम हर वक्त अभिनय करते हैं. डायरेक्शन में हमें एक अच्छा ऑबजर्वर बनना पड़ता है. चीजों की गहन पड़ताल करनी पड़ती है और उसे रीक्रियेट करना पड़ता है. दोनों ही पक्ष मुझमें हैं. पर यह कन्फ्यूजन अब तक बरकरार है कि मेरा कौन किरदार दूसरे पर भारी पड़ने वाला है.
- फिल्मकार के अलावे आपके अंदर और कौन सा किरदार जज्ब है?
- एक संगीतज्ञ का. यकीनन अगर मैं एक्टर-डायरेक्टर नहीं होता तो आज कहीं स्कूल खोलकर संगीत की शिक्षा दे रहा होता. दुविधा यह है कि मेरे अंदर के कलाकार ने कभी किसी और पक्ष को उभरने ही नहीं दिया. पर संगीत के प्रति आकर्षण मैं गाहे-बगाहे महसूस करता रहता हूं.
- आजकल आप सिनेमा में डिजिटल प्लेटफार्म के पैरवीकार नजर आ रहे हैं, क्या फ्यूचर दिखता है आपको इसका?
- गांधी टू हिटलर की जर्नी के बाद मैं काफी दबाव में था. फिर यू ट्यूब, नेटफ्लिकस और अन्य डिजिटल प्लेटफार्म के आने के बाद मुङो लगा कि अब वो वक्त आ गया है जब मैं अपनी बात आसानी से लोगों तक पहूंचा सकता हूं. क्योंकि यहां स्टार ओरियेंटेड नहीं कंटेंट ओरियेंटेड व्यूअर्स हैं. दूसरी बात अब लोग भी थियेटर से मुंह मोड़ रहे हैं. आप ही बताइए आपने पिछली बार कब फुल फैमिली थियेटर का रुख किया था. अब वक्त नहीं है लोगों के पास थियेटर के लिए. ऐसे में डिजिटल प्लेटफार्म ही सिनेमा को जिंदा रखेगा. शुरुआत मैंने कर दी है. मेरी फिल्म माय वजिर्न डायरी भारत की पहली फिल्म होगी जो वेब के जरिये एक साथ पांच देशों में अलग-अलग लैंग्वेज के सब टाइटल्स के साथ रिलीज होगी.
- रुख थोड़ा बिहार की ओर करते हैं. बिहारी फिल्मकारों की फौज होने के बावजूद सिनेमा में बिहार आज भी नकारात्मक छवि की गिरफ्त में है. आखिर ऐसा क्यों है?
- देखिए, इसकी बड़ी जिम्मेदारी बिहारियों की खुद है. छोटा सा उदाहरण लें तो इंटर एग्जाम रिजल्ट के बाद की घटना पूरे देश ने देखा. देश ही नहीं विदेशी भारतीयों में भी चर्चा का विषय बना. ऐसी ही कई घटनाएं हैं. अब आप बताइए, फिल्मकार तो आपकी वही छवि दिखाएंगे जो वो आपमें देख रहे हैं. हम लोगों तक अपनी अच्छाइयां, अपने रिच कल्चर को पहुंचा ही नहीं पा रहे. बुराईयां और निगेटिविटी देश-दुनिया में हर जगह हैं, पर हम अपनी अच्छाईयां भूलकर बस बुराइयों को प्रोजेक्ट कर रहे हैं. जरूरी है पहले हम खुद अपनी इमेज बदलें, सिनेमा में वो अपने-आप दिखने लगेगा.
- क्या ये विडंबना नहीं है कि बिहार के रिफरेंस पर बनी अच्छी फिल्में विदेशी दर्शकों को लुभा रही हैं पर बिहार के दर्शकों की पसंद नहीं बन पा रही?
- थोड़ा वक्त दीजिए, लोग समङोंगे और सराहेंगे भी. मैं किसी को दोष नहीं दे रहा पर बात बस इतनी है कि सालों से औसत दज्रे के फिल्ममेकर्स और थियेटर्स दर्शकों का एक्सप्लॉयटेशन करते आ रहे हैं. पैसे की चाहत में दर्शकों को सस्ता मसाला परोसने से भी उन्हें गुरेज नहीं. पर अब यह बदलेगा. फेसबुक, यूट्यूब और व्हाट्सएप जैसे मीडिया के आने के बाद मनोरंजन अब थियेटर से निकलकर जेब तक आ गया है. अब दर्शक कंटेंट समझने लगे हैं. यकीनन डिजिटल क्रांति दर्शकों को असली मनोरंजन का मतलब सिखाएगा.
- बीस साल की जर्नी पर एक सरसरी निगाह डालें तो खुद को कहां पाते हैं?
- मैं अब भी वहीं खड़ा हूं. जिंदगी के सफर में कितना भी आगे निकल जाऊं पर दिल अब भी पटना में ही है. अचीवमेंट बस इतना सा है कि संत माइकल का बैक बेंचर लड़का आज उसी स्कूल में स्टेज से बच्चों को संबोधित करने के लिए आमंत्रित होता है. थोड़ा अटपटा लगता है पर इसे ही उपलब्धि भी मानता हूं. दिल्ली-मुंबई में तन होते हुए भी मन बिहार में है यही जमा-पुंजी है.
- डिजिटल प्लेटफार्म के जरिये सिनेमा का रुख करने वाले युवाओं के लिए कुछ मंत्र?
- इस प्लेटफार्म का सबसे बड़ा फायदा यह है कि आपको कहीं जाने की जरूरत नहीं है. आप जहां हो वहीं से अच्छे कंटेंट और परफार्मेस के जरिये दुनिया की नजरों में आ सकते हैं. और यह प्लेटफार्म कम खर्चे में आपकी आमदनी का जरिया भी बन सकता है. मेरी डिजिटल कंपनी भी ऐसे युवाओं को प्रमोट करने का काम करती है. सुविधाओं के बजाय क ाबिलियत पर भरोसा रखकर आगे बढ़ो तो यह प्लेटफार्म निश्चित ही कामयाबी दिलायेगी.


No comments: