Saturday, May 13, 2017

फिल्म समीक्षा

             वक्त के लिहाज से काफी पीछे सरकार 3

सत्या और कंपनी जैसी फिल्मों के जरिये रामगोपाल वर्मा ने सन् 2000 के आस-पास अपनी एक अलग पहचान बनायी थी. तब के समय में रामू अंडरवर्ल्ड जोनर की फिल्मों के मास्टर माने जाते थे. पर वक्ती तौर पर सिनेमायी अभिव्यक्ति और तकनीकी बदलाव के अभाव में वो मुख्यधारा से दूर होते चले गये. सरकार 3 एक बार फिर उसी धारा में लौटने की उनकी औसत कोशिश है. तकरीबन बीस साल बाद जहां सिनेमा हर मोर्चो पर बदलाव के साथ विकास कर गया रामू आज भी कैमरा, लाइटिंग, साउंड और कथ्य के साथ अपनी उसी दुनिया में विचरते नजर आते हैं. जिसकी कई झलक आपको इस फिल्म के दौरान देखने को मिल जाएगी. एक मजबूत स्टार क ास्ट के बावजूद फिल्म सतही साबित होती है. कुछ राहत दे जाता है तो सरकार के किरदार में अमिताभ और उनका साथ देते अमित साध, मनोज बाजपेयी, रोनित रॉय और जैकी श्रफ की अदाकारी.
दोनों बेटों विष्णु और शंकर की मौत के बाद सरकार उर्फ सुभाष नागरे(बाल ठाकरे) के तेवर और तल्ख हो चले हैं. सीएम पर अभी भी उसकी पकड़ बनी हुई है. बावजूद इसके अब वो अपनी बीमार प}(सुप्रिया पाठक) की तीमारदारी में ज्यादा वक्त देने लगा है. जिसकी वजह से उसका काम देख रहे भरोसेमंद गोकुल(रॉनित रॉय) और रमण (पराग)का कद इस राज्य में बढ़ चुका है. दूसरी ओर सरकार के समानांतर अपनी साम्राज्य स्थापित करने के लिए राजनीतिज्ञ गोविंद देशपांडे(मनोज बाजपेयी) और बिजनेसमैन माइकल (जैकी श्रफ) जैसे लोग लगे हुए हैं. वे अलग-अलग चालों से सरकार के साम्राज्य का वर्चस्व खत्म करने की क ोशिश में हैं. ऐसे माहौल में कहानी में इंट्री होती है सरकार के पोते चीकू (अमित साध) की. दूसरी ओर कहानी में अनु (यामी गौतम) जैसे किरदार भी हैं जिसे अपने पिता के क ातिलों की तलाश है.
फ्रेंचाइजी की बाकी दो फिल्मों की तरह इस फिल्म में भी अमिताभ अभिनय के नये आयामों के साथ नजर आते हैं. परदे पर उनकी हर उपस्ििथत मुग्ध करती है. मनोज बाजपेयी, रॉनित रॉय, अमित व जैकी भी अदाकारी के स्तर पर परफेक्ट नजर आते हैं. पर कैमरा वर्क, डायरेक्शन आदि उम्दा होने के बावजूद रिपीटेड नजर आता है. नये फिल्मकारों और नये नजरिये के रेस में बने रहने के लिए राम गोपाल वर्मा को भी अपनी तकनीक और क्रियेटिविटीक के स्तर पर खुद को तराशना होगा. वरना सब उम्दा होते हुए भी परिणाम सरकार 3 की तरह औसत ही निकलेगा.


