बेचैन किरदारों का सुलझा निर्देशक
प्रतिभा
किसी सुविधा की मोहताज नहीं
होती और ये बात बिहार से निकले
कई लोगों की सफलता खुद ब खुद
कहती है.
तत्कालीन
बिहार के जमशेदपुर में जन्में
फिल्म निर्देशक इम्तियाज अली
की कहानी भी कुछ ऐसी ही है.
मूल
रूप से दरभंगा के इम्तियाज
सिनेमा की कई जटिलताओं के साथ
बिहार की और भी कई यादें खुद
के अंदर जज्ब किये हुए हैं.
जैसे
ही बातचीत का मौका मिला,
उन
यादों और विचारों ने शब्दों
की शक्ल ले ली.
जब
वी मेट,
रॉकस्टार,
हाइवे,
तमाशा.
ग्यारह
सालों के सफर में केवल सात
फिल्में.
बात
कर रहा हूं हिंदी सिनेमा के
कन्फ्यूज्ड किरदारों के फोकस्ड
निर्देशक इम्तियाज अली की.
पटना
की गलियों से निकलकर एक बिहारी
छोरा कैसे मुंबई की जटिलता
भरी सिनेमाई दुनिया का अगुआ
बन जाता है,
अपने
आप में शोध का विषय है.
अपनी
फिल्मों के जरिये किरदारों
के मनोदशा की परतें उधेड़ते,
प्रेम
की अपारंपरिक परिभाषा गढ़ते
और किरदार के अंदर की उथल-पुथल
से आंख-मिचौली
करते इम्तियाज अली की शख्सियत
पल में आपको अपनी मोहपाश में
बांध लेने वाली मृगमरीचिका
सरीखी है.
मिलने
से पहले इस बात का अंदेशा तो
था कि इम्तियाज जैसे शख्स की
गांठ खोलना आसान नहीं होगा,
पर
तकरीबन चालीस मिनट की बातचीत
के दौरान कई अनसुलङो गिरह
खोलने की कोशिश कामयाब रही.
मार्केटिंग-एडवरटाइजिंग
का बंदा इम्तियाज आगे जाकर
फिल्मों में स्कोप तलाशता
है.
आपके
किरदारों का कन्फ्यूजन भी
कहीं आपके अंदर की बेचैनी का
रिफ्लेक्शन तो नहीं?
(ठहाके
लगाते हुए)
कह
सकते हैं.
थोड़ी
खुद के और थोड़ी आस-पास
के लोगों के अंदर की बेचैनी
मिलाकर ही एक किरदार गढ़ता
हूं.
और
अगर मुझसे पुछें तो कन्फ्यूज्ड
होना इंसान के लिए हमेशा पॉजिटिव
होता है.
क्योंकि
जब भी हम कोई धारणा मन में गढ़ते
हैं तो कुछ ही वक्त में उसके
अधीन हो जाते है.
फिर
हम उससे बाहर की बातें सोच ही
नहीं पाते.
और
जिस दिन से हम सोच का दायरा
सीमित कर लेते हैं हमारा पतन
शुरू हो जाता है.
कन्फ्यूजन
इंसान को तब होता है जब एक धारणा
के मन में होते हुए हम दूसरी
धारणा की ओर आकर्षित होते हैं.
ऐसे
सिचुएशन ही कहानी या किरदार
को ड्रामेटिक या देखने-सूनने
लायक बनाते हैं.
थोड़ा
फ्लैशबैक में चलें तो घर से
भागकर थियेटर्स के प्रोजेक्टर
रूम में बैठकर फिल्में देखते-देखते
उसी फिल्मनगरी के क ामयाब
निर्देशक की जर्नी कैसी रही?
बीस
साल की जर्नी है,
बात
क रूं तो शायद कुछेक साल भी कम
पड़ जाएं.
जन्म
जमशेदपुर में हुआ फिर नोट्रेडेम
व संतमाइकल पटना से पढ़ाई की.
यहीं
राजेन्द्रनगर बैंक रोड में
रहता था.
आठ
साल यहां रहा.
पिताजी
का ट्रांसफरेबल जॉब होने की
वजह से एक बार फिर जमशेदपुर
पहुंचा.
वहां
रिश्तेदार के दो थियेटर्स थे
तो फ्री में फिल्म देखने की
लिबर्टी थी.
पसंदीदा
दृश्यों को बार-बार
देखने की गरज से मै और आरिफ(भाई
आरिफ अली)
प्रोजेक्टर
रूम में बैठकर भी फिल्म देख
लिया करते थे.
