Friday, March 24, 2017

दिल की बात (अनारकली ऑफ आरा)

ठ ीक से याद नहीं किस क्लास में था तब, पर शायद नवीं या दसवीं में. जब पहली बार(और आखिरी भी) ऑर्केस्ट्रा देखा था. शहर मोतिहारी (चम्पारण, बिहार), अपने ही रिश्तेदार(नाम नहीं लूंगा) की शादी में, क जिन्स की जिद पर और पहली बार ऑर्केस्ट्रा देखने की उत्सुकता में बैठ गया. पर कसम से, उस रात का हर एक हर्फ आज भी याद के पन्नों पर उसी गाढ़ेपन के साथ अंकित है. दिसंबर के सर्द महीने में माइक पर गूंजता वो नाम (अब आपके सामने आ रही हैं हसीन, ताजातरीन और जवानी से नमकीन मैडम ट्विंकल..ट्विंकल..ट्विंकल), वो गाना (अस्सी ना पचासी हमरा नब्बे चाहीं, ए टेंगड़ा के दीदी हमरा अबे चाहीं). ट्विंकल, उम्र बमुश्किल चौदह-पन्द्रह. उस रात कई भ्रम टूटे थे मेरे. कई चेहरे बेपर्द हुए थे. दिन के उजाले में जिन चाचाओं, दादाओं और भाइयों को संस्कार के लिबास में लिपटे देखा था सब के सब नंगे हुए जा रहे थे. गानें की हर लाइन और डांस के हर स्टेप के साथ पुरूषवादी मानसिकता और गंदी सोच संवादों की शक्ल में फिजां में फैल रही थी. हर निगाहें, हर हाथ रह-रहकर स्टेज की और दौड़ उस चौदह वर्षीया के चिथड़े करने को बेताब थे. और गाने व डांस के बीच खुद को भूखे शिकारियों से बचाती उस मृगशाविका की क ातर निगाहें. उफ्फ...वो निगाहें आज भी किसी तीर की भांति छलनी करती है मन को. तब शायद पहली बार रोया था, हर आंख में होती द्रौपदी के उस चीरहरण को देख. कुछ पन्नों पर कहानी की शक्ल भी दी उसे, पर अंत की हिम्मत नहीं जूटा पाया. और तब ही कसम ली थी कि आज के बाद ऑकेस्ट्रा नहीं देखूंगा. भ्रम था शायद दिमाग का, लगा कि ऑर्केस्ट्रा न देखूं तो फिर कोई ट्विंकल नहीं चीखेगी, किसी ट्विंकल की आत्मा नहीं मरेगी. पर कितना गलत था मैं, ये वक्ती तौर पर समझ में आता गया.
उस घटना के बरसों बाद आज अविनाश दास की अनारकली ऑफ आरा देखी. चीखती, चिल्लाती अनारकली. पर वो अनारकली कहां थी? वो तो मेरी ट्विंकल थी, जिसे मैं सालों पहले मोतिहारी की उन गलियों में छोड़ मूंह मोड़ आया था. आज जब थियेटर में अनारकली को देखा तो समझ गया, बात चाहे मोतिहारी की हो, आरा की हो या नेशनल-इंटरनेशनल किसी मेट्रो शहर की. नजर उठाकर देखें तो हर लड़की में एक ट्विंकल, एक अनारकली जज्ब है, जो कमोबेश हर कदम पर लड़ रही है पुरूषवादी समाज की उस सोच से, जिसकी भेदती निगाहों के बीच रोज उसे अपना रास्ता तलाशना पड़ता है. उस सोच से जिसने पूरी दुनिया को बस अपने घर की दहलीज के जरीये दो हिस्सों में बांट रखा है. दहलीज के अंदर की हर लड़की या महिला पाक-पवित्र पर उस दहलीज के बाहर की हर लड़की बस इस्तेमाल की चीज. और लड़ रही है उस सोच से जिनके आदर्श-स्त्री वाली सोच के खांचे में उनकी मां-बहन के अलावे कोई और फिट ही नहीं बैठती. जिसका मुजायरा हम हर रोज करते हैं गांव की संकीर्ण गलियों से लेकर सोशल साइट्स की विस्तृत दुनिया में.
