दिल
की बात..
पंद्रह
साल भी कम पड़ेगे इरफान,
क्योंकि
लोग अब भी सब जानते हैं..
सच,
दाद
देता हूं आपकी क ोशिशों क
ी,उम्मीदों
की.
पता
है!
जाने
कब से मै भी उन्हीं उम्मीदों
के ढेर पर खड़ा हूं.
पर
यकीन मानिए इरफान,
पंद्रह
साल भी कम पड़ेंगे,
क्योंकि
लोग अब भी सब जानते हैं.
पर
क्या करें,
यहां
सबको जल्दी है.
अफसोस
उन्हें जल्दी नहीं है आगे जाने
की,
बल्कि
जल्दी है बाकियों को पीछे छोड़
जाने की.
उन्हें
जल्दी नहीं है अपने जीत जाने
की,
जल्दी
है तो बस बाकियों को हराने की.
और
तो और उन्हें ये भी जल्दी नहीं
है अपने खुशियों की इमारतों
पर खड़े हो दो पल चैन और सुकून
के बिताने की,
उन्हें
जल्दी और जिद है तो बस ऊंची
अट्टालिकाओं पर खड़े हो बाकियों
को नीचा दिखाने की.
यहां
किसी को जल्दी नहीं है देश
बचाने की,
जल्दी
है तो बस..
औरों
के दर्द पर अपने मतलब का महल
बनाने की.
और
यही जल्दबाजी,
यही
जिद आपकी उम्मीदों में सबसे
बड़ी सेंधमारी लगा रही है.
हर
आम खास बनते ही इन उम्मीदों
में सेंधमारी शुरू कर दे रहा
है.
आज
भी हर आम के दिलों में हजारों
सवाल कुंडली मार कर बैठै हैं,
बेचैन
हैं फुंफकारने को.
पर
क्या करें,
आम
जिंदगी में सिनेमा की तरह
लाजर्र दैन लाइफ लोग नहीं होते
न.
होते
तो आज हर खास जिम्मेदारी और
जवाबदेही के अहसास तले दबा
होता.
चाहे
डर से ही सही,
पर
होता जरूर.
डर
इसलिए,
क्योंकि
हर खास कभी न कभी,
कहीं
न कहीं एक आम ही होता है.
पर
जबतक ये जल्दबाजी है,
जिद
है,
आम
इंसान यूंही अपनी उम्मीदों
का दिया जलाता रहेगा और उन्हीं
आम के बीच से निकला कोई खास उस
उस दिये को बुझाता रहेगा.
आज
नहीं,
कल
नहीं,
दस-पंद्रह
साल बाद भी..
पर
तबतक देश के जागने की उन्हीं
उम्मीदों के ढेर पर बैठा मै
भी अपने अंदर के आम आदमी की
टीस पर आपके सिनेमा का मरहम
लगाकर खुश हो रहा हूं.
अपने
अंदर के उबाल को ये कहानी सुनाकर
सूलाने की कोशिश कर रहा हूं.
क्योंकि
ठीक ही कहा था आपने कि बाज चूजे
पर झपटा,
उठा
ले गया,
कहानी
सच्ची लगती है पर अच्छी नहीं
लगती.
बाज
पर पलटवार हुआ,
कहानी
सच्ची नहीं लगती,
लेकिन
खुदा कसम बहुत अच्छी लगती है.
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