जिद
से जीत तक का सफर
किसी
ने सच ही कहा है,
कौन
कहता है आसमां में सुराख नहीं
होते,
एक
पत्थर तो तबियत से उछालो यारों.
और
ये कोई क ोरी कहावत नहीं,
वरना
कौन सोच सकता था कि दरभंगा के
एक छोटे से गांव का आर्थिक रूप
से पिछड़ा लड़का जीतने के
जूनून में अपने सपनों के पीछे
इस कदर पड़ जाएगा कि झख मारकर
क ामयाबी को उसके कदम चुमने
ही पड़ेंगे.
जी
हां,
ऐसी
ही कहानी है क विता,
नाटक
और पत्रकारिता के रास्ते
सिनेमाई दुनिया में पुरजोर
तरीके से दस्तक देने वाले
निर्देशक अविनाश दास की.
जूनून
भी ऐसा कि सत्रह साल की पत्रकारिता
की स्थायी नौकरी छोड़ अगले
आठ-दस
साल संघर्ष के रास्ते चलते
रहे,
पर
हार नहीं मानी.
प्रभात
खबर के गौरव से खास बातचीत में
अविनाश ने अपने इसी जर्नी के
उतार-चढ़ाव
और कई संजो कर रखे जाने वाले
पलों को साझा किया.
कद-काठी,
वेशभूषा
और बातचीत का लहजा ऐसा कि अविनाश
से मिलते ही एक ठेठ व बिहारी
संस्कृ ति में रचे बसे शख्स
सा आभास हो जाए.
बातों
में साहित्यिक परिवेश का असर
साफ झलकता है.
बातचीत
की शुरुआत प्रभात खबर जिंदाबाद
के स्वर से करते हुए,
चेहरे
पर आत्मविश्वास की लकीरों और
कर्म के प्रति समर्पण की भाव
के साथ अविनाश ने अपने गांव
और पत्रकारीय जीवन से लेकर
अनारकली ऑफ आरा के बनने तक की
कहानी बतायी.
- शुरुआत
दरभंगा से करते हैं.
गांव
के एक साधारण परिवार का लड़का
सिनेमा की दुनिया में दस्तक
देते हुए अपने जैसे कई युवाओं
को सपने दिखा जाता है.
इस
जर्नी को विस्तार से बताएं.
- दरभंगा
के लहेरियासराय के पास फरएता
गांव में मेरा जन्म हुआ.
बचपन
से पढ़ाई-लिखाई
में मन बिलकुल नहीं लगता.
उसी
उम्र से मन एक कल्चरल एक्टिविस्ट
की तरह से डेवलप होने लगा था.
नाटक
करना,
सांस्कृतिक
प्रोग्राम ऑर्गनाइज करना ये
सब जिंदगी का हिस्सा बनता जा
रहा था.
उसी
दौरान बाबा नागाजरून से
नजदीकियां बढ़ी.
उनके
साथ कई जगह ट्रैवल करने का
मौका मिला.
इसका
एक फ ायदा ये हुआ कि भाषा के
तौर पर हिंदी मेरे कब्जे में
आ रही थी.
मन
की उड़ान इन्हीं गतिविधियों
के आस-पास
मंडराती थी पर यथार्थ रह-रहकर
धरातल पर ला खड़ा करता था.
बाबूजी
प्राइवेट ट्यूटर थे.
घर
में तीन बड़ी बहनें,
चाचा-चाचियों
का परिवार और इन सबकी जिम्मेदारी
बाबूजी के ऊपर.
तब
लगा कि मेरी स्वछंदता मुङो
पारिवारिक जिम्मेदारियों
के साथ न्याय नहीं करने देगी.
उसी
दौरान पटना में प्रभात खबर
के साथ जुड़ने का मौका हाथ
लगा.
तत्कालीन
प्रधान संपादक हरिवंश जी के
साथ जुड़कर पत्रकारीय जीवन
की शुरुआत की.