आज हर गली में एक अनारकली(स्वरा भास्कर) है जो जीना चाहती है अपनी शर्तो पर, आजाद, बेखौफ, बेरोक-टोक. हर गली में एक रंगीला(पंकज त्रिपाठी) है, जो तमाम विसंगतियों के बावजूद अनारकली की दुनिया में फिट बैठता है, क्योंकि वो उसे उसके अंदाज में जीने की आजादी देता है. खुद के साथ-साथ उसकी भी सुनता है. पर हर गली में एक वाइस चांसलर धर्मेद्र चौहान(संजय मिश्र) भी है, जिसके लिए दुनिया बस घर की एक दहलीज के सहारे बंटी है. दहलीज के अंदर देवी और बाहर की हर लड़की रंडी(माफ कीजिएगा).
फिल्म की कहानी पर चर्चा फिल्म समीक्षा के जरिये शेयर करूंगा. पर दिल तो दो ही सीन्स पर अटक गया. फिल्म की शुरुआत में परदे पर उभरे सीन के साथ शुरू हुआ सफर फिल्म के आखिरी सीन के साथ मन को मूरीद बना गया. आप भी शब्दों के जरिये मुजायरा करें-
सीन 1.
गांव की एक शादी में ऑर्केस्ट्रा डांस चल रहा है. डांसर चमकी देवी के डांस से गांव के बच्चे, बूढ़े और दबंग तक निहाल हुए जा रहे हैं. उसी प्रोग्राम में भाई-भतीजे, दादा-चाचा-मामा-नाना की शक्लों में शर्ट और गमछा लहराने के साथ धोती-लूंगी उठाकर तथाकथित मर्द होने की गवाही देते लोग जेब से नोट उछाल-उछाल कर डांसर के मूव्स की कीमत तय कर रहे हैं. तभी मस्ती में लहराते दबंग की रायफल के नली पर लगे नोट देख चमकी की आंखों में चमक आती है और मद में चूर दबंग की रायफल से गोली चल जाती है. पल भर में आंखों की चमक को क ालेपन का ग्रहण लग जाता है. पर आप चौंकिये मत, उस समाज में उस जान की कीमत गानों पर लहराते दस टकिया और बीस टकिया के नोट से ज्यादा कुछ नहीं, जो उड़ने के बाद किस जेब में जाकर गुम हो जाती है पता ही नहीं चलता. सो मामला वहीं खत्म.
अब सीन 2.
फिल्म का आखिरी सीन. वीसी को उसकी औकात दिखाकर गली में अकेली रोती हुई जा रही है अनारकली. आंसू भी जंग में जीत की खूशी का जश्न मनाने को आंखों से मचल-मचल कर बाहर उछल रहे हैं. दर्द और आंसूओं की लिबास लपेटे अनारकली चंद कदम चलने के बाद ही ठिठकती है. और अचानक उसकी चाल और नजाकत में फिर वही अल्हड़ अनारकली उभरती है जिसे अपनी शर्तो पर जीना पसंद है, निर्बाध, स्वछंद. मानों बरसों से बांध की जद में कैद नदी की धारा को अचानक बांध के टूट जाने पर मनचाही गति मिल गयी हो. और वो लहराती बलखाती अपनी दुनिया में मदमस्त हिरणी सी कुंलाचे भरने लगी हो.
शुक्रिया स्वरा, बरसों से ट्विंकल के दर्द में लिपटे मन को अनारकली का मरहम लगाने के लिए. सामाजिक वजर्नाओं को धत्ता बताते हुए संस्कार के तथाकथित रहनुमाओं को ये बताने के लिए कि औरत चाहे रंडी हो, रंडी से थोड़ी कम या बीवी, बिना मरजी हाथ मत लगाना. शुक्रिया पंकज, रंगीला के रूप में मन में मानवीय कमजोरियों वाली विसंगतियों के रहते हुए भी हर स्त्री को उसके उसी स्वरूप में स्वीकार करने का जज्बा सिखाने के लिए . और आखिर में शुक्रिया अविनाश, मेरी डायरी के ट्विंकल की अधूरी पड़ी कहानी को अनारकली के जरिये मुकम्मल अंत देकर पूरी करने के लिए.
गंदी सोच और नियत केवल जेहन की ही होती है,
वरना अंगों की बनावट तो बहन की भी होती है.
फिल्म के बारे में बात करने पर एक लड़की(दर्शक) की प्रतिक्रिया.


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