फिल्म समीक्षा

                लव और लाइफ के बीच झुलती मेरी प्यारी बिंदू
निर्देशक अक्षय रॉय की फिल्म मेरी प्यारी बिंदू की अहमियत कई मायनों में इससे जुड़े लोगों के लिए खास है. एक ओर जहां यह अक्षय की पहली फिल्म है वहीं मुख्य कलाकार आयुष्मान खुराना और परिणिती चोपड़ा के लिए इस वजह से कि उन्हें अरसे से एक हिट की तलाश है. आयुष्मान की पिछली हिट यशराज के बैनर तले ही दम लगा के हइसा रही थी. छोटे बजट की मेरी प्यारी बिंदू इस लिहाज से कुछ हद तक खरी उतरती है. अस्सी-नब्बे के दशक का कलकत्ता, आरडी बर्मन का संगीत, लता-आशा-किशोर-रफी का संगीत और बचपन के परिवेश की कुछ खट्टी-मीठी यादें ही फिल्म को खास बनाती है. बावजुद इसके प्रेम कहानी के स्तर पर प्रेम की क शिश में दर्शकों को बांध सकने में अक्षय की कोशिश चूक सी गयी है.
मुंबई में रहने वाला अभिमन्यु(आयुष्मान खुराना) एक क ामयाब नॉवेलिस्ट है. पर पिछले कुछ सालों से उसकी कोई नॉवेल पाठकों और पब्लिशर्स को आकर्षित करने में क ामयाब नहीं हो पायी थी. और जैसा कि अमुमन होता है अच्छी रचना की तलाश लेखक को उसके बचपन में लौटा ले जाता है, अभिमन्यु भी इसी कोशिश में क ोलकाता लौटता है. और उसके साथ उसकी कहानी फ्लैशबैक के जरिये बचपन में जाती है. जहां उसके पड़ोस में रहने वाली नन्हीं बिंदू थी और साथ थे समोसे-चटनी और रोमांटिक गानों के साथ उन दोनों के बीच पनपी दोस्ती. वक्त के साथ यह दोस्ती अभिमन्यु के एकतरफा प्यार में तब्दील हो जाता है. बिंदू एक क ामयाब सिंगर बनना चाहती थी. घटनायें कुछ ऐसा मोड़ लेती हैं कि बिंदू अपना घर छोड़ कर भाग जाती है. अकेलेपन से जुझता अभिमन्यु आगे की पढ़ाई के लिए साऊथ चला जाता है. दूसरी ओर बिंदू भी देश-विदेश भटकती गोवा पहुंच जाती है जहां उसकी मुलाकात वापस अभिमन्यु से होती है. अब दोनों एक-दूसरे के सामने होते हैं और साथ में होती है दोनों की महत्वकांक्षाएं. बिंदू को सिंगिंग प्लेटफार्म की तलाश है वहीं अभिमन्यू की चाहत राइटर बनने की है. दोनों के बीच की बांडिंग और उनकी महत्वकांक्षाए उन्हें किस अंजाम तक ले जाती हैं इसका मुजायरा आप थियेटर में करें तो ही बेहतर होगा.
फिल्म की कहानी भले क ागज पर आपको आकर्षित करती नजर आये पर थियेटर में प्यार और दोस्ती के घालमेल के बीच झुलती यह फिल्म कई जगहों पर उबाती भी है. प्यार को क ायदे से अमली जामा पहनाने में अक्षय भटके से नजर आते हैं. फिरभी अस्सी-नब्बे के दशक की फील से सजी फिल्म आपको स्कूल-कॉलेज के दिनों के कई खूशनुमा पलों की याद दिला देगा. बेहतरीन लोकेशंस और कैमरावर्क से सजी फिल्म आयुष्मान और परिणिती की केमिस्ट्री के लिए भी देखे जाने लायक है. आयुष्मान फिल्म दर फिल्म अपनी रेंज में इजाफा करते जा रहे हैं. दम लगा के हइशा के बाद यहां भी उनकी अदायगी सराहनीय है. परिणिती थोड़ी चौंकाती जरूर हैं पर अभी उन्हें रेस में आगे जाने के लिए क ाफी लंबा सफर तय करना पड़ेगा.



Saturday, May 6, 2017

                 अपनी नजरों में खूद को साबित करना है

बिहार के डूमरांव का एक लड़का हायर एजूकेशन के लिए जयपुर जाता है. मेहनत के बलबूते बंगलुरू में इंजीनियर बन जाता है. पर मन के अंदर माटी से जूड़ने की ललक ऐसी कि प्रतिष्ठा भरी नौकरी ठुकराकर सिनेमा की दुनिया में खूद को साबित करने निकल पड़ता है. माटी की सोंधी खुशबू लिए शार्ट फिल्म ललका गुलाब बनाता है और देखते-देखते भोजपुरी उत्थान के लिए संघर्षरत्त लोगों का अगुआ बन जाता है. कुछ ऐसी ही फिल्मी स्क्रिप्टनुमा कहानी है अमित मिश्र की.
आज जहां भोजपुरी सिनेमा दिन ब दिन अपनी साख खोता जा रहा है वहीं कुछ ऐसे लोग भी हैं जो उस गरिमा को बचाने की जद्दोजहद में खुद को झोंक रहे हैं. ऐसा ही एक नाम है अमित मिश्र का. इंजीनियरिंग की प्रतिष्ठित नौकरी को धत्ता बताते हुए अमित ने भोजपुरी सिनेमा को उसकी असली पहचान दिलाने का जो बीड़ा उठाया है, फिल्म ललका गुलाब उसकी शुरुआत भर है. और उम्मीद व हौंसले से लबरेज उनकी आंखों की चमक इस बात का इशारा है कि भोजपुरी सिनेमा का कल निश्चित ही गरिमामयी व सूनहरा होने वाला है. प्रभात खबर के गौरव से बातचीत में अमित ने इसी सूनहरे भविष्य को ले अपना यकीन शब्दों की शक्ल मे साझा किया.