फिर
दिल्ली युनिवर्सिटी से पढ़ाई
की और मार्केटिंग-एडवरटाइजिंग
में भविष्य तलाशने लगा.
वो
काम तो हाथ लगा नहीं हां टेलीविजन
में प्रोडक्शन असिस्टेंट का
काम मिला.
फिर
थियेटर और फिल्में.
यही
संक्षिप्त जर्नी है.
ग्यारह
साल और सात फिल्में.
इतनी
निश्चिंतता की वजह?
देखिए,
मेरे
मन के गागर में कहानियों का
जो सागर है वो सीमित है.
पर
मै उसका पूरी जिंदगी करना
चाहता हूं.
तो
मुङो लगता है कि अगर मै उसे
तेजी से खर्च क रूंगा तो जल्द
ही खत्म हो जाऊंगा.
इसलिए
मै उसका इस्तेमाल धीरे-धीरे
और पूरी तल्लीनता से कर रहा
हूं.
दूसरी
बात क्वालिटी के आगे क्वांटिटी
कभी बेस्ट च्वाइस हो ही नहीं
सकती.
जल्दबाजी
में कुछ भी बना देने से अच्छा
धीरे-धीरे
ही सही पर मन का करूं ताकि लंबा
टिक पाऊं.
नजर
थोड़ा बिहार की ओर करें तो कुछ
अपवादों को छोड़कर सौ साल के
हिंदी सिनेमा में बिहार का
प्रोस्पेक्टिव केवल निगेटिव
या जोक्स जैसा रहा.
क्या
वजह रही?
आप
जो कह रहे हैं ये बहुत अहम सवाल
है.
और
मै कुछ भी झूठ-सच
बोल कर इस सवाल को दरकिनार
नहीं कर सकता.
भले
सौ साल के सिनेमा में मै केवल
दस साल का हिस्सेदार रहा हूं
फिर भी इस उपेक्षा से मुंह
नहीं मोड़ सकता.
इसके
सही-सही
कारणों का उत्तर मै भी आज तक
नहीं ढूंढ पाया हूं पर मै इसकी
जिम्मेदारी केवल फिल्मकारों
के मत्थे नहीं मढ़ सकता.
दर्शक
देखते हैं तो फिल्मकार दिखाते
हैं.
आप
देखना बंद करो,
अशोक-कुं
वर सिंह का बिहार सामने करो,
फिल्मकारों
का पर्सपेक्टिव खुद ब खुद बदल
जाएगा.
हम
इस बदलाव की उम्मीद आपसे क्यूं
न करें?
बिलकुल
क8ीजिए,
और
करना भी चाहिए.
मै
खुद भी एक्सपेक्ट करता हूं
कि कोई ऐसी फिल्म बनाऊं जिससे
बिहार झलके.
मगर
वो कोई आम फिल्म नहीं हो सकती
जिसमें केवल नाम भर बिहार
दिखे.
कुछ
खास होना चाहिए ताकि लोग कह
सकें हां ये बिहार है.
उस
खास का इंतजार है,
कहानी
की तलाश है,
फिर
बिहार जरूर दिखेगा मेरी फिल्म
में.
आपके
किरदारों की तरह कुछ आपके अंदर
भी झांकने की कोशिश करते हैं.
अगर
इम्तियाज निर्देशक न होते तो
क्या होते?
ये
आपने मेरे मन का पुछा(हंसते
हुए).
सच
में अगर मै निर्देशक न होता
तो बास्केटबॉल चैंपियन होता,
जो
अबतक किसी टीम का क ोच बन चुका
होता.
स्कूल
के दिनों में बास्केटबॉल के
प्रति सीरियसनेस का ये आलम
था कि एक वक्त तो मै ये डिसाइड
करने लगा था कि इंजीनियरिंग
की तैयारी करूं या बास्केटबॉल
कैंप ज्वाइन कर लूं.
अब
वो सीरियसनेस,
वो
शौक कहां है?
निर्देशक
रूपी किरदार ने उसे मन के किसी
कोने में कैद कर दिया है.
कई
बार आजादी के लिए मचलता भी है.
पर
नये किरदार ने उसे वक्त की
जंजीर में गहरे जकड़ रखा है.
फिल्मों
में बाजार का बढ़ता प्रभाव
और स्टार सिस्टम के बारे में
क्या राय है?