और
ये सिलसिला विभिन्न अखबारों
और चैनलों से होते हुए लगभग
सत्रह सालों तक चला.
पर
इन सत्रह सालों में एक बात यह
भी रही कि मैंने अपने सपने को
कभी मरने नहीं दिया.
- इस
लंबे सफर में आप अखबार के संपादक
पद तक भी पहुंचे.
मोहल्ला
लाइव जैसी चर्चित वेबसाइट के
ऑनर रहे.
ऐसी
स्टेबिलिटी छोड़ मुंबई में
जगह तलाशने का जोखिम लेते वक्त
गुम हो जाने का डर नहीं लगा?
- देखिए,
डर
लाइफ को हमेशा उल्टी दिशा में
ले जाता है.
प्रभात
खबर ज्वाइन करते वक्त मैं
ग्रेजूएशन पार्ट टू का छात्र
था.
पर
तब भी मुङो ये डर नहीं लगा कि
मैं ये काम कर पाऊंगा या नहीं.
मेरी
लाइफ का हमेशा से फंडा रहा है
कि कोई काम करना है तो बस करना
है.
पत्रकारीय
जीवन में रहते हुए भी मैं मन
की नहीं कर पा रहा था.
अंदर
की बेचैनी फ्रस्ट्रेशन लेवल
तक पहुंचने को थी.
सो
खुद को वाइडर स्पेस देने के
लिए मायानगरी की राह पकड़ ली.
और
जहां तक स्टेबिलिटी का सवाल
है तो मन में स्थायित्व की
भावना विकास की सबसे बड़ी बाधा
है.
- एक
मिडिल क्लास लड़के की आंखों
में सिनेमा बनाने जैसा बड़ा
ख्वाब कब घर कर गया?
- इस
ख्वाब ने स्कूल के समय में ही
जन्म ले लिया था.
तब
मैं स्कूल से भाग-भाग
कर फिल्में देखा करता था.
उस
समय मन में ये ख्याल आता कि
अगर मेरे पास पैसे हुए तो मैं
अपने गांव में एक बड़ा सिनेमा
हॉल बनवाऊंगा जहां मेरी बनायी
फिल्में लगेंगी.
फिर
धीरे-धीरे
नाटकों के जरिये कई इन्टेलेक्चुअल
दोस्त बनें.
पटना
में फिल्म क्लब का मेंबर बनने
के बाद फिल्मों को ले दूसरी
तरह की समझदारी बढ़ी.
तो
एक तरह से कह सकते हैं कि ये
ख्वाब एक प्रोसेस की तरह समय-समय
पर मेरे अंदर मोडिफाई होता
रहा.
- पत्रकारिता
छोड़ने और पहली फिल्म शुरू
करने के बीच का संघर्ष कैसा
रहा?
- वो
दौर तो लाइफ की कई रियल्टिज
से सामना करा गया और काफी कुछ
सिखा भी गया.
एनडीटीवी
में काम के दौरान दिल्ली में
लोन पर मकान ले लिया था.
अचानक
नौकरी छोड़ने के बाद ईएमआई न
चुकाने की वजह से घर नीलामी
की नौबत आ गयी.
एक
कार खरीदी थी उसके क ज्रे अलग
थे.
कुछ
वक्त को तो लगा जैसे अबतक का
कमाया सबकुछ छिनने वाला है.
लेकिन
तब भी मन में ये पॉजिटिविटी
बनी थी कि जो चीज ईएमआई पर टिकी
हो उसका छिन जाना ही बेहतर है.
पर
संयोग कुछ ऐसा रहा कि उस दौरान
टेलिविजन और फिल्मों में
असिस्ट करने जैसे छोटे-मोटे
काम मिल गये और जिंदगी पटरी
पर आनी शुरू हो गयी.
फिर
स्क्रिप्ट को ले कर संघर्ष
शुरू हुआ.
प्रोडय़ूसर
ढूंढने से लेकर एक्टर्स को
रेडी करने का संघर्ष.