- इंजीनियरिंग का लड़का बीईएल (भारत इलेक्ट्रॉनिक्स लिमिटेड) की प्रतिष्ठित नौकरी छोड़ अनिश्चितताओं भरी दुनिया में संभावना तलाशता है. क्या वजह रही इस उलट-फेर की?
- शुरू में मुङो भी थोड़ा डर लगा. पर घर में सबसे छोटा होने की वजह से मुङो हमेशा घरवालों का सपोर्ट मिला. यूं कह लीजिए बचपन से छोटे होने का भरपूर फ ायदा उठाया. फिल्मों में जाने का डिसीजन लेते वक्त भी जब घरवालों का पूरा सहयोग मिला तो वो डर बिलकुल खत्म हो गया. संघर्ष की संभावना थोड़ी कम हुई. जहां तक उलट-फेर के वजह की बात करूं तो बिहारी शब्द ने मुङो इस फ ील्ड मे ला दिया. घर से पढ़ाई के लिए बाहर निकलने से लेकर नौकरी करते वक्त तक ये शब्द मैं लोगों के जुबान से गाली के रूप मे सुनता रहा. बचपन से बिहारी शब्द सुनकर जिस गर्व का भान होता था बाहर निकलते वो गर्व चकनाचुर हो गया. हर पल मुङो लगता क्या करूं कि बाहर भी बिहारी शब्द को ले वहीं गरिमा बनी रहे. मन में हमेशा एक उथल-पुथल रहता था. उस धारणा को तोड़ने के ख्याल ने मुङो इस फ ील्ड में खींच लिया. आगे चलकर जब आखर के संपर्क में आया तो लगा कि भोजपुरी सिनेमा के जरिये कुछ ऐसा करना है जिससे बाहरी लोगों के मन में इस शब्द के लिए सम्मान जगा सकूं.
- फिर शुरुआत कैसे हुई?
- फैमिली के परमिशन से जॉब छोड़ने के बाद ख्याल आया कि अगर मैं फिर से फिल्म की पढ़ाई शुरू करूं तो काफी लंबा वक्त लगेगा. क्योंकि इंजीनियरिंग में मैं चार साल खपा चुका था. तब सोचा क्यूं ना मैं काम करके ही सीखूं. फिर मैंने प्रेक्टिकल नॉलेज के लिए काफी काम किया. तीन साल तक शार्ट फिल्म्स, फ ीचर और ड ाक्यूमेंट्रिज, ऐड फिल्म्स व क ॉरपोरेट विडियोज के लिए काम किया. सिनेमा के हर विभाग के हर पहलू का बारीकी से अध्ययन किया. तब जाकर मैंने जनवरी 2016 में खुद की एक शार्ट फिल्म बनायी अंडर द रॉक. उस फिल्म को देखने के बाद अश्विनी रूद्र ने मुङो क ॉल किया और पांच पन्ने की अपनी एक कहानी पर फिल्म बनाने को कहा. फ ाइनेंस भी वो खुद ही कर रहे थे. यहीं से ललका गुलाब की शुरुआत हुई.
- क्या है ललका गुलाब?
- अश्विनी रुद्र की ये कहानी हम सब को वापस अपने फैमिली वैल्यूज के इर्द-गिर्द ले जाती है. डेवलमेंट के चक्कर में हम अपनी जिन जड़ों से मुंह मोड़ आए थे ये उसी की कहानी है. बिहार से बाहर केवल देश ही नहीं विदेशों में रहने वाले बिहारी भी इस फिल्म को देखकर उससे खुद को कनेक्ट कर रहे हैं. फिल्म देखकर अमेरिका और कई जगहों से आए मैसेजेज इस बात के प्रमाण हैं.
- आपने आखर की बात की. इसके बारे में कुछ बताएं ?
- आखर का मुख्य उदेश्य है भोजपुरी साहित्य और इसकी विरासत को लोगों तक पहुंचाना. एगो डेग भोजपुरी साहित्य खातिरइस उदेश्य के साथ आखर हर उस शख्स को अपना कंधा देता है जो भोजपुरी के विकास के लिए किसी तरह के अच्छे क ामों के जरिये प्रय}शील हैं. यह मैगजीन और फेसबुक पेज के जरिये देश-विदेश में लोगों तक भोजपुरी साहित्य को पहुंचाता है. आज के समय में आखर के सिवा शायद ऐसा कोई प्लेटफार्म नहीं है जो भोजपुरी के उत्थान के लिए इस स्तर पर प्रयासरत है. आज आखर के संपर्क का ही परिणाम है कि मैं भोजपुरी को ले इतना आशान्वित हूं.
