Thursday, December 15, 2016

बिहार हमेशा से मुङो अपनी ओर खींचता रहा है: पंकज त्रिपाठी






वक्त की लंबी खाई भी टैलेंट को मंजिल तक पहुंचने से नहीं रोक सकती. समय-समय पर कई बिहारी प्रतिभाओं ने इसे साबित किया है. गैंग्स ऑफ वासेपुर, मांझी द माउंटेनमैन, मसान और नील बटे सन्नाटा जैसी फिल्मों से अपने अभिनय का लोहा मनवा चुके पंकज त्रिपाठी की कहानीं भी कुछ ऐसी ही है. जमीन से लगाव ऐसा कि पटना फिल्म फेस्टिवल में शिरकत करने के लिए मकाऊ फिल्म फेस्टिवल का ऑफर दरकिनार कर दिया. पटना आये पंकज त्रिपाठी ने प्रभात खबर से खास बातचीत में कई मुद्दों पर अपनी राय रखी.
-इतनी सारी फिल्में, और हर फिल्म में अलहदा किरदार. इतनी वेरायटी कहां से लाते हैं?
ये एक लंबी प्रक्रिया है. अभिनय की शुरुआत लगभग 20 वर्ष पहले हुई. ये उन बीस सालों की मेहनत का नतीजा है, जो मैंने क्राफ्ट और कला को साधने में लगायी है. अब अंदर में इतना कुछ जमा हो चुका है कि हर किरदार को मै कुछ नया दे सकता हूं. अगले साल मेरी लगभग दस फिल्में आने वाली हैं. पर आप देखोगे तो पाओगे सभी के शेड्स एक-दूसरे से बिलकूल जुदा हैं. और यही वजह कि अब बड़ी फिल्मों के निर्देशक छोटी भुमिकाओं के लिए भी मुङो बुलाने लगे हैं क्योंकि उन्हें लगता है कि ये छोटी भुमिका में भी कुछ नया कर उसे यादगार बना देगा.
-बिहार से मुंबई की जर्नी कैसी रही?
मुङो शुरू से ही अपने बारे में जो बात पता थी वो ये कि मुङो दस से पांच की नौकरी कभी नहीं करनी. जर्नी की शुरुआत पटना में थियेटर से हुई. फिर एनएसडी ज्वाइन किया. वहां से वापस पटना आया. बीच में थियेटर की अनिश्चितता देख फैमिली वालों ने होटल मैनेजमेंट का क ोर्स करा दिया. बाद में शेफ का काम भी किया. पर मन वापस मुंबई ले गया. अब आठ-दस सालों के संघर्ष के बाद इंडस्ट्री और दर्शकों ने पूरी तरह स्वीकार कर लिया है.
-सौ साल के हिंदी सिनेमा में भी बिहार की छवि नहीं बदली, क्या लगता है आपको?
इसके पीछे मुङो दो वजह दिखती है. पहला तो ये कि यहां से कोई लिखने वाला हिंदी सिनेमा को नहीं मिला. यहां के राइटर्स होते तो शायद वो यहां की छवि को, पॉजिटीविटी को करीने से परदे पर उतार पाते. दूसरी बात ये है कि नेशनल लेवल पर बिहार की छवि क्राइम जेनेरेटेड स्टेट की बना दी गयी है. हालांकि ऐसा है नहीं, पर यहां की प्रतिरोधी क्षमता को निगेटिव तौर पर प्रचारित कर दिया गया है. तो बाहरी फिल्मकार बिहार की उसी बनी-बनायी छवि को असल मान बैठते हैं. वरना अगर प्रकाश झा जैसे फिल्मकार का खल चरित्र अगर बिहारी है तो उसका विरोध कर जीतने वाले नायक भी तो इसी परिवेश के हैं. हम उन नायकों को क्यों नहीं देखते. तो नजरिया बदलने की जरूरत है.
क्या वजह है थियेटर या एनएसडी के कलाकार मुख्यधारा की सिनेमा में लीड कैरेक्टर जैसे रोल से वंचित रह जाते हैं?
देखिये ये एक तरह से बाजारवाद को चुनौती देने वाली बात है. अगर फिल्मी बैकग्राउंड के लोग फिल्मों में आते हैं तो उनके आने से पहले ही माहौल ऐसा तैयार कर दिया जाता है कि दर्शक इंतजार शुरू कर देते हैं. फिल्म से लेकर प्रमोशन तक की उनकी प्रक्रिया की पूरी क ार्मस तैयार रहती है. पर हम जैसे कलाकारों को लीड में लेने की बात ही लोगों के इंट्रेस्ट से परे हो जाती है. मुङो लगता है हम जो इतने साल गुलाम रहे हैं ये उसी का प्रतिफल है. हमारे अंदर की बौखलाहट को एक लाजर्र दैन लाइफ हीरो की दरकार है. फिर उसका बेटा,फिर उसका बेटा और ये सिलसिला अनवरत जारी है. यहां लोगों को समझने में ये काफी वक्त लगेगा कि सिनेमा सिर्फ सिक्स पैक या चेहरा मोहरा नहीं है, सिनेमा संवेदना है. ये सिर्फ एक मनोरंजन नहीं है, जीने की कला है.
सिनेमा में क्लास और मास के दर्शकों का गैप नहीं भरने की मुख्य वजह क्या है?
ये मामला मेरी समझ से संचार क्रांति का है. आज से पहले इंटरनेट का जमाना नहीं था. संचार माध्यम कम होने से दर्शकों को पता ही नहीं था कि ग्लोबल लेबल पर क्लास की फिल्में कितनी अप्रीशियेट की जाती हैं. आज का यूथ ग्लोबलाइज्ड हो रहा है. वो फ्रांस, स्पेन, इरान की फिल्में देख लेता है. ऐसे में फिल्मकारों को भी लगने लगा है कि कुछ भी बनाकर अब ज्यादा वक्त तक दर्शकों को बेवकूफ नहीं बना सकते. यही वजह है कि अब नील बटे सन्नाटा जैसी फिल्में भी मास को अट्रैक्ट करने लगी हैं. तो उम्मीद क ीजिए. परिदृश्य बदल रहा है. धीरे-धीरे ये क्लास और मास का गैप भी भर जाएगा.
आने वाले दिनों में हम पंकज त्रिपाठी को किन-किन प्रोजेक्ट्स में देखेंगे?
फूकरे रिटर्न्‍स, जूली 2, न्यूटन व बरेली की बरफी आदि फिल्में हैं.
बिहार के युवाओं के लिए खास टिप्स?

ज्यादा नहीं कहूंगा. बस ईमानदारी से अपना काम करते जाओ कुछ भी नामुमकीन नहीं. जल्द मुकाम हासिल करने के चक्कर में कैप्सूल कोर्स के पीछे मत भागो. लंबी प्रक्रिया है, साधना करो. सफलता जरूर मिलेगी.

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