- इस
दौरान परिवार वालों का रिएक्शन
क्या रहा?
- फैमिली
का ही सपोर्ट रहा जिसने मेरे
अंदर के फिल्मकार को जिंदा
रखा.
इतने
साल खपाने के बाद उन्हें भी
लगा कि मुङो सपनों को जीने का
एक मौका तो मिलना चाहिए.
मैं
चाहूंगा कि मेरी कामयाबी का
बराबर श्रेय मेरी प}ी
और बेटी को भी मिले जिन्होंने
संघर्ष के दिनों में दो-ढाई
साल मुझसे दूर रहना बर्दाश्त
किया.
यहां
तक कहा कि अगर सफल ना हुए तब
भी उसी प्यार से आपकी वापसी
का स्वागत होगा.
- चलिए
इसी बात को विस्तार देते हैं.
अनारकली
ऑफ आरा के स्क्रिप्ट से कैमरे
तक का सफर कैसे तय किया?
- एक
बात तो शुरू से दिमाग में तय
थी कि काम नये लोगों के साथ ही
करना है ताकि कंफर्टिवली अपने
विजन को परदे पर ला सकूं.
पर
बाजार के दृष्टिकोण से एक
स्टार फेस भी जरूरी था जो फिल्म
बेचने में सहायक हो .
शुरुआत
में रिचा चड्डा इस फिल्म के
लिए तैयार हुई.
जो
कि संयोग से मेरी दोस्त और
टीवी में मेरी जूनियर थी.
पर
हाल ही में बिहारी पृष्ठभूमि
पर बनी गैंग्स ऑफ वासेपुर में
काम करने के बाद उन्हें लगा
इतनी जल्दी फिर बिहारी किरदार
निभाना कैरियर के लिहाज से
सही नहीं रहेगा.
सो
उन्होंने मना कर दिया.
इसी
बीच प्रोडय़ूसर ने भी हाथ खींच
लिये.
मैं
दूखी था.
तभी
उस स्क्रिप्ट को पढ़ने के बाद
स्वरा भास्कर ने लीड रोल के
लिए हां कर दी.
स्वरा
के हां से एक नये प्रोड्यूसर
की भी रजामंदी मिल गयी.
फिर
आगे चलकर पंकज त्रिपाठी
(जिन्होंने
मेरी पहली फिल्म में काम करने
का वादा किया था)
और
संजय मिश्र जी का साथ मिला.
- पिछले
साल महिला मुद्दों पर पिंक,
दंगल
और पाच्र्ड जैसी फिल्में आयी.
अनारकली
इससे कितनी अलग है?
- अनारकली
एक स्ट्रीट सिंगर की जर्नी
है.
पाच्र्ड
को छोड़ दें तो बाकी फिल्मों
का बैकड्रॉप अर्बन है.
वहां
औरतों की लड़ाई मर्द के जरिये
लड़ी जाती है.
पर
अनारकली की लड़ाई खुद की है.
वह
अकेली ही समाज से लड़ती भी है
और उठ खड़ी होती है.
यहां
उसकी मजबूती बाकी किरदारों
से ऊपर हो जाती है.
- अनारकली
के कैरेक्टर का रिफरेंस कहां
से आया?
- एनडीटीवी
में काम के दौरान ही मुङो
ताराबानो फैजाबादी नाम की एक
इरोटिक सिंगर का वीडियो देखने
का मौका मिला.
मैं
स्तब्ध रह गया जब मुङो पूरे
गाने के दौरान उस सिंगर का
चेहरा एक्सप्रेशनलेस देखने
को मिला.
लगा,
कैसे
कोई सिंगर बिना किसी भाव के
लोगों का मनोरंजन कर सकती है.
फिर
2011-12
के
दौरान गया में एक भोजपूरी
सिंगर देवी के स्टेज शो के
दौरान उनसे छेड़खानी की घटना
सूनने को मिली.