- आज जब भोजपुरी सिनेमा बाजार और ईलता का पर्याय बन चुका है, ऐसे में धारा के विपरीत चलते हुए आप कितने आशान्वित हैं?
- सच कहा आपने कि भोजपुरी सिनेमा का मतलब आजकल ईलता के अलावा कुछ नहीं रह गया है. कहानी और गानों का स्तर इतना गिर चुका है कि सुधी दर्शक खासकर महिलाएं अब भोजपुरी सिनेमा की बात ही भूल चुकी हैं. ऐसे में मेरा रास्ता थोड़ा मुश्किल जरूर है पर असंभव तो बिलकुल नहीं. इसीलिए मैं पहले शार्ट फिल्म्स के जरिये दर्शकों के मन में भोजपुरी की वो धारणा तोड़ने की कोशिश में हूं कि यहां अच्छी फिल्में नहीं बनती. मैं फिर से वो ऑडियंस क्रियेट कर रहा हूं जो इस दुनिया से किनारा कर चुकी है. धीरे-धीरे ही सही पर एक बार जब मैं लोगों के मन में यह बात बैठा दूं कि भोजपुरी अपनी गरिमा के रास्ते लौट चुकी है फिर मैं थियेटर के लिए फिल्में बनाने की शुरुआत करूंगा. तब सही वक्त होगा जब मैं अच्छी फिल्में बनाकर निर्माताओं को उनका पैसा वसूल करवा सकूंगा. पर थोड़ी मदद तो सरकार, दर्शक और मीडिया से भी चाहिए ताकि भोजपुरी सिनेमा के अच्छे दिन जल्द आ सकें.
- पहली बार सिनेमा का आकर्षण कब महसूस किया?
- 2010 की बात है, तब मैं थर्ड इयर का स्टूडेंट था. क ॉलेज के कल्चरल इवेंट्स और स्टेज परफार्म में पार्ट लेता था. गाने-वाने भी ठीक-ठाक गा लेता था. यहीं से सिनेमा के आकर्षण का वो बीज पनपा. फिर कुछ दिनों में लगा गाने के बजाय कहानी लिखकर उन्हें स्टेज प्ले के जरिये लोगों तक ले जाने में मुङो कुछ करना चाहिए. पर पढ़ाई खत्म होते ही नौकरी की आपाधापी में वो इच्छा दबकर रह गयी. लेकिन कहते हैं ना, होता वही है जो नियति में हो. दस से चार की नौकरी ने कुछ ही दिन में बोर कर दिया. अंदर का कलाकार रह-रह कर हिलोर मारने लगा. और कुछ ही वक्त में मन के विद्रोह ने सिनेमा के फील्ड में ला पटका. अब समस्या यह थी कि यहां मुङो लोगों के सामने नहीं खुद को खुद के सामने प्रूव करना था. क्योंकि मैं अपनी मर्जी से गवर्नमेंट जॉब (आकाश मिसाइल बनाने वाली टीम के जुनियर इंजीनियर) छोड़कर आया था. तो मुङो खुद को ही प्रूव करना था कि मेरा डिसीजन गलत नहीं है. और यही बात मेरे मोटिवेशन का सबसे बड़ा क ारण बनी.
- इस फील्ड में और भी अमित मिश्र जैसी प्रतिभाओं को सही मंच मिले इसके लिए कोई प्लानिंग है मन में?
- देखिए अभी मेरे पास छ: ऐसी कहानियां हैं जिनपर मैं फिल्म बनाने वाला हूं. मैं तो चाहूंगा कि नयी प्रतिभाएं मेरे साथ जुड़ें. अगर मैं साल में दो फिल्में बनाता हूं और दस लोग भी मुझसे जूड़ते हैं तो हम मिलकर साल में कम से कम पंद्रह से बीस फिल्में बना सकते हैं. तब सुधार की गति दस गूनी बढ़ जाएगी. और हम जल्द ही भोजपूरी को उसकी असली पहचान दिला पाएंगे. जहां तक सहयोग की बात है तो हर वक्त मेरी मौजूदगी नयी प्रतिभाओं के लिए खूली है. आप आएं और एक साथ एक सोच से एक दिशा में काम करें.
- युवा प्रतिभाओं के लिए कोई मंत्र?
- देखिए अगर इस फ ील्ड में केवल पैसा कमाना आपका ध्येय है तो फिर आप बाकी लोगों के जैसे अपनी मरजी का कुछ भी बनाएं. लेकिन अगर सच्चे मन से पॉजिटिव सफलता चाहते हैं तो एक ही मुलमंत्र याद रखें भोजपुरी. इसकी गरिमा, संस्कृति और उत्थान के लिए मेहनत करते रहें और यकीन मानिए आपकी वो मेहनत आपको एक दिन काफी ऊंचाई तक ले जाएगी.


इंटरव्यू: अलंकृता श्रीवास्तव

            जिद अपनी शर्तो पर जीने की..

क ामयाब इंसान कुछ अजुबा नहीं करते. वो वही करते हैं जो बाकी सब करते हैं. बस उनके काम करने का तरीका अलग होता है. धारा के विपरीत चुनौतियों को स्वीकार कर जिद और जज्बे के दम पर ही वो कामयाबी हासिल कर पाते हैं. कुछ ऐसी ही कहानी है पिछले दिनों अपनी फिल्म की वजह से चर्चा में रहीं निर्देशक अलंकृता श्रीवास्तव की. प्रभात खबर के गौरव से खास बातचीत में उन्होंने अपनी जर्नी, विरोध की मानसिकता और भीड़ से अलग अपनी पुख्ता पहचान बनाने के जूनून को बेबाकी से साझा किया.

पिछले दिनों एक फिल्म अपने कंटेट व ट्रीटमेंट के चलते सेंसर बोर्ड से बैन किये जाने के क ारण काफी चर्चा में रही. फिल्म थी लिपस्टिक अंडर माय बुर्का. अलंकृता श्रीवास्तव की यह फिल्म अपने बोल्ड कंटेट और संवादों की वजह से सेंसर बोर्ड से खारिज कर दी गयी. पर फिल्म के जरिये औरतों के ख्वाहिशों की वकालत करती अलंकृता ने हार नहीं मानी. आखिरकार सेंसर बोर्ड के खिलाफ उनकी लड़ाई रंग लायी और विदेशी फिल्म फेस्टिवल्स में पहले ही सराही जा चुकी इस फिल्म को इंडियन फिल्म सर्टिफिकेशन एपेलेट ट्रिब्यूनल ने रिलीज की अनुमति दे दी. लेडी श्रीराम कॉलेज व जामिया मिलिया इस्लामिया यूनिवर्सिटी से पढ़ाई कर चुकी अलंकृता शुरू से ही अपने विद्रोही तेवर और फेमिनिज्म को लेकर अलग सोच की वजह से चर्चित रही. इसी अलहदा सोच की वजह से आगे चलकर उन्हें प्रकाश झा के प्रोडक्शन हाऊस के साथ काम करने का मौका भी मिला.
- पहले टर्निग 30 और अब लिपस्टिक अंडर माय बुर्का. आउटसाइडर होने के बावजूद शुरुआत में ही ऐसी लीक से हटकर या यूं कहें कंट्रोवर्शियल सब्जेक्ट चुनने के पीछे क्या वजह रही?
- देखिए मैंने ये सोचकर नहीं बनाया कि सब्जेक्ट कंट्रोवर्सी क्रियेट करेगी या फिर इन सब बातों से मुङो किसी टाइप की हाइप मिलेगी. मैंने शुरू से वही काम किया जिसने मुङो अंदर से कुरेदा. मैं जो कहना चाहती हूं उसे ही कहानी में पिरो देती हूं. स्कूल-कॉलेज के दिनों से ही मैं हर दिन लड़कियों और औरतों को लिंगभेद की भेंट चढ़ते देख रही हूं. राह चलते, वर्किग प्लेस पर या पर्सनल लाइफ में, हर जगह स्त्री इस भेदभाव का शिकार होती है. और ये मुङो हरवक्त कचोटता रहा. फिर मुङो जैसे ही फिल्मों के जरिये अपनी बात कहने का मौका मिला वो व्याकुलता सिनेमा की शक्ल में बाहर आ गयी. अपनी बात कहने में क्या डिफिकल्टीज आएंगी, कौन विरोध करेगा, इसकी कभी परवाह ही नहीं की. क्योंकि मैं उनमें से नहीं हूं जो क ठिनाइयों की वजह से अपना रास्ता बदल दे.
