Saturday, November 18, 2017

फिल्म समीक्षा

कमजोरियों के बावजूद एंटरटेन करती है तुम्हारी सुलु

पिछले एकाध सालों में हिंदी सिनेमा की कहानियों बड़ी बारिकी से मध्यवर्गीय परिवारों की र ोजमर्रा की जिंदगी में प्रवेश करने लगी हैं. नये-नये लेखकों-निर्देशकों के आने से यह पड़ताल और तेज हो गयी है. रोजमर्रा की समस्याओं से जुझती आम जिंद गियों की कहानी अब फिल्मकारों के साथ-साथ दर्शकों द्वारा भी स्वीकार की जाने लगी हैं. नवोदित निर्देशक सुरेश त्रिवेणी की तुम्हारी सुलु ऐसे ही एक वर्किग कपल्स के प्रोफेशनल और पर्सनल लाइफ की से उपजी फिल्म है. शार्ट फिल्म के जरिये बड़े परदे का रुख करने वाले सुरेश ने कहानी का एक बेहतर प्लॉट चुना है, पर उस प्लॉट पर महल खड़ा करते वक्त कहीं-कहीं अनुभवहीनता का शिकार हो गये हैं. लेकिन पहले प्रयास के तौर पर उनकी संभावनाओं को सिरे से नकारा भी नहीं जा सकता.
सुलोचना उर्फ सुलु(विद्या बालन) मध्यवर्गीय परिवार की एक अतिमहत्वकांक्षी घरेलू महिला है. पति अशोक (मानव क ौल) आम नौकरी पेशा इंसान है. सुलु का अस्तित्व भले एक घर में सिमटा हो पर उसके ख्वाब काफी बड़े हैं. इन्हीं ख्वाबों की खातिर वो छोटी-छोटी खुशियां पकड़ने से भी बाज नहीं आती. बेटे प्रणव के स्कूल में हो रहे कंपीटीशंस जीतने में भी उसे अपने ख्वाब का कुछ हिस्सा पूरा होता नजर आता है. पर घर के हालात ऐसे हैं कि उसे इन्हीं छोटी-छोटी खुशियों से संतोष करना पड़ता है. ऐसे में सुलु को अचानक अपने ख्वाब पूरे करने का एक मौका मिलता है और वो उसे झटके से लपक लेती है. होता यूं है एक कंपीटीशन जीतने पर सुलु प्राइज लेने रेडियो स्टेशन पहुंचती है. वहां आर जे (रेडियो जॉकी) का ऑडिशन चल रहा होता है. सुलु भी इंटरव्यू देती है जिसमें उसका चयन हो जाता है. सुलु को रेडियो पर लेट नाइट प्रोगाम तुम्हारी सुलुकरने को मिलता है. कम समय में ही सुलु का ये प्रोग्राम श्रोताओं के बीच हिट हो जाता है और सुलु एक सेलिब्रिटी बन जाती है. यहां से शुरू होती है सुलु की प्रोफेशनल और पर्सनल लाइफ के बीच टकराहट. पति दिन भर काम कर जब घर वापस आता है तब सुलु को प्रोग्राम के लिए रेडियो जाना होता है. बढ़ती जिम्मेदारियां अपने साथ काफी उथल-पुथल लाती हैं.
फिल्म मध्यवर्गीय परिवार के कई संवेदनशील मुद्दों को बारिकी से बयां करती है. कहानी का पहला हाफ हल्के-फुल्के माहौल में काफी इंटरटेनिंग बन पड़ा है. सेकेंड हाफ में कहानी ड्रामेटिक होने की वजह से कहीं-कहीं पटरी से उतरती लगती है. पर इन छोटी-मोटी कमजोरियों को अपने क ाबिले तारीफ अभिनय से विद्या और मानव क ौल ने पूरी तरह पाट दिया है. एक क ामकाजी और घरेलू महिला के दोनों किरदारों की जरूरतों को विद्या ने बड़े ही सहज तरीके से आत्मसात किया है. सुलोचना की उन्मुक्तता और उसके जीवन में उपजे द्वंद्व दोनों परिस्थितियों में उनके चेहरे का भावसंप्रेषण देखने योग्य है. पिछले एक-दो साल से परदे पर काफी सक्रिय रहे मानव क ौल ने पति की भुमिका में एक बार फिर साबित कर दिया कि भुमिका चाहे निगेटिव हो या पॉजिटिव वो हर रोल के लिए फिट हैं. हिंदी सिनेमा को उन जैसी प्रतिभा के और अधिक इस्तेमाल की जरूरत है. सहयोगी भुमिकाओं में नेहा धुपिया और विजय मौर्या सराहनीय हैं. फिल्म के गाने बन जा तू मेरी रानीऔर हवा हवाईजैसे गाने तो पहले ही चार्ट बस्टर पर हैं.
क्यों देखें- स्टोरी नेक्स्ट डोर टाइप हल्की-फुल्की मनोरंजक फिल्म देखना चाहते हों जरूर देखें.
क्यों न देखें- किसी महान या उम्दा फिल्म की अपेक्षा हो तो निराशा हाथ लग सकती है.


Saturday, November 11, 2017

फिल्म समीक्षा

शादी में जरूर आना

राजकुमार राव इस साल हिंदी फिल्मउद्योग की सबसे बड़ी उपलब्धि रहे रहे हैं. ट्रैप्ड, राब्ता, बरेली की बरफी और न्यूटन जैसी फिल्मों से हरदिल अजीज बन चुके राव इस फिल्म में भी पूरी रौ में नजर आते हैं. न्यूटन तो हालांकि ऑस्कर के लिए नॉमिनेट भी हो चुकी है. बहरहाल शादी में जरूर आना को अगर सबसे ज्यादा किसी के क ांधे का सहारा मिला है तो वो हैं राजकुमार राव. कहानी और ट्रीटमेंट के लिहाज से फिल्म शुरूआत में तो काफी उम्मीद जगाती है पर अंजाम तक आते-आते धराशायी हो जाती है. क ानपुर के गंवई परिवेश से शुरू हुआ सफर आखिर में बंबईया मसाला फिल्मों वाले क्लाइमैक्स की भेंट चढ़ जाता है.
कहानी क ानपुर में रहने वाले सत्तु उर्फ सतेन्द्र (राजकुमार राव) और आरती शुक्ला (कृति खरबंदा) की है. दोनों के अरेंज मैरेज की तैयारी चल रही है. आरती एक महत्वकांक्षी लड़की है. पर फैमिली वालों की खूशी के लिए वो शादी के लिए राजी हो जाती है. शादी से पहले दोनों को एक दूसरे से मिलवाया जाता हैं. बुङो मन से दोनों एक-दूसरे से मिलने को तैयार होते हैं पर मिलते ही पहली नजर में ही एक-दूसरे को पसंद भी कर लेते हैं. शादी की तैयारी शुरू हो जाती है, पर ऐन शादी के दिन आरती घर छोड़कर भाग जाती है. जिससे सत्तु के फैमिली की काफी फ जीहत होती है. कहानी यहां से पांच साल आगे जाती है. सत्तु आईएएस ऑफिसर बन जाता है और आरती वहीं पीसीएस अफसर बनकर आती है. आरती से नफरत की आग में जल रहा सत्तु उसे विभाग के एक भ्रष्टाचार के आरोप में फंसाने की चाल चलता है.
कहानी अपने फस्र्ट हाफ में जितनी सशक्त और आकर्षक लगती है सेकेंड हाफ में आते-आते धोखे और बदले के मैलोड्रामा में बदल जाती है. ट्विस्ट और टर्न बनावटी अहसास देते हैं. और क्लाइमैक्स तक आते-आते मसाला फिल्मों वाले झोल का शिकार हो जाती है. बावजूद इसके राजकुमार राव अपनी पूरी रौ में दिखते हैं. अभिनय की संजीदगी से बखूबी अहसास दिला जाते हैं कि ऐसी भुमिकाओं के लिए वो कितने परिपक्व हो चुके हैं. कृति खरबंदा की स्क्रीन प्रेजेंस भी मोहती है. किरदार की जरूरतों को उन्होंने बखूबी समझा है. सहयोगी भुमिकाओं में अलका अमीन, गोविंद नामदेव और नवनी परिहार भी जंचती हैं. कुल मिलाकर अगर आप राजकुमार राव के फैन हों तो एक बार थियेटर का रुख बुरा नहीं रहेगा.



फिल्म समीक्षा

खुशनुमा सफर पर ले जाती है करीब करीब सिंगल
पिछले कुछ महीनों से अपने टायटल, ट्रेलर और ट्रेलर में दिख रही इरफान-पार्वती की केमिस्ट्री की वजह से फिल्म दर्शकों के बीच काफी उत्सुकता जगा चुकी थी. और लंबे गैप के बाद तनुजा चंद्रा की निर्देशन में वापसी से यह उत्सुकता चरम पर थी. यकीनन फिल्म ने उस उत्सुकता की क्षुधा को बड़ी तृप्तता देकर शांत किया. करीब-करीब सिंगल देखे जाने लायक फिल्म केवल इसलिए नहीं है क्योंकि यह तनुजा चंद्रा की फिल्म है, बल्कि यह इसलिए भी देखे जाने लायक है कि एक स्वीट एंड सिंपल कहानी का इतना अच्छा ट्रीटमेंट भी हो सकता है, इसलिए भी कि इरफान जैसा संजीदा एक्टर रोमांस के जोनर में भी इस कदर लुभा सकता है और इसलिए भी कि हिंदी से अनजान साउथ की एक क ामयाब एक्ट्रेस बिना चेहरे पर मेहनत की शिकन लाये कैसे हिंदी सिनेमा के फ्रेम में भी करीने से फिट बैठ सकती है. यकीनन फिल्म तनुजा की पिछली फिल्मों दुश्मन और संघर्ष के लेबल तक नहीं पहुंच पाती पर अलग जोनर की हल्की-फुल्की फिल्म होते हुए भी अपने ट्रीटमेंट की वजह से लुभाती है.
थर्टीज की उम्र में ही विधवा हो चुकी जया (पार्वती) अपनी जिंदगी को नये सिरे से शुरू करना चाहती है. मेंटल लेवल पर मैच्योर हो चुकी जया खुद के जैसे सोच वाले साथी की तलाश में है. और इसके लिए वो सहारा लेती है वेबसाइट का. वेबसाइट पर वो अपना प्रोफाइल डालती है. और इसी क्रम में उसका संपर्क होता है योगी(इरफान खान) से. योगी एक क वि मिजाज है जो क विताओं के जरिये अपनी पहचान तलाशने की कोशिश में है. पर उसकी एक भी किताब अबतक नहीं बिक पायी है. जया योगी के प्रोफाइल से अट्रेक्ट होती है और उससे मिलने का फैसला करती है. दोनों की मुलाकात पर योगी का बेबाकीपन उसे आश्चर्य में डाल देता है. जया से कुछ मुलाकात में ही योगी उसे अपनी पिछली तीन गर्लफ्रेंड्स के बारे में बताता है जिनकी अब शादी हो चुकी है. योगी जया को खुद के बारे में जानने के लिए उसकी गर्लफ्रेंड्स से मिलने के लिए कहता है. फिर शुरू होती है दोनों की एक जर्नी जो ऋषिकेश, अलवर और गंगटोक होते हुए प्यार के एक नये सफर पर चल पड़ती है.
बेशक फिल्म अपनी धीमी रफ्तार से आपके धैर्य का इम्तिहान भी लेती है, पर इरफान और पार्वती की केमिस्ट्री और किरदारों के जरिये उनका मोहता खिलंदड़पन आपको उस कमी से उबार भी लेता है. इरफान को इस तरह के रोमांस से लबरेज अवतार में देखना अपने आप में एक अलग सुखद अहसास देता है. दूसरी ओर साउथ से हिंदी फिल्मों का रूख करती पार्वती अपने किरदार के साथ इस कदर सहज लगती है कि ये भान भी नहीं होता कि वो किसी और भाषी क्षेत्र से है. सहयोगी भुमिकाओं में नेहा धुपिया और ईशा श्रवणी भी सराहनीय हैं. बृजेन्द्र क ाला का स्पेशल अपीयरेंस मजेदार है. फिल्म ट्रैवल सींस के दौरान का फिल्मांकन भी फिल्म को मजबूती के साथ उभारता है.
क्यों देखें- अगर आप इरफान फिल्मों के फैन हैं और स्वीट एंड सिंपल कहानी की चाहत रखते हों.
क्यों न देखें- तनुजा की पिछली फिल्मों से तुलना करेंगे तो निराशा होगी

Thursday, November 2, 2017

बातचीत: राजीव उपाध्याय

बदलाव काम के प्रति जुनून पैदा करता है: राजीव उपाध्याय

कुछ कर गुजरने का जज्बा और लक्ष्य के प्रति समपर्ण हो तो देर-सबेर मंजिल हासिल हो ही जाती है. बिहार के नालंदा में जन्मे और पटना से पढ़ाई कर थियेटर के जरिये हिन्दी सिनेमा में जगह बना चुके राजीव उपाध्याय की कहानी भी कुछ ऐसी ही रही. फिजिक्स से हायर स्टडीज करते वक्त घरवालों को लगा बेटा आगे चलकर इंजीनियर बनेगा, पर अभिनय व लेखन की चाहत ने बेटे को थियेटर के रास्ते सिनेमा तक पहुंचा दिया. पटना में अक्षरा आर्ट नामक थियेटर ग्रुप की नींव रखने से लेकर नाटकों में अभिनय, निर्देशन व लेखन से अपनी पहचान बना चुके राजीव आज बॉलीवूड में बतौर एडिटर स्थापित हो चुके हैं. प्रभात खबर के गौरव ने बातचीत के दौरान उनकी जिंदगी के ऐसे ही कुछ पहलुओं को छूने की कोशिश की.
क ल्कि क ोचलिन और सुमित ब्यास अभिनित रिबन से बतौर एडिटर जुड़े राजीव इस फिल्म के जरिये बतौर लेखक और एसोशिएट डायरेक्टर नयी पारी की शुरुआत कर रहे हैं. रिबन से पहले सिंह इज किंग, रॉक ऑन, गजनी और दिल्ली 6 जैसी फिल्मों की मेकिं ग विडियोज एडिट कर चुके हैं. बतौर इंडिपेंडेंट एडिटर पहली फिल्म कुटूंब हाथ आयी पर तीन नवंबर को रिलीज होने वाली रिबन पहले बनकर तैयार हो गयी. रिबन के बाद राजीव बतौर निर्देशक अपनी ही कहानी पर फिल्म बनाने की तैयारी कर रहे हैं.

- सबसे पहले अपने बारे में बताएं?
- जन्म नालंदा में हुआ. पिताजी स्कूल टीचर थे. सो घर में पढ़ाई का माहौल रहा. शुरुआती कुछ वर्ष गांव में बिताने के बाद पटना आ गया. ग्रेजुएशन तक की शिक्षा द्वारिका कॉलेज से हासिल की. फिजिक्स से इंटर करने के बाद माता-पिता को लगा था कि मैं आगे चलकर इंजीनियरिंग करूंगा. पर पढ़ाई के दौरान ही थियेटर में नाटकों का चस्का लग गया. जिसके बाद मेरी दुनिया एक अलग ही रास्ते पर चलने लगी. बिहार आर्ट थियेटर से दो साल का डिप्लोमा कोर्स किया. पहले साल तक तो घरवालों को इस बारे में पता ही नहीं था. इसी दरम्यान जब नाटकों का सिलसिला शुरू हुआ तब जाकर उन्हें पता चला. फिर कुछ दोस्तों के साथ मिलकर अक्षरा आर्ट्स नामक थियेटर ग्रुप की नींव रखी. फिर तकरीबन सात-आठ सालों तक थियेटर करने के बार फ ाइनली मुंबई का रुख किया.
- थियेटर और सिनेमा में काम की बात पर फैमिली वालों का क्या रिएक्शन रहा?
- मेरी गिनती पूरे खानदान में एक पढ़ाकू लड़के की थी. सबको मुझसे इतनी उम्मीद थी कि ये लड़का आगे चलकर जरूर किसी बड़े पद पर जाएगा. ऐसे में सिनेमा-थियेटर की बात मम्मी-पापा के लिए बिलकुल शॉकिं ग था. उनकी उम्मीदें टूट चुकी थी. तब मैंने उनसे जब कहा कि काम तो मुङो इसी फील्ड में करना है ऐसे में आपका सपोर्ट मुङो और ताकत देगा. यह सुनकर उन्होंने धीरे-धीरे मेरी मरजी स्वीकार कर ली.
- एक मिडिल क्लास फैमिली से होते हुए सिनेमा की फैंटेसी वाली दुनिया से रुझान पहली बार कब और कैसे महसूस हुआ?
- बचपन से ही स्कूल में ड्रामा व क विता पाठ किया करता था. ड्राइंग, एक्टिंग जैसी एक्टिविटीज शुरू से आकर्षित करती रही थी. पर हाइस्कूल के वक्त पढ़ाई के बोझ तले वो इच्छाएं अंदर कहीं दबकर रह गयी थी जो कॉलेज के वक्त फिर से उभरकर बाहर आ गयी.
- थियेटर से सिनेमा तक की जर्नी कैसी रही?
- पटना में रहने के दौरान नाटकों में अभिनय के साथ-साथ दो नाटकों बिल्लेसुर बकरीहा और पछतावा एक मसखरे क ा निर्देशन भी किया. फ ायनली जब मैं मुंबई आया तब मुङो एक बात समझ आ गयी थी कि निर्देशन ही मुङो ज्यादा आकर्षित कर रहा है. तब मैंने सिनेमा के तकनीकी पक्षों को जानना शुरू किया. 2008 में मैंने एडिटिंग सीखने के लिए एडमिशन लिया. फिर कुछ वक्त बाद मुङो कुछ बड़ी फिल्मों मसलन सिंह इज किंग, रॉक ऑन, गजनी, दिल्ली 6 जैसी फिल्मों के मेकिंग वीडियोज एडिट करने का मौका मिला. और इस तरह जर्नी शुरू हुई. आगे जाकर मुङो अता पता लापता, ट्वेल्व स्टोरीज, कुटूंब और रिबन जैसी फिल्म मिली जिसके एडिटिंग की पूरी जिम्मेदारी मेरे ही ऊपर थी. फिल्म मेकिंग से जुड़ने की एक वजह ये भी रही कि मुंबई आने के बाद कोई गॉडफादर ना होने की वजह से मुङो निर्देशन का कोई काम मिल नहीं रहा था. तब मैंने सोचा क्यूं ना मेकिंग के जरिये राह तलाशूं. इससे तकनीकी जानकारी भी हो जाएगी और आगे जाकर अपने मन की फिल्में खुद भी बना सकूंगा.
- चलिये रूख बिहार की ओर करते हैं. आपको नहीं लगता इस मुकाम पर पहुंचने के बाद बिहार के सिनेमा में बदलाव की कुछ उम्मीद आपसे भी की जाये.
- बिलकुल होनी चाहिए. और मुङो लगता है बदलाव की शुरुआत बिहार में हो चुकी है. चुंकि स्थितियां इतनी खराब हो चुकी थी कि उन्हें सुधरने में थोड़ा वक्त लगेगा. पर देशवा, मिथिला मखान और अनारकली ऑफ आरा के जरिये उस बदलाव ने शेप लेना शुरू कर दिया है. अब जब मैं खुद अपने निर्देशकीय पारी की शुरुआत करने जा रहा हूं तो उम्मीद करता हूं जैसे ही मुङो बिहारी पृष्ठभूमि पर कोई अच्छा विषय मिलेगा, एक अच्छी फिल्म जरूर बनाऊंगा.
- बिहार में अपने वक्त के थियेटर और आज के थियेटर में कितना अंतर पाते हैं?
- ईमानदारी से कहूं तो आज के थियेटर की स्थिति से दु:ख होता है. हमारे वक्त में नाटक करने के लिए पैसे का कोई श्रोत नहीं होता था. हम खुद ही मिलकर पैसे इकठ्ठा करते और मंचन करते. आज नाटकों के लिए सरकारी ग्रांट की भी शुरुआत हो चुकी है. पर पैसे मिलने के बाद स्थितियां सुधरने के बजाय बिगड़ती चली गयी. पैसे के खेल में नाटकों के प्रति कलाकारों और निर्देशकों की ईमानदारी खत्म होती जा रही है. नाटकों की आत्मा मारकर पैसे बनाने का खेल शुरू हो चुका है.
- एज एन एडिटर आप फिल्म से कितना संतूष्ट हो पाते हैं?
- यहां भी मैं ईमानदारी से कहूंगा कि आजकल की कहानियां ही संतुष्टि नहीं दे पाती जिससे काम का मजा किरकिरा हो जाता है. एज एन एडिटर ऐसी फिल्मों की तलाश रहती है जिसमें करने को कुछ नया मिले. पर आजकल सिनेमा के नाम पर बस पैसों का बाजार चल रहा है. यही वजह भी रही कि इतने समय काम करने के बाद अब अपने पूराने पैशन (लेखन व निर्देशन) की ओर रूख कर रहा हूं. खुद की ईमानदार सोच वाली कहानी गढ़ने की कोशिश कर रहा हूं.
- सिनेमा इंडस्ट्री में डिजिटल प्लेटफार्म के आने को किस नजरिये से देखते हैं?
- मुझसे पुछें तो मैं इसे पूरी तरह पॉजिटिव मानता हूं उन लोगों के लिए जो पैसे की वजह से अपनी सोच और क्रियेटिविटी को आकार नहीं दे पाते थे. आज उनके पास ह7जारों मौके हैं उन सोचों को लोगों तक पहुंचाने का. सोशल मीडिया, यूट्यूब के जरिये शार्ट फिल्म्स आज हर हाथ में चंद मिनटों में उपलब्ध हो जा रहे हैं. और नेटफ्लिक्स व अमेजॉन के आने से नये-नये आयडियाज और कहानियां भी सामने आ रही हैं. अब नयी प्रतिभाओं को पैसे की फिक्र करने की जरूरत नहीं होती. अगर आपके पास कुछ अलग और उम्दा है तो ये प्लेटफार्म्स आपको हाथो-हाथ लेते हैं.
- थियेटर एक्टर एंड डायरेक्टर, फिल्म एडिटर के बाद अब आगे राजीव के और कौन से रूप देखने को मिलेंगे?
- अभी अपनी एक स्क्रिप्ट लिख रहा हूं. जल्द ही घोषणा करूंगा. इस स्क्रिप्ट पर बनने वाली फिल्म से निर्देशकीय पारी की शुरुआत करने वाला हूं. अगले साल तक फिल्म पूरी करने की योजना है.



बातचीत: सौरभ राज जैन

यूं तो टेलीविजन की दुनिया में रोज कई कलाकार आते हैं और कुछ शोज करके गुम हो जाते हैं, पर कुछ कलाकार ऐसे होते हैं जिनके द्वारा निभाया गया किरदार ही उनकी पहचान बन जाती है. कुछ ऐसी ही शख्सियत है टीवी और सिनेमा में काम कर चुके सौरभ राज जैन की. नाम शायद आपको अपरिचित सा भले लगे पर महाभारत, जय श्री कृष्णा और देवों के देव महादेव जैसे शोज में उनके द्वारा निभाया गया श्री कृष्ण और विष्णु का किरदार उनकी पहचान बताने के लिए काफी है. टीवी के ही अन्य शोज मसलन कसम से, यहां मैं घर-घर खेली और उतरन में भी वो अपनी पुरजोर उपस्थिति दर्ज करा चुके हैं. आजकल सौरभ अपने नये शो महाकाली : अंत ही आरंभ है में निभा रहे भगवान शिव की भुमिका को लेकर चर्चा में हैं. अपने नये शो और अभिनय के सफर को ले सौरभ ने प्रभात खबर के गौरव से खास बातचीत की.
- सबसे पहले तो बधाई नये शो की. शो के बारे में कुछ बताएं?
- महाकाली हमारा जो नया शो है, इसे एक यात्र कहें तो गलत नहीं होगा. यह यात्र है देवी पार्वती के महाकाली बनने की. इस शो की आधारभुत सोच ये है कि नारी को किसी भी क ाल में आगे बढ़ने या समस्याओं से जुझने के लिए किसी पुरूष की आवश्यकता नहीं होती. वो अपने आप में ही इतनी पूर्ण होती हैं कि किसी भी तरह की बाधा उन्हें रोक नहीं सकती.
- आजकल धार्मिक शोज की इतनी भरमार हो गयी है कि दर्शकों के लिए चुनाव करना मुश्किल हो गया है. ऐसे में लगातार इस तरह के शो करने से टाइपकास्ट होने का खतरा नहीं लगता?
- देखिये दोनों सवालों के अलग-अलग जवाब हैं. जहां तक बात टाइपकास्ट होने की है तो जबतक आपको दर्शक उस रूप में पसंद कर रहे हों तबतक खतरे वाली कोई बात ही नहीं. जिस दिन वो दर्शकों को बोर करने लगेगा मैं खुद ही वो र7ास्ता छोड़ दूंगा. वैसे मैं इन शोज के अलावा चेंज के किए कई अन्य तरह के शोज भी करता रहता हूं. जहां तक बात दर्शकों की है तो वो भीड़ में भी अपने लायक चीजे ढूंढ ही लेते हैं. जबतक ऐसे शोज उन्हें पसंद आते रहेंगे निर्माता-निर्देशक बनाते रहेंगे.
- धार्मिक किरदार निभाने की अलग चुनौतियां हैं. ऐसे किरदार की रिफरेंस कहां से लाते हैं?
- ये पूरा का पूरा एक थॉट प्रोसेस है. हम पहले भी इस तरह के कई किरदार कई शोज में देख चुके होते हैं. तो हर बार नया शो करते वक्त हमें राइटर्स और क्रियेटिव टीम के साथ ऐसे थॉट प्रोसेस से गुजरना पड़ता है कि इस किरदार में हम ऐसा क्या नया करें जो पहले के किरदारों ने नहीं किया. यह भी एक बंधन होती है कि हमें एक सीमा रेखा के बाहर नहीं लांघना है जिससे किरदार बनावटी या विवादास्पद लगे. मेरे नये शो में आप देखेंगे कि शिव जी का किरदार अपने सौम्य और प्रेरणाश्रोत के रूप में दिखाया गया है जो उनकी पिछली उग्र रूप वाले इमेज से बिलकुल अलग है.
- ऐसे किरदारों का औरा शो के बाद भी एक्टर को बेचैन रखता है. इस सिचुएशन से कैसे निबटते हैं?
- देखिये केवल ऐसे किरदार ही नहीं किसी तरह के किरदार को लंबे समय तक प्ले करने पर हमारे सबकॉन्सस माइंड में उसका असर कहीं न कहीं रह ही जाता है. धीरे-धीरे वक्त के साथ हमें यह अहसास होता है कि प्रोफेशनल लाइफ के इस दायरे को पार कर कैसे हम पर्सनल लाइफ में इंटर करें. मुङो लगता है मैं वो फेज पार कर चुका हूं जब ऐसे किरदारों का असर काम खत्म करने के बाद भी रहता था. अब मैं शुटिंग से बाहर आते ही सौरभ राज जैन हो जाता हूं.
