ड्रीम्स+डेडीकेशन+
इमोशन=
सचिन
अ बिलियन ड्रीम्स
सचिन
होने के लिए बस तीन चीजों की
जरूरत होती है हार्ड वर्क,
हार्ड
वर्क और हार्ड वर्क.
सचिन
होने के मायने लोग चौबीस बरसों
तक लगातार क्रिकेट के मैदान
और टीवी के जरिये देखते रहे
पर उस सचिन के गढ़ने और बनने
के पीछे की कवायद जिससे लोग
अनछुए रह गये उस कवायद की झलक
है डॉक्यूड्रामा सचिन:
अ
बिलियन ड्रीम्स.
डाक्यूड्रामा
इसलिए कि ये न तो पारंपरिक
बॉलीवूड स्टाइल की फिल्म है
और ना ही पूरी तरह से डॉक्यूमेंट्री.
पर
जिस करीने से निर्देशक जेम्स
एस्र्किन ने दोनों विधाओं को
एक स्वरूप में समेटा है वो
निश्चित ही सवा अरब हिंदूस्तानियों
के लिए एक सौगात सरीखा है.
और
सुखद ये कि रिटायरमेंट के चार
साल बाद भी दो घंटे की
डॉक्यूमेंट्रीनुमा फिल्म
पर भी अगर थियेटर में दर्शकों
का जोश,
उन्माद
और सचिन-सचिन
का शोर न थमें तो ये सचिन का क
रिश्मा ही है.
कहानी
शुरू होती है दादर के एक नर्सिग
होम में सचिन के जन्म से.
बचपन
की चंचलता,
क्रिकेट
के प्रति झुकाव,
भाई
अजीत का समर्पण और गुरू रमांकात
अचरेकर का सानिध्य पाता सचिन
मेहनत की कश्ती पर सवार मंजिल
की ओर बढ़ता है.
वक्त
की धार संग दर्शक सचिन के स्कूली
दिनों के खेल से लेकर वर्ल्ड
क्रिकेट में पदार्पन का सफर,
सफलता
और इन सबके बीच रिश्ते,
परिवार,
दोस्त
और निजी जिंदगी से रूबरू होते
हैं.
बीच-बीच
में उन्माद का ज्वार सचिन की
खेली पारियों के साथ थियेटर
को रह-रह
कर सचिन-सचिन
के नारों से एक नयी उर्जा का
संचार भी करता है.
फिर
चाहे वो पाकिस्तानी अब्दूल
क ादिर के एक ओवर में पड़े चार
छक्के हो,
अकरम,
शोएब,
मैकग्राथ,
चामिंडा
वास की गेंदों की धुनाई हो या
फिर छक्कों के जरिये शेन वार्न
की गेंदबाजी की धज्जियां
उड़ाने का मंजर.
सुत्रधार
के रूप में खुद सचिन की जुबानी
ये सारी कहानी सुनना भी एक अलग
अनुभुति देता है.
सचिन
की चोट,
2011 के
पूर्व वर्ल्ड्स कप में हार,
इंडियन
टीम को झुलसाती मैच फिक्सिंग
की लपटें ये सब कहानी में एक
अलग थ्रिल पैदा कर रही थी.
पर
इन तमाम बातों के बीच जो एक
बात क ॉमन थी वो हर अनुकुल-प्रतिकुल
परिस्थियों में सचिन की
एकाग्रता,
मेहनत
और दोगूने उत्साह के साथ उठ
खड़े होने की कवायद.
जो
सचिन के गॉड ऑफ क्रिकेट बनने
की सबसे बड़ी ताकत थी.
फिल्म
भले सचिन के कई देखे-अनदेखें
पहलुओं का संग्रह भर हो पर और
ए आर रहमान के उर्जात्मक संगीत
और बैकग्राउंड स्कोर में घूली
इसकी सजावट और बुनावट हर युवा
के लिए एक मोटिवेशनल टॉनिक
साबित होगी.
और
यकीन मानिये यह केवल देखकर
छूटने वाली फिल्म नहीं है,
यह
आपको गहरे जकड़कर आपकी नसों
में जोश और मेहनत की अतिरिक्त
उर्जा का संचार करेगी.
आपको
अपने लक्ष्य के करीब ले जा
सकने वाली प्रेरणा बनेगी.
कहानी
साफ शब्दों में यह बता जाती
है कि प्रतिभा भले व्यक्ति
के साथ पैदा होती है पर दृढ़संकल्प,
लगन
और मेहनत ही उस प्रतिभा को
सचिन नामक कामयाबी में तब्दील
कर पाती है.
आखिर
में यह सिनेमा अपने साथ जो एक
और सुखद अहसास लाता है वह है
दर्शकों का बदलता टेस्ट.
थियेटर
में एक डॉक्यूड्रामा सरीखी
फिल्म के लिए दर्शकों का उत्साह
और समाप्ति के बाद उभरी
प्रतिक्रिया सिनेमा और दर्शकों
के बदलते सकारात्मक मिजाज का
आभास देती है.
क्यों
देखें-
अगर
आप सचिन की जिंदगी के साथ खुद
भी लक्ष्य के प्रति प्रोत्साहित
होना चाहते हों तो जरूर देखें.
क्यों
न देखें-
फिल्म
को आम बायोपिक कहानियों की
तरह उम्मीद कर रहे हों तो.
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