Saturday, February 25, 2017

फिल्म समीक्षा

                मैदान--जंग में पनपते प्यार की कहानी रंगून

विशाल भारद्वाज की अपनी एक शैली है. उनकी नाट्य शैली की फिल्में जब गुलजार के क ाव्यात्मक शैली में घूल-मिल जाती है तो अलग तरह का प्रभाव पैदा करती हैं. कमीने और हैदर के बाद वही प्रभाव रंगून में देखने को मिलता है. द्वितीय विश्वयुद्ध के वक्त जापानी और इंगलैंड के वार की पृष्ठभूमि पर बनी रंगून विषय की संजीदगी की वजह से आकर्षित करती है. कमी बस यूद्ध और प्रेम प्रसंगों के बीच समन्वय बनाने के चक्कर में दोनों ही विषयों से उपयुक्त न्याय नहीं कर पाने की रह जाती है. और और आखिर में दर्शकों की उम्मीदें युद्ध की वीभत्सता और प्रेम की व्याग्रता दोनों से अधूरी रह जाती है.
कहानी फिल्म अभिनेत्री मिस जुलिया(कंगना रनौत) की है. बंजारन ज्वाला देवी से एक क ामयाब अभिनेत्री जुलिया बनाने के एवज में प्रोडय़ूसर रूसी विलिमोरिया(सैफ अली खान) ने अपनी रखैल बना रखा था. जुलिया की ख्वाहिश थी कि किसी रोज उसे मिसेज विलिमोरिया के नाम से जाना जाये. इसके लिए वो रूसी को इमोशनल तरीके से तैयार करती है. दूसरी ओर अंग्रेज अधिकारी हार्डी जापानी सेना से युद्ध को ले परेशान है. जापानी सेना से जंग में थक चुकी भारतीय सेना के मनोरंजन के लिए वो जुलिया को बार्डर पर भेजना चाहता है. सुरक्षा कारणों से पहले तो रूसी और जुलिया इसके लिए राजी नहीं होते पर हार्डी के आश्वासन पर रजामंदी दे देते हैं. जुलिया की सुरक्षा जिम्मेदारी अंग्रेजी सेना के भारतीय जवान नवाब मलिक(शाहिद कपूर) को सौंपी जाती है. बार्डर पर जाते वक्त अचानक जापानी सेना का हवाई हमला होता है, जिसमें जुलिया और मलिक टोली से दूर हो जाते हैं. वापसी की राह तलाशते दोनों की नजदीकियां बढ़ती हैं. वापसी के बाद रूसी को दोनों के बीच पनपे प्रेम का भान होता है. प्रेम में चोट खाये रूसी की भावनाएं नफरत में बदलती हैं, तभी अंग्रेजी सेना में आइएनए (आजाद हिंद फ ौज) के जासूस होने की बात पता चलती है. हार्डी और रूसी इसके तह तक जाने की कोशिश करते हैं जिसमें कई नाटकीय घटनाएं सामने आती हैं.
प्रेम त्रिकोण व भावनात्मक ऊहापोह समेटे कहानी का पहला हाफ काफी सुस्ती भरा है. कई जगहों पर कमजोर एडिटिंग का असर दिखता है. पर दूसरे हाफ में कहानी रफ्तार पकड़ती है. रह-रहकर उफनती राष्ट्रप्रेम की भावना उसे और तीव्र करती हैं. बस युद्ध और प्रेम के कशिश की आवश्यक जरूरतों की कमी खलती है. गुलजार के गीतों के जरिये विशाल ने उसे भरने की भरसक प्रया किया है, पर इन क ोशिशों के जरिये भी वो इस कमी की भरपाई नहीं कर पाये. अभिनय के स्तर पर फिल्म जरूर संजोने लायक बन जाती है. जुलिया के रूप में कंगना के भाव किरदार के साथ ही तब्दील होते हैं. रूसी और नवाब के साथ प्रेम दृश्यों में कंगना के किरदार की तब्दीलियां भाती हैं. शाहिद हैदर के बाद फिल्म दर फिल्म निखरते जा रहे हैं. नवाब के रूप में उनकी मेहनत क ाबिले तारीफ है. सैफ के हिस्से कुछ कम दृश्य आये हैं. पर उनकी हर उपस्थिति दृश्यों पर अलग प्रभाव डालती है.
क्यों देखें- विशाल के साथ शाहिद, कंगना और सैफ के प्रशंसक हों तों फिल्म जरूर देखें
क्यों न देखें- फिल्म की रफ्तार और नाटकीयता की कमी उब देगी.


No comments: