Sunday, July 31, 2016

फिल्म देखकर सेंसर बोर्ड अधिकारियों ने भी की तारीफ: सतीश त्रिपाठी

इंटरव्यू
बॉलीवुड की कई फिल्मों व हॉलीवुड मुवी रॉक इन मीरा में संगीत देने के बाद संगीतकार जोड़ी सतीश-अजय ने पहली बार अल्गोल प्रोडक्शन के जरीये फिल्म निर्माण के क्षेत्र में कदम रखा है. उनकी पहली फिल्म इश्क क्लिक एक प्रेम कहानी है, जिसमें मुख्य भुमिका में अध्ययन सुमन के साथ सारा लॉरेन हैं. पेश है सतीश त्रिपाठी से उनके फिल्म के बारे में गौरव की बातचीत-
- संगीत की दुनिया से अचानक फिल्म निर्माण का रुख करने की क्या खास वजह रही?
बनारस की पैदाइश होने के कारण गीत-संगीत से हमारा शुरू से लगाव रहा है. वहां का माहौल कलाप्रेमियों के लिए हमेशा से मुफीद रहा है. आगे जाकर फिल्मों के संगीत रचते वक्त अजय जी और मेरे जेहन में कई खूबसूरत कहानियां भी जन्म लेने लगी. पर किसी अन्य निर्माता के बैनर तले अपने विचारों को स्वछंद तरीके से आकार दे पाना मुमकिन नहीं होता. यही वजह थी कि हमदोनों ने इस कहानी के साथ स्वयं की निर्माण कंपनी स्थापित करने का निर्णय लिया. इस हाउस के जरीये हम आगे भी नये विचार और कहानियों के साथ प्रयोग करते रहेंगे.
- इश्क क्लिक जैसे अनयुजुअल नाम के पीछे क्या सोच रही?
- इश्क क्लिक काफी आकर्षक शीर्षक लगी. दरअसल यह एक महत्वकांक्षी फ ोटोग्राफर के जीवन की रियल लाइफ स्टोरी पर आधारित कहानी है, जिसमें वो कैमरे की क्लिक के साथ प्यार का इजहार करता है, और हर क्लिक के साथ उसका प्यार परवान चढ़ता है. आज के दौर में जहां कहानियों से परिवार और रिश्तों की क ड़ियां टूटती जा रही है, हमारी फिल्म में उन्हीं पारिवारिक मुल्यों और रिश्तों की अहमियत को काफी खूबसूरती से फिल्माया गया है. उम्मीद है दर्शक इसे पसंद करेंगे.
- नये कलाकारों के साथ बॉक्स ऑफिस पर कमाई करना बड़ी चुनौती होती है. आप फिल्म की सफलता को लेकर कितने आश्वस्त हैं?
- फिल्म में कोई नया कलाकार नहीं है. सारा लॉरेन मर्डर 3 जैसी हिट फिल्म दे चुकी हैं. वहीं अध्ययन सुमन और बाकी सहकलाकार भी रंगकर्म और फिल्मों की दुनिया के जाने-माने नाम हैं. और फिर फिल्म देखकर सेंसर बोर्ड के अधिकारियों ने भी कहानी की काफी तारीफ की है तो हौसला और दोगुना हो गया है. बाकी तो दर्शकों के ऊपर है.
सुनने में आया है कि आपकी फिल्म की पटकथा मशहूर अभिनेत्नी कंगना रानावत और अध्ययन सुमन के निजी संबंधों पर आधारित है, इसमें कहां तक सच्चाई है?
- देखिए, इश्क क्लिकएक लव स्टोरी पर आधारित फिल्म जरूर है, लेकिन किसी के निजी जीवन से इस फिल्म का कोई ताल्लुक नहीं है. फिल्म की कहानी हमने आज के समाज में महत्वाकांक्षा की पूर्ति में टूटते रिश्तों को ध्यान में रखकर लिखा है और साथ ही युवावर्ग को वक्त रहते अपने आपको संभालने की नसीहत भी फिल्म के माध्यम से दी है.
- संगीत और फिल्म निर्माण, दोनों में से किसको ज्यादा इंज्वाय किया?
- आपको बता दूं, संगीत हमारा पैशन है. पर निर्माता-निर्देशक के दबाव अनुरूप संगीत देने में अन्दर कहीं एक कसक रह जाती थी. निर्माण के क्षेत्र में उतरकर हमने वहीं काम उन्मुक्त तरीके से किया. संगीत के साथ-साथ फिल्म निर्माण में आने से दोगुनी जिम्मेदारी का अहसास होने लगा है. पर दोनों ही काम का अपना मजा है.
- बतौर निर्माता आगे की योजना क्या है?
- कई और कहानियां जेहन में है. पर अभी सारा फोकस इश्क क्लिक के प्रमोशन और दर्शकों के रिस्पांस पर है. फिल्म पर दर्शकों और समीक्षकों की प्रतिक्रिया आने के बाद हम आगे की योजना पर अमल करेंगे.


जॉन और वरूण के फैंस को लुभाएगी ढिशुम

फिल्म समीक्षा
तर्को को किनारे रख दें, और दो घंटे बस हिंदी सिनेमा के प्रचलित मसालेदार फ ामरूले का लुत्फ लें. तर्को में दिमाग लगाएंगे तो खींज होगी. और अगर आप जॉन और वरूण के दीवाने हैं, फिर तो तर्को के साथ-साथ कहानी को भी दरकिनार कर दें, मनोरंजन का जायका ज्यों का त्यों रहेगा. लब्बोलुआब ये कि आयडिये के स्तर पर काफी मजबूत दिखती फिल्म परदे पर आते-आते बस जॉन और वरूण की प्रदर्शनी बन कर रह जाती है. जैकलीन फर्नाडिस का उपयोग भी बस इस शो में ग्लैमर का तड़का लगाने भर को ही हुआ है. देसी ब्वायज जैसी खालिस मसालेदार फिल्म बनाने के बाद रोहित धवन एक बार फिर उस र्ढे का मोह नहीं त्याग पाये और ढिशुम के जरीये वो खुद को मसाला फिल्मों की एक सीमा में बांधते ही नजर आते हैं.
कहानी शुरू होती है इंडिया-श्रीलंका के बीच हुए क्रिकेट मैच के बाद से. उस मैच के बाद टीम इंडिया के स्टार बल्लेबाज विराज शर्मा (शाकिब सलीम) का अपहरण हो जाता है. ताकि वो शारजाह फाइनल में होने वाले भारत-पाकिस्तान के मैच का हिस्सा न बन सके. विराज का पता लगाने के लिए भारतीय विदेश मंत्रलय द्वारा ऑफिसर कबीर शेरगिल(जॉन अब्राहम) को भेजा जाता है. वहां वो जुनैद अंसारी (वरूण धवन) के साथ मिलकर विराज की तलाश करता है. दानों के पास 36 घंटे का वक्त है विराज को वापस लाने के लिए. विराज की तलाश करते कबीर और जुनैद का सामना सैम(अक्षय कुमार), मीरा(जैकलीन फर्नाडिस) और बाघा(अक्षय खन्ना) से होता है. बाघा क्रिकेट सट्टेबाजी की दुनिया का किंग है. विराज की वजह से उसके तीन सौ करोड़ डूब चुके हैं. वो विराज के जरीये अपने डूबे पैसे पाने की कोशिश करता है. और फिर चलता है पैसों की मांग करते बाघा और विराज की खोज में लगे ऑफिसर के बीच चुहे-बिल्ली का खेल. 36 घंटे के इस चुहे-बिल्ली के खेल में आपको कॉमेडी, ग्लैमर के साथ-साथ एक्शन का भरपूर डोज मिलता है. परदे पर जॉन और वरूण के हर इंट्री के साथ थियेटर में रूक-रूककर बजती सीटियों और तालियों की गड़गड़ाहट से ये अहसास हो जाता है कि दर्शकों को कहानी की मजबूती से ज्यादा जॉन और वरूण के सिक्सपैक्स व डोलों की मजबूती की चाहत है.
किरदार अदायगी के मामले में वरूण जॉन को पीछे छोड़ जाते हैं. हंसोड़ किस्म के ऑफिसर की भुमिका में वरूण की कॉमिक टाइमिंग और वन लाइनर संवाद मजेदार हैं. जॉन भी सीरियस किरदारों में फबते हैं. पर ऐसे किरदारों में अब उनकी एकरूपता नजर आती है. काफी वक्त बाद परदे पर दिखे अक्षय खन्ना और विराज के किरदार में शाकिब सलीम प्रभावित करते हैं. पर फिल्म की जान सैम के कैमियो किरदार में अक्षय कुमार और फ ोन के जरीये बीच-बीच में हंसी का तड़का लगाने वाले सतीश क ौशिक रहे. बगैर परदे पर दिखे सतीश केवल आवाज के जरीये अपनी दमदार उपस्थिति दर्ज करा जाते हैं. सौ तरह के रोग गाने को सूनना भी कर्णप्रिय लगता है.
क्यों देखें- जॉन व वरूण के दीवाने हैं तो फिल्म बस आप ही के लिए है.

क्यों न देखें- कहानी में तर्को की माथापच्ची से दिमाग भन्ना सकता है.

क ॉमन मैन के जरीये सिस्टम खंगालता है मदारी

फिल्म समीक्षा
पिछले कुछ दिनों से फिल्म के प्रोमो का टैगलाइन श्श्श्श्श् देश सो रहा है आम से खास तक के अंदर उथल-पूथल मचा रहा था. कईयों की भौंहें तन रही थी तो कई निगाहें कुछ खास की उम्मीद में टकटकी लगाये थी. बात पॉलिटिकल गलियारे और सिस्टम पर सवाल उठाती फिल्म मदारी की थी. और यकीनन निर्देशक निशिकांत क ामत की मदारी उन उम्मीदों को निराश नहीं करती. पॉलिटिक्स और सिस्टम में बैठे लोग भी शायद मदारी की इस साफगोई से इत्तेफाक रखें कि आज हर दिन किसी न किसी आम आदमी की जिंदगी में सिस्टम ओरियेंटेड हादसे की वजह से उथल-पूथल मचता है. और आम जिंदगी के ये हादसे खबरों और अखबारों की दुनिया के किसी कोने में दफन हो जाते हैं. पर वही हादसा जब किसी खास की जिंदगी में दखल देता है तो पूरे सिस्टम और पॉलिटिक्स में भूचाल आ जाता है. फिल्म इसी आम और खास के अंतर की जवाबदेही मांगती है. जनता के वोटों के भरोसे सत्ता पर काबिज लोग जब खुद की इमारतें मजबूत करने में लग जाएं तो जनता के प्रति कौन जवाबदेह होगा. दूसरी ओर सिस्टम के मकड़जाल में उलझा आम आदमी भी इसे नियति मानकर खामोशी की चादर ओढ़ लेता है. पर हां, मदारी केवल सोये देश का अक्स भर नहीं दिखाती, भविष्य की उम्मीदें भी दिखाती है. आम आदमी निर्मल की भुमिका में इरफान का संवाद कि आज नहीं, कल नहीं, शायद दस-पंद्रह साल बाद लोग समङोंगे इसी खुशनूमा भविष्य की ओर इशारा करता है.
फिल्म की कहानी अपनी छोटी सी दुनिया मस्त रहने वाले एक आम आदमी निर्मल(इरफान) की है. उसकी दुनिया में वो और उसका सात साल का बेटा अप्पू है. हंसती-खेलती दुनिया में अचानक एक हादसा होता है. अप्पू एक पूल हादसे का शिकार हो जाता है. हादसे में सरकारी जिम्मेदारी की वजह से बात दब कर रह जाती है. निर्मल उन्हीं गुनहगारों को सजा दिलवाने की खातिर होम मिनिस्टर के बेटे को किडनैप कर लेता है. हाई प्रोफाइल मामले की वजह से पूरा सिस्टम और पॉलिटिकल गलियारा हरकत में आ जाता है. और तब निर्मल रिहाई के बदले उस पूल हादसे के गुनहगारों को सजा की मांग करता है. कहानी सिंपल है, पर आम इनसान के भीतर दबे -सोये गुस्से को कुरेदती है. मजबूर करती है केवल वोट देकर अपनी जिम्मेदारी खत्म समझने की सोच से आगे जाकर इन राजनीतिक रहनुमाओं से अपने-अपने हिस्से का जवाब मांगने की.
फिल्म अपने धीमी गति की वजह से बीच-बीच में खींज देती है. पर इस खींज से आपको खींच लाने की पूरी जिम्मेदारी इरफान पर थी. और यकीनन इरफान अपने संजीदा अभिनय से उस जिम्मेदारी को बखूबी उठा ले जाते हैं. इरफान के रूदन का हर पल आम आदमी की बेबसी और कमजोर पलों के रूदन का अहसास देता है. और सबसे बेहतर फिल्म का क्लाइमैक्स, जो आपपर कोई निर्णय थोपने के बजाय दो-दो अंत के साथ आपको पूरी आजादी देता है. खुद का अंत चुनने की.
क्यों देखें- भ्रष्ट सिस्टम और आम आदमी के बीच की रस्साकसी व इरफान की खूबसूरत अदाकारी देखनी हो तो.

क्यों न देखें- हिंदी मसाला सिनेमा के शौकीन हैं तो बेहतर होगा कोई और ऑप्शन तलाशें.

Friday, July 22, 2016

दिल की बात..
पंद्रह साल भी कम पड़ेगे इरफान, क्योंकि लोग अब भी सब जानते हैं..
सच, दाद देता हूं आपकी क ोशिशों क ी,उम्मीदों की. पता है! जाने कब से मै भी उन्हीं उम्मीदों के ढेर पर खड़ा हूं. पर यकीन मानिए इरफान, पंद्रह साल भी कम पड़ेंगे, क्योंकि लोग अब भी सब जानते हैं. पर क्या करें, यहां सबको जल्दी है. अफसोस उन्हें जल्दी नहीं है आगे जाने की, बल्कि जल्दी है बाकियों को पीछे छोड़ जाने की. उन्हें जल्दी नहीं है अपने जीत जाने की, जल्दी है तो बस बाकियों को हराने की. और तो और उन्हें ये भी जल्दी नहीं है अपने खुशियों की इमारतों पर खड़े हो दो पल चैन और सुकून के बिताने की, उन्हें जल्दी और जिद है तो बस ऊंची अट्टालिकाओं पर खड़े हो बाकियों को नीचा दिखाने की. यहां किसी को जल्दी नहीं है देश बचाने की, जल्दी है तो बस.. औरों के दर्द पर अपने मतलब का महल बनाने की. और यही जल्दबाजी, यही जिद आपकी उम्मीदों में सबसे बड़ी सेंधमारी लगा रही है. हर आम खास बनते ही इन उम्मीदों में सेंधमारी शुरू कर दे रहा है. आज भी हर आम के दिलों में हजारों सवाल कुंडली मार कर बैठै हैं, बेचैन हैं फुंफकारने को. पर क्या करें, आम जिंदगी में सिनेमा की तरह लाजर्र दैन लाइफ लोग नहीं होते न. होते तो आज हर खास जिम्मेदारी और जवाबदेही के अहसास तले दबा होता. चाहे डर से ही सही, पर होता जरूर. डर इसलिए, क्योंकि हर खास कभी न कभी, कहीं न कहीं एक आम ही होता है. पर जबतक ये जल्दबाजी है, जिद है, आम इंसान यूंही अपनी उम्मीदों का दिया जलाता रहेगा और उन्हीं आम के बीच से निकला कोई खास उस उस दिये को बुझाता रहेगा. आज नहीं, कल नहीं, दस-पंद्रह साल बाद भी..
पर तबतक देश के जागने की उन्हीं उम्मीदों के ढेर पर बैठा मै भी अपने अंदर के आम आदमी की टीस पर आपके सिनेमा का मरहम लगाकर खुश हो रहा हूं. अपने अंदर के उबाल को ये कहानी सुनाकर सूलाने की कोशिश कर रहा हूं. क्योंकि ठीक ही कहा था आपने कि बाज चूजे पर झपटा, उठा ले गया, कहानी सच्ची लगती है पर अच्छी नहीं लगती. बाज पर पलटवार हुआ, कहानी सच्ची नहीं लगती, लेकिन खुदा कसम बहुत अच्छी लगती है.