- क्या वजह मानती हैं कि लिपस्टिक अंडर माय बुर्का जैसी फिल्में विदेशों में तो सराहना पा जाती हैं पर अपने ही देश में स्क्रीन के लिए तरस जाती हैं?
- सब नजरिये का दोष है. हमारे देश में एक माइंडसेट सदियों से है. पुरूषवादी सोच की वजह से हमारा दायरा संकुचित हो चुका है. सोच की इस दहलीज को लांघने की हिम्मत अगर किसी ने की तो पूरा समाज उसकी टांगखिंचाई में लग जाता है. सिनेमा के मामले में भी यही है. पुरूषों के नजरिये से इतर कोई कहानी उनके अभिमान को ठेस पहुंचाती हैं. वो ये चाहते ही नहीं कि औरतें भी अपनी कहानी कहे. सेंसर बोर्ड की सोच काफी मेल सेंट्रिक है. जबतक यह नजरिया नहीं बदलेगा स्थिति में बदलाव नहीं होगा.
- आपने कहीं कहा भी था कि इंडिया इज अ डिफिकल्ट कंट्री फ ॉर वूमन. पर इसी सोसायटी से कई अलंकृता श्रीवास्तव भी उभर कर आ जाती है? फिर सोच में ऐसी तल्खी क्यों?
- यकीन मानिये, हर अलंकृता आज भी अपनी जिद के दम पर लड़कर ही खड़ी होती हैं. मैं आज भी अपने स्टेटमेंट पर क ायम हूं. यहां हर ओर सेक्सूअल हेरासमेंट और डिस्क्रीमिनेशन जैसी बातें औरतों की जिंदगी का हिस्सा बन चली है. औरतों के खिलाफ केवल फिजीकल स्तर पर ही नहीं सोच के स्तर पर भी इतना वायलेंस है कि मेट्रोज तक में भी महिलायें अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए लड़ रहीं हैं.
- फेमिनिज्म को लेकर पर्सनली आपके या फिर आपके किरदारों के अंदर का जो विक्षोभ, विद्रोह या उबाल है, इसकी बीज कहां पड़ गयी?
- एक्जेक्टली तो नहीं कह सकती पर शायद मेरी परवरिश ही ऐसी हुई है कि कुछ गलत होता हुआ एक्सेप्ट ही नहीं कर पाती. पैरेंट्स ने मुङो हमेशा ऐसे किसी भेदभाव से दूर रखा सो मेल डोमिनेटिंग टेंडेसी को आसानी से पचा नहीं पाती. दिल्ली जैसे शहर में पलते-बढ़ते इतनी विकृतियां देख चुकी हूं कि अंदर विद्रोह का ज्वालामुखी बन चुका है, जो वक्त-वक्त पर फूटता रहता है. और फूटे भी क्यों ना, हर कदम पर भेदभाव का ऐसा मंजर, ऐसा जाल कोई कबतक ङोल पाएगा. हमें भी हक है अपनी बात कहने का, अधिकारों के लिए लड़ने का.
- थोड़ा फ्लैश बैक में चलते हैं, बिहार से मुंबई तक की संक्षिप्त जर्नी क्या रही?
- पिताजी बिहार कैडर से आएएस थे. वो मुल रूप से दरभंगा से बिलॉंग करते थे. बचपन में मुङो बिहार के कई शहरों मसलन बेगुसराय, भागलपुर, मुंगेर और पटना में रहने का मौका मिला. नौ साल की उम्र में मेरा दाखिला बोर्डिग स्कूल देहरादून में हो गया. फिर कुछ वक्त बाद पैरेंट्स पटना से दिल्ली शिफ्ट हो गये. तब मैं भी हायर एजुकेशन के लिए दिल्ली आ गयी. लेडी श्रीराम क ॉलेज और जामिया मिलिया से पढ़ाई करने के बाद मुंबई आ गयी. यहां मुङो प्रकाश झा जी को असिस्ट करने का मौका मिला. गंगाजल और अपहरण आदि में उन्हें असिस्ट करने के बाद दिल दोस्ती इटीसी और खोया-खोया चांद में बतौर एक्जीक्यूटिव प्रोडय़ूसर काम किया. और फिर टर्निग 30 के जरिये निर्देशन की शुरुआत की.