- ऐसे किरदार के बाद पब्लिक लाइफ में भी लोग आपको भगवान के रूप में ही देखने लगते हैं. कभी ऐसी किसी घटना से सामना हुआ?
- कई बार ऐसी घटनाएं हो चुकी हैं. वो मैं पब्लिकली नहीं बता सकता क्योंकि ये धर्म और आस्था से जुड़ा मामला है. मुङो पर्सनली अपना दायरा पता है पर कभी-कभी लोगों के भावनाओं की क द्र करते हुए मुङो उनकी सोच जैसा खुद को ढालना पड़ता है. उनकी सोच को रिस्पेक्ट देना पड़ता है क्योंकि उन्हीं की वजह से मेरी पहचान भी है.
- कब लगा कि अभिनय ही आगे की राह है?
- ईमानदारी से कहूं तो शुरू से कभी सोचा ही नहीं था कि इस क्षेत्र में जाना है. फैमिली में भी दूर-दूर तक कोई इससे जुड़ा नहीं था. कम्प्यूटर अप्लीकेशंस की पढ़ाई के वक्त मुङो मुंबई से एक ऑफर आया. अठारह की उम्र में इस तरह के ऑफर सीरियसली कम और एक्साइटमेंट में ज्यादा स्वीकारे जाते हैं. सो मैंने भी कर लिया. पर पहले काम के बाद अहसास हुआ कि ये करने से मुङो काफी खूशी मिल रही है. तब इसे सीरियसली लेना शुरू किया. और धीरे-धीरे यही प्रोफेशन बन गया.
- किसी शो का चुनाव करते वक्त सबसे पहले क्या देखते हैं?
- सबसे पहले मैं ये देखता हूं कि वो रोल मेरे लिए अलग और चैलेंजिंग कैसे हो. किरदार ऐसा हो जो मेरे पिछले काम से अलग हो. बार-बार खुद को दोहराने के बजाय रूक कर अलग तरह के काम का इंतजार करना बेहतर समझता हूं.
- हिंदी सिनेमा का बड़ा परदा कभी आकर्षित नहीं करता?
- कौन एक्टर होगा जो इसका जवाब ना में देगा. इस साल मैंने एक तेलुगू फिल्म की है नागाजरून सर के साथ. उससे पहले भी एक इंडोनेशियन फिल्म की थी. इंतजार में हूं, पर जैसे ही मौका मिलेगा हिंदी सिनेमा की दहलीज जरूर लांघना चाहूंगा.
- टीवी और सिनेमा में अलग-अलग क्या खासियत पाते हैं?
- मेरे लिए दोनों माध्यम अलग-अलग हैं पर हम एक्टर्स को हर जगह एक्टिंग ही करनी होती है. अंतर बस दर्शकों के लिए हो सकता है पर हम काम करने वालों के लिए दोनों जगह एक से हैं.
- अभिनय के आपके लिए क्या मायने हैं?
- कहीं शाहरूख खान को मैंने कहते सुना था कि फ ॉर मी एक्टिंग इज वनली रिएक्टिंग. उस वक्त इस लाइन ने मुझपर ऐसा असर छोड़ा कि आज तक इस बात को फ ॉलो करता हूं.
- एक्टिंग के अलावे सौरभ को और क्या पसंद है?
- मुङो पढ़ना बहुत पसंद है. जब भी मौका मिलता है कोई न कोई किताब पढ़ता ही रहता हूं. इसके अलावा डांसिंग का भी शौकीन हूं. और इन सब के साथ-साथ जो एक बात और सबसे ज्यादा पसंद है वो है आउटिंग.
- जब भी मौका मिलता है घूमने निकल जाता हूं. आम इंसान की जिंदगी के हर लम्हें की तरह मैं भी अपनी जिंदगी इंज्वाय करना चाहता हूं.
- एक्टिंग की दुनिया में आने के लिए यंगस्टर्स को क्या एडवाइस देंगे?
- एक ही बात कहना चाहूंगा सपने देखिये, पर केवल और केवल सपने मत देखिये. काम करते रहिए. बाहर काम ना मिले तो खुद को अंदर से पॉलिस करने का काम करते रहिए. हिम्मत कभी मत हारिए सफलता जरूर मिलेगी.