मेरे
लिए दूसरा शॉकिंग तब था जब पता
चला उस अकेली महिला के स्टैंड
की वजह से बदतमीजी करने वाले
यूनिवर्सिटी के अधिकारी को
इस्तीफा देना पड़ा.
मेरे
अंदर इन दोनों घटनाओं से अनारकली
के कैरेक्टर ने अपनी यात्र
पूरी कर ली थी.
देर
बस उसे क ागज पर उतारने की थी.
- भोजपूरी
सिनेमा के गिरते स्तर को किस
नजरिये से देखते हैं?
- देखिए
सारा मसला बाजार का है.
बिहार
अभी भी सिंगल स्क्रीन थियेटर
के भरोसे चल रहा है.
तो
मुनाफे के लिए फिल्मों का बजट
भी कम रखना पड़ता है.
कम
बजट में फिल्मकारों को मुनाफे
के लिए ईलता और फूहड़पन ही
बड़ा जरिया नजर आता है.
दूसरी
जिम्मेदारी दर्शकों की है.
वो
जबतक ऐसी फिल्में स्वीकारेंगे
फिल्मकार बनाते रहेंगे.
स्थिति
में सुधार तभी होगा जब फिल्मकार
ये स्वीकार करेंगे कि कम बजट
या मुनाफे में भी अच्छी फिल्में
बनायी जा सकती है.
- तो
इस बदलाव की उम्मीद आपसे क्यों
न करें?
- कर
सकते हैं.
मैं
तो कहूंगा करना ही चाहिए.
मेरी
फिल्म अगर आप देखेंगे तो आपको
एक अलग बिहार दिखेगा.
चाहे
वो पृष्ठभूमि के स्तर पर हो
या भाषा के.
और
विश्वास रखिए मेरी हर फिल्म
में कहीं न कहीं बिहार अपनी
गरिमामयी आभा के साथ उपस्थित
दिखेगा.
पिछले
दिनों फिल्म राइटर्स एसोसियेशन
में भोजपूरी सिनेमा के गिरते
स्तर को ले सेमिनार भी हुआ.
तो
चिंताएं हर ओर हैं.
और
ये संकेत है बदलाव का.
- पत्रकार
और फिल्मकार के अलावा अविनाश
के अंदर और क्या है?
- एक
नॉवेलिस्ट या क वि.
क
विताएं तो मै अब भी करता हूं.
पिछले
दिनों मैंने अपने दरभंगा के
दिनों को याद करते हुए कथा
काव्य भी लिखा.
तो
राइटिंग का स्पेस मैंने खुद
के अंदर अब भी बचा कर रखा हुआ
है.
- बिहार
से दूर होने के इतने अरसे बाद
बिहार की सांस्कृतिक विरासत
को खुद के अंदर किस हद तक पाते
हैं?
- ईमानदारी
से कहूं तो मेरे समय में जो
सांस्कृतिक माहौल था उसने
मेरे अंदर ऐसे-ऐसे
बीज डाले हैं जो निकाले नहीं
निकल सकता.
मैं
खुद भी कोशिश करूं तो उस भदेसपन
से मुक्त नहीं हो सकता.
और
यही मेरी यूएसपी है.
बिहार
की सबसे बड़ी खासियत रही है
प्रतिरोध की संस्कृति,
जो
मेरे अंदर गहरे जड़ जमा चुकी
है.
और
बिहार की हर यात्र उस जड़ को
और मजबूत कर देती है.
- युवाओं
को इस फ ील्ड में कामयाबी के
क्या मंत्र सिखाएंगे?
- मंत्र
तो कुछ नहीं है बस मेहनत करना
है.
गिरना
भी जरूरी है पर गिरने से डरकर
या टूटकर राह मोड़ लेना सही
नहीं है.
गिरो
और बार-बार
गिरो,
पर
उस गिरने से सीख लेते हुए फिर
उठ खड़े हो और सपनों का पीछा
करो.
तुम्हारी
जिद ही तुम्हें मंजिल तक
पहुंचाएगी.
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