- पहली बार कब लगा कि अलंकृता के अंदर एक फिल्ममेकर छुपा बैठा है?
- (हंसती हैं) यकीन नहीं करेंगे इसकी भी एक दिलचस्प स्टोरी है. ये आभास मुङो बोर्डिग स्कूल में ही हो गया था. हमारे स्कूल में सीनियर क्लासेज के लिए ऑडियो-विजूअल की क्लास होती थी. उन्हें पूरे साल के स्कूल एक्टीविटीज का ऑडियो-विजूअल बनाने का मौका भी मिलता था. वो विजुअल लगभग फिल्म फ ार्मेट में ही होता था, म्यूजिक और इफेक्ट्स के साथ. वहीं से मन में बात बैठ गयी कि मुङो भी फिल्में बनानी है. फिर जब सीनियर क्लास में गयी तो मैंने भी ऑडियो-विजुअल क्लास ज्वाइन कर ली. फिल्म बनाने का पहला अनुभव वहीं से मिला.
- फिल्मों में जाने के फैसले पर फैमिली रिएक्शन कैसा रहा ?
- फैमिली वाले हमेशा से सपोर्टिव रहे हैं. हां शुरू में उन्हें यकीन नहीं था कि मैं इसे सीरियसली ले रही हूं. मूंबई जाने की इजाजत तो दे दी पर उन्हें लगा एक-दो साल में मैं खुद ही वापस आ जाऊंगी. पर चार-पांच सालों के बाद जब मैं वहीं रम गयी तब उन्हें समझ आया कि मैं इस फ ील्ड को ले कितनी सीरियस हूं.
- पिछले कुछ वषों में काफी नये-नये क ॉन्सेप्ट पर लीक से हटकर फिल्में बन रही हैं. ऐसी फिल्मों का कैसा भविष्य देखती हैं?
- हां ये सही है कि सिनेमा के लिए यह सुनहरा दौर है. नये-नये युवा डिफरेंट आयडियाज के साथ आ रहे हैं. पर फिल्मकारों के साथ-साथ दर्शकों की भी जिम्मेदारी बनती है. नये विषय और बने-बनाये र्ढे से हटकर उम्दा फिल्म को फ ाइनेंशियल सपोर्ट मिलेगा तभी ऐसी फिल्में आगे बनेंगी. इकोनोमिकली सपोर्ट और उम्दा सोच के सामंजस्य से ही बेहतर सिनेमा का भविष्य उज्‍जवल रहेगा. पहला तो दर्शकों के ही हाथ है, बाकी हम तो अपना काम कर ही रहे हैं.
- बिहार से हैं तो बिहार के बैकड्रॉप पर कोई फिल्म बनाने का विचार है?
- ऐसा कोई क ॉन्सेप्ट अभी सामने आया नहीं है. केवल बिहार के नाम पर कुछ भी बना देने का कोई मतलब नहीं है. मैंने बिहार के सांस्कृतिक विरासतों पर डाक्यूमेंट्री बनायी है. जिस दिन मुङो बिहार के बैकड्रॉप पर क ोई उम्दा आयडिया आयेगा फिल्म जरूर बनाऊंगी.
- देश में कई लड़कियां भविष्य में अलंकृता बनने का ख्वाब पाले बैठी हैं. ऐसी लड़कियों के लिए कोई संदेश.
- सपने देखो. दूसरों के ख्वाब अपनी आंखों में बसाने के बजाय खूद के ख्वाब बूनो. लड़ो. मेहनत करो और खुद के दम पर जीत हासिल करो.