जिसे
आप बाजार का प्रभाव कह रहे हैं
वही सबसे जरूरी तत्व है फिल्म
बनाने के लिए.
कोई
प्रोडय़ूसर करोड़ों-करोड़
खर्च कर रहा है फिल्म निर्माण
पर तो हम निर्देशकों का भी फर्ज बनता है कि उसे उचित मात्र
में रिकवरी दें.
अगर
ऐसा नहीं होता है तो कुछ ही
वक्त में फिल्म निर्माण का
सिलसिला ही थम जाएगा.
और
रिकवरी के लिए मनोरंजक फिल्में
बनाना जरूरी है.
मै
अपनी बात करूं तो मै अपने मन
के लिए ऐसी फिल्म कभी नहीं
बनाना चाहूंगा जिससे निर्माताओं
को नुकसान हो.
जहां
तक स्टार सिस्टम की बात है तो
मेरे अनुसार इससे फिल्म
इंडस्ट्री को नुकसान ही है.
इसकी
वजह से नई प्रतिभाओं को सही
से उभरने का मौका ही नहीं मिलता.
गानों
के साथ आप काफी अठखेलियां करते
हैं,
खासकर
इरशाद क ामिल के साथ मिलकर.
जल्द
ही उन अठखेलियों में दर्शक
भी शामिल हो जाते हैं.
ये
कैसे हो पाता है?
इरशाद
और मेरी केमिस्ट्री ऐसी है
जहां बदतमीजियों का स्कोप
पूरा है.
लिहाज
और फ ॉर्मलिटी के लिए हमारे
बीच कोई स्पेस ही नहीं है.
उसे
पता होता है कि मेरी फिल्म को
क्या चाहिए.
कभी-कभी
तो मेरी फिल्म के ड्राफ्ट
देखकर वो ही कई तब्दीलियां
कर देता है.
अक्सर
मै उनसे कहता हूं कि कुछ बातें
जो मै कहानी के जरिये नहीं कह
सकता इसको आप गानों के जरिये
कैसे कहेंगे.
हम
दोनों ही लिरिक्स,
गानें
की लाइनों और सिचुएशनल वर्ड्स
पर घंटों लड़ते हैं.
थियेटर
की जरूरत कितनी है इस फ ील्ड
में?
बहुत,
बहुत
जरूरी है.
क्योंकि
थियेटर ही है जो आपको तराशता
है.
ये
ऐसा मंच है जहां आप अकेले ही
सारी जिम्मेदारियां एक साथ
संभाल सकते हैं.
नाटक
लिखने से लेकर एक्टर और डायरेक्टर
की जिम्मेदारी आप खुद ही ले
सकते हैं.
मैने
खुद कई ऐसा प्ले किया जहां मै
वन मैन आर्मी था.
ये
जिम्मेदारी ही आपको आगे चलकर
निखारती है.
मै
तो अब भी थियेटर के प्रति इतना
आशक्त हूं कि मौके कि तलाश में
रहता हूं.
थियेटर
का भविष्य भी काफी सुनहरा है,
विश्वास
रखिये आने वाले दिनों में
थियेटर भी काफी कमर्शियलाइज्ड
होगा.
बिहार
आकर कभी थियेटर करना चाहेंगे?
आप
बुलाइए तो सही.
अच्छी
पटकथा दिखे जो दिल में उतर
जाएं फिर तो मै कभी भी आने को
तैयार हूं.
बिहार
में थियेटर की स्थिति का मुङो
ज्यादा अंदाजा तो नहीं पर अभी
मै शिमला में थियेटर वालों
के साथ मिलकर कुछ प्लानिंग
कर रहा हूं,
जल्द
ही खुलासा करूंगा.
आखिर
में बिहारी युवाओं के लिए कुछ
खास मोटिवेशनल?
देखिए
कला के क्षेत्र में सफल लोग
कभी किसी सुविधा के मोहताज
नहीं रहे.
ये
कहना कि इस कमी की वजह से मै
सफल नहीं हो पाया आपकी कमजोरी
है.
इरान
जैसा देश तमाम अभावों के बावजूद
आज सर्वश्रेष्ठ सिनेमा देता
है.
तो
प्रतिभा को खुद तराशिए.
अंदर
के आग को जलाए रखिए और इस बात
का इंतजार मत क ीजिए कि कोई
सामने से आकर आपकी मदद करेगा.
उन्हीं
अभावों के बीच रास्ता तलाशिए
मंजिल जरूर हासिल होगी.