Saturday, March 11, 2017

फिल्म समीक्षा

                         बद्रीनाथ की दुल्हनिया

हम्पटी शर्मा की दुल्हनियां के बाद करण जाैहर के साथ मिल शशांक खेतान इस बार बद्रीनाथ की दुल्हनियां के साथ आये हैं. छोटे शहरों के बदलते कल्चर और उस कल्चर में उड़ान भरने को आतुर सपनों की कहानी बद्रीनाथ की दुल्हनियां शशांक की यथार्थ कहानी और करण की लकदक सिनेमा शैली का खूबसूरत मिश्रण है. आज के बदलते दौर में भी जहां छोटे शहरों के पुरूषवादी सोच और उनके बीच अपने आजादी और सपनों की मुकम्मल जहां तलाशती लड़कियों को शशांक ने केंद्र में रखा वहीं बैकग्राउंड व डिजाइन में करण की छाप बरकरार रखी, जिसमें चटकीले क ॉस्ट्युम्स, नाच-गानों की भव्यता और महंगे सेट्स का मुजायरा दर्शकों को कराया. बिना कोई उपदेशात्मक रुख अख्तियार किये शशांक ने झांसी की वैदेही और बद्रीनाथ के जरिये कई सामाजिक मुद्दों मसलन लिंगभेद और महिला सशक्तिकरण से दर्शकों का राब्ता करवा डाला.
अपने बड़े भाई के जबरन शादी से इतर बद्री(वरूण धवन) अपने पसंद की दुल्हन से शादी करना चाहता है. एक शादी समारोह में उसे वैदेही(आलिया भट्ट) भा जाती है. वो वैदेही के पीछे लग जाता है और हर हाल में उससे शादी करना चाहता है. पर वैदेही के अपने कुछ सपनें हैं. वो छोटे शहर की जरूर है पर अपने सपनों को क ामयाबी में बदलने के लिए परिवार और समाज के खिलाफ सर उठाने का माद्दा रखती है. दबाव में कुछ वक्त के लिए वो कमजोर जरूर पड़ती है पर अपने सपनों को मरने नहीं देती. और मौका मिलते ही वो इन बेड़ियों को तोड़ अपनी उड़ान भर लेती है. बद्री और वैदेही की इस प्रेमकहानी के अंत का मुजायरा अगर आप थियेटर में करें तो निश्चित ही आपको सूखद अहसास होगा.
तारीफ करनी होगी निर्देशक की, जिन्होंने एक साधारण सी कहानी को भाषा की आंचलिकता और भावनाओं के प्रवाह से असाधारण बना दिया. फिल्म के कई हिस्से युवाओं को अपनी जिंदगी की कहानी सरीखी लगने के साथ ही उन्हें गमजदा भी करेगी. पर साथ ही साथ तारीफ करनी होगी आलिया और वरूण की भी जिन्होंने स्क्रिप्ट के पन्नों पर मजबूती से गढ़े गये किरदार को उसी मर्म के साथ परदे पर साकार कर दिया. आलिया की समर्थथता उनके हर किरदार के साथ मजबूत होती जा रही है. अपने हर नये किरदार के साथ वो खुद के बनाये पिछले आयाम तोड़ती नजर आने लगी हैं. वहीं वरूण का ऐसे अपारंपरिक किरदार का चयन ही उनकी संभावनाएं बढ़ा देता है. वरूण के दोस्त के किरदार में साहिल वैद्य का काम भी सराहनीय है.
फिल्म के कुछ दृश्य और गानों की लंबाई बीच-बीच में थोड़ी खींज जरूर देते हैं पर निर्देशकीय क ौशल और संवादों के जरिये शशांक दर्शकों को उनसे बाहर खींच लाने में सफल हो जाते हैं. ऐसी फिल्मों की जरूरत आज फिल्म इंडस्ट्री के साथ-साथ समाज के हर उस तबके को है जो परंपराओं और सामाजिक रूढ़ियों तले जीते हुए अपनी नयी पीढ़ी को भी उसी बंधन में जकड़े रहना चाहते हैं.
क्यों देखें- सामाजिक मुद्दों पर केंद्रित विशुद्ध मसाला फिल्म देखनी हो तो जरूर देखें.
क्यों न देखें- छ ोटी-मोटी क मियों को नजरअंदाज कर दें तो बेहतर होगा.


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