बातचीत: सुमोना चक्रवर्ती

मैं बिलकुल द गर्ल नेक्स्ट डोर वाली लड़की हूं: सुमोना चक्रवर्ती

आमिर खान और मनीषा क ोईराला अभिनित फिल्म मन से बतौर चाइल्ड आर्टिस्ट करियर की शुरुआत करने वाली सुमोना ने आगे जाकर कई फिल्में और सीरियल की. पर बतौर अभिनेत्री उन्हें घर-घर में पहचान मिली एकता कपूर के टीवी शो बड़े अच्छे लगते हैं से. क पिल शर्मा के शो कॉमेडी नाइट और द क पिल शर्मा शो में क पिल की प}ी और फिर प्रेमिका के किरदार ने उन्हें एक नयी ऊंचाई दी. थियेटर, टीवी और सिनेमा के जरिये घर-घर में जगह बना चुकी सुमोना आजकल अपने नये क्राइम एंड सस्पेंस शो देव को लेकर काफी उत्साहित हैं. प्रभात खबर के गौरव से खास बातचीत में सुमोना ने अपने नये शो और खुद से जुड़ी कई और बातों को साझा किया.
- सबसे पहले तो आपको नये शो की बधाई. अपने नये शो के बारे में थोड़ी जानकारी दें?
- इस शो की सबसे खास बात है शो का एक फाइनाइट सीरिज में ऑन एयर होना. 26 एपिसोड के इस सीरिज में आपको मिस्ट्री के अलावा एक्शन, इमोशन, रोमांस और फ ील भी देखने को मिलेगा. एक लाइन में कहूं तो यह शो फुल पैकेज इंटरटेनर साबित होने वाला है. बाकी सारे क्राइम शो की तरह यह केवल फिक्शन नहीं है बल्कि रियल घटनाओं को कहानी में पिरोकर इसे काफी मजेदार तरीके से बनाया गया है.
- इस शो या किरदार की कौन सी खास बात थी जिसने आपको शो करने के लिए अट्रैक्ट किया?
- काफी सारे डेली शोप्स और सालों तक चलने वाले शोज कर-कर के बोर हो गयी थी. जैसे ही फाइनाइट सीरिज की बात सुनी मन में तुरंत इसे करने का ख्याल आया. फिर इसके स्क्रिप्ट ने भी आकर्षित किया. मेरे लिहाज से हर कहानी का एक मुकम्मल अंत होना चाहिए जो मुङो इस शो में दिखा. और जहां तक किरदार की बात है तो इससे पहले मैंने किसी शो में मां का किरदार नहीं निभाया था. मुङो पता है कई एक्ट्रेस टाइपकास्ट होने के डर से ऐसे किरदार निभाने को जल्दी तैयार नहीं होती. एक ऐसी सिंगल मदर जो काफी स्ट्रांग भी है इस तरह के जॉनर का किरदार देखते ही झट से मैंने हां कर दिया. आजतक मैंने जितने भी किरदार निभाए हैं कभी खुद को रिपीट नहीं किया, हमेशा अपने काम में वेराइटी रखी. ये भी वजह थी एक वजह थी शो स्वीकारने की.
- किसी शो का चुनाव करते वक्त सबसे पहले क्या देखती हैं?
- कंटेंट. सबसे पहले कंटेट ही है जो मुङो हां या ना कहने को बाध्य करता है. बैनर, प्रोडक्शन, निर्देशक या फिर अन्य सारी चीजें इसके बाद आती हैं, पर मेरी पहली प्राथमिकता कंटेट ही होती है.
- आपने टीवी, फिल्म और कई सारी थियेटर की. आपके लिए अभिनय क्या है?
- मेरे लिए अभिनय मेरा पहला और आखिरी पैशन है. आपको भी पता है कि दुनिया में बहुत कम ऐसे खुशकिस्मत होते हैं जिनको उनके पैशन को ही कैरियर बनाने का मौका मिलता है. और मैं अपने आप को उन चुनिंदा खुशकिस्मतों में से एक मानती हूं.
- टीवी और फिल्म, दोनों की अलग-अलग क्या खासियत महसूस करती हैं?
- मेरे लिए दोनों एक्सप्रेशन का एक माध्यम है. टेकAीकली कहूं तो फिल्में बड़े स्तर पर बनती हैं तो थोड़ी ज्यादा मुश्किल है. लाइट, कैमरा और अन्य तकनीकी चीजों का कैनवास बड़ा होता है तो जाहिर तौर पर पूरे दिन में शायद एक दो सींस की शुटिंग हो पाती है. वहां हमारे सीखने के अवसर भरपूर मात्र में होते हैं. टीवी अपेक्षाकृत टेकAीकली थोड़ा पीछे है, बस. पर मेरे लिए दोनों जगह बराबर है. मेरा कैरेक्टर और स्क्रिप्ट जहां ज्यादा वजनदार होगा मैं वहीं काम करना पसंद क रूंगी.
- आपने सीरियस, कॉमेडी के साथ ही और भी कई तरह के किरदार किये हैं. असल जिंदगी में सुमोना इनमें से कैसी है?
- (हंसते हुए) मैं...देखिये मैं जैसा किरदार सीरियल्स या फिल्मों में प्ले करती हूं वैसी तो बिलकुल नहीं हूं. क ोसों दूर हूं उनसे. मुङो करीब से जानेंगे तो मुझमें आप द गर्ल नेक्स्ट डोर वाली छवि ही पाएंगे. सिंपल एंड पॉजिटिव. थोड़ी-बहुत सिमिलरिटी तो हर किरदार की हर इंसान से होती है, पर ईमानदारी से कहूं तो अबतक मुङो कोई ऐसा किरदार ही ऑफर नही ं हुआ जो मुझसे मैच कर सके. और मैं ऊपर वाले से दुआ क रूंगी ऐसा कभी हो भी नहीं (हंसते हुए)
- बचपन की कोई मोमेंट शेयर करेंगी जब आपको पहली बार लगा कि मुङो अभिनय के फील्ड में जाना है?
- सीरियसली कहूं एक्टिंग का तो याद नहीं पर हां वो वक्त हमेशा से मेरे जेहन में है जब सुस्मिता सेन ने मिस यूनिवर्स का खिताब जीता था. उस वक्त मैं काफी छोटी थी, पर स्टेज पर क्राउन के साथ सुस्मिता को देख मन में यह बात बैठ गयी कि बिलकुल उस जैसा तो नहीं पर मुङो भी कुछ ऐसा बड़ा करना है. वो पहली घटना थी जिसने मुङो कुछ बड़ा करने को प्रेरित किया. आगे जाकर स्कूल-कॉलेज में थियेटर करते-करते सफर यहां तक आ पहुंचा.
- खुद के करियर के उतार-चढ़ाव और अनुभवों के आधार पर यंगस्टर्स को क्या एडवाइस देना चाहेंगी.
- मैंने खुद भी बिना किसी सपोर्ट और गॉडफादर के यहां तक का सफर तय किया है. इसके लिए मैंने अपनी पढ़ाई पूरी की, जमकर मेहनत की. मेरे पास कई ऐसे युवा आते हैं जो बताते हैं कि मैंने इस फील्ड में आने के लिए पढ़ाई छोड़ दी. मैं बताना चाहूंगी कि एजूकेशन ही है जो आपको इंडिविजुअली और कैरियर शेपिंग में पिलर की तरह मदद करता है. तो पहले अपनी शिक्षा पूरी करो, मेहनत करो, सफलता जरूर मिलेगी.



फिल्म समीक्षा

मर्डर मिस्ट्री के साथ रिश्तों की कहानी है रुख

पिछले कुछ दिनों से मनोज बाजपेयी की फिल्म रुख का ट्रेलर अपने अलग ट्रीटमेंट की वजह से उत्सुकता जगा रहा था. फिल्म के खास ह7ोने की वजह इस फिल्म से निर्माता मनीष मुंदड़ा का नाम जुड़ा होना भी है. जिनकी आंखों देखी, धनक, मसान और न्यूटन जैसी फिल्में बॉक्स ऑफिस की भेड़चाल से दूर दर्शकों के बीच अलग उपस्थिति दर्ज करा चुकी हैं. इस बार रुख के जरिये भी उन्होंने कुछ वैसा ही प्रयास किया है. अतनु मुखर्जी निर्देशित रुख एक मर्डर मिस्ट्री होने के साथ-साथ पिता-पुत्र के रिश्तों की कई परतें नये सिरे से परिभाषित करती हैं.
कहानी मुंबई के दिवाकर माथुर (मनोज बाजपेयी) की है जो बिजनेस में घाटे की वजह से काफी परेशान रहता है. फैमिली को समय नहीं दे पाने की वजह से उसकी प}ी नंदिनी (स्मिता तांबे) भी चिढ़ी-चिढ़ी रहती है. ऐसे वक्त में रॉबिन (कुमुद मिश्र) नामक बिजनेसमैन दिवाकर की कंपनी में पैसा लगाता है और उसके साथ पार्टनरशिप कर लेता है. अचानक बार्डिग स्कूल में पढ़ रहे दिवाकर के बेटे ध्रुव (आदर्श गौरव) को एक दिन पता चलता है कि एक रोड एक्सिडेंट में उसके पिता की मौत हो गयी. पिता के जाने के बाद ध्रुव वापस अपनी फैमिली के पास रहने आ जाता है. पर वापस आने पर उसे अहसास होता है कि उसके पिता की मौत महज एक एक्सिडेंट नहीं बल्कि किसी की सोची समझी साजिश का नतीजा है. अपने दोस्तों की मदद से वो खुद ही इस साजिश के तह तक जाने की कोशिश करता है जिसमें कई सारे राज परत दर परत खुलते हैं. 
फिल्म की कहानी भले सुनने में सीधी-सपाट लगे पर परदे पर रहस्यों की सिलसिलेवार खुलती परतें इसे यूनिक बनाती है. फिल्म रोचक होने के साथ-साथ काफी मनोरंजक भी हो सकती थी पर सिनेमायी मसालों की कमी और एक ही ट्रैक पर चलने की वजह से कई जगहों पर एकरसता का अहसास भी देती है. अभिनय के लिहाज से किरदार में डूबे मनोज बाजपेयी का फ्लो देखते ही बनता है. छोटी भूमिका के बावजूद उनकी उपस्थिति मात्र से कहानी की र7ोचकता बढ़ जाती है. मां के किरदार में स्मिता तांबे ने भी सहजता से अपने हिस्से का निर्वाह किया है. पर तारीफ के क ाबिल हैं आदर्श गौरव, जिनकी खोज फिल्म की उपलब्धि ही मानी जाएगी. कुमुद मिश्र की स्वाभाविकता भी मोहती है. कुल मिलाकर कहें तो अगर आप मसालेदार सिनेमा से हटकर कुछ नये की तलाश में हों तो एक बार थियेटर का रुख भी बूरा नहीं रहेगा.