जिद
अपनी शर्तो पर जीने की..
क
ामयाब इंसान कुछ अजुबा नहीं
करते.
वो
वही करते हैं जो बाकी सब करते
हैं.
बस
उनके काम करने का तरीका अलग
होता है.
धारा
के विपरीत चुनौतियों को स्वीकार
कर जिद और जज्बे के दम पर ही
वो कामयाबी हासिल कर पाते हैं.
कुछ
ऐसी ही कहानी है पिछले दिनों
अपनी फिल्म की वजह से चर्चा
में रहीं निर्देशक अलंकृता
श्रीवास्तव की.
प्रभात
खबर के गौरव से खास बातचीत में
उन्होंने अपनी जर्नी,
विरोध
की मानसिकता और भीड़ से अलग
अपनी पुख्ता पहचान बनाने के
जूनून को बेबाकी से साझा किया.
पिछले
दिनों एक फिल्म अपने कंटेट व
ट्रीटमेंट के चलते सेंसर
बोर्ड से बैन किये जाने के क
ारण काफी चर्चा में रही.
फिल्म
थी लिपस्टिक अंडर माय बुर्का.
अलंकृता
श्रीवास्तव की यह फिल्म अपने
बोल्ड कंटेट और संवादों की
वजह से सेंसर बोर्ड से खारिज
कर दी गयी.
पर
फिल्म के जरिये औरतों के
ख्वाहिशों की वकालत करती
अलंकृता ने हार नहीं मानी.
आखिरकार
सेंसर बोर्ड के खिलाफ उनकी
लड़ाई रंग लायी और विदेशी
फिल्म फेस्टिवल्स में पहले
ही सराही जा चुकी इस फिल्म को
इंडियन फिल्म सर्टिफिकेशन
एपेलेट ट्रिब्यूनल ने रिलीज
की अनुमति दे दी.
लेडी
श्रीराम कॉलेज व जामिया मिलिया
इस्लामिया यूनिवर्सिटी से
पढ़ाई कर चुकी अलंकृता शुरू
से ही अपने विद्रोही तेवर और
फेमिनिज्म को लेकर अलग सोच
की वजह से चर्चित रही.
इसी
अलहदा सोच की वजह से आगे चलकर
उन्हें प्रकाश झा के प्रोडक्शन
हाऊस के साथ काम करने का मौका
भी मिला.
-
पहले
टर्निग 30
और
अब लिपस्टिक अंडर माय बुर्का.
आउटसाइडर
होने के बावजूद शुरुआत
में ही ऐसी लीक से हटकर या यूं
कहें कंट्रोवर्शियल सब्जेक्ट
चुनने के पीछे क्या वजह रही?
-
देखिए
मैंने ये सोचकर नहीं बनाया
कि सब्जेक्ट कंट्रोवर्सी
क्रियेट करेगी या फिर इन सब
बातों से मुङो किसी टाइप की
हाइप मिलेगी.
मैंने
शुरू से वही काम किया जिसने
मुङो अंदर से कुरेदा.
मैं
जो कहना चाहती हूं उसे ही कहानी
में पिरो देती हूं.
स्कूल-कॉलेज
के दिनों से ही मैं हर दिन
लड़कियों और औरतों को लिंगभेद
की भेंट चढ़ते देख रही हूं.
राह
चलते,
वर्किग
प्लेस पर या पर्सनल लाइफ में,
हर
जगह स्त्री इस भेदभाव का शिकार
होती है.
और
ये मुङो हरवक्त कचोटता रहा.
फिर
मुङो जैसे ही फिल्मों के जरिये
अपनी बात कहने का मौका मिला
वो व्याकुलता सिनेमा की शक्ल
में बाहर आ गयी.
अपनी
बात कहने में क्या डिफिकल्टीज
आएंगी,
कौन
विरोध करेगा,
इसकी
कभी परवाह ही नहीं की.
क्योंकि
मैं उनमें से नहीं हूं जो क
ठिनाइयों की वजह से अपना रास्ता
बदल दे.
-
क्या
वजह मानती हैं कि लिपस्टिक
अंडर माय बुर्का जैसी फिल्में
विदेशों में तो सराहना पा जाती
हैं पर अपने ही देश में स्क्रीन
के लिए तरस जाती हैं?
-
सब
नजरिये का दोष है.
हमारे
देश में एक माइंडसेट सदियों
से है.
पुरूषवादी
सोच की वजह से हमारा दायरा
संकुचित हो चुका है.
सोच
की इस दहलीज को लांघने की हिम्मत
अगर किसी ने की तो पूरा समाज
उसकी टांगखिंचाई में लग जाता
है.
सिनेमा
के मामले में भी यही है.
पुरूषों
के नजरिये से इतर कोई कहानी
उनके अभिमान को ठेस पहुंचाती
हैं.
वो
ये चाहते ही नहीं कि औरतें भी
अपनी कहानी कहे.
सेंसर
बोर्ड की सोच काफी मेल सेंट्रिक
है.
जबतक
यह नजरिया नहीं बदलेगा स्थिति
में बदलाव नहीं होगा.
-
आपने
कहीं कहा भी था कि इंडिया इज
अ डिफिकल्ट कंट्री फ ॉर वूमन.
पर
इसी सोसायटी से कई अलंकृता
श्रीवास्तव भी उभर कर आ जाती
है?
फिर
सोच में ऐसी तल्खी क्यों?
-
यकीन
मानिये,
हर
अलंकृता आज भी अपनी जिद के दम
पर लड़कर ही खड़ी होती हैं.
मैं
आज भी अपने स्टेटमेंट पर क ायम
हूं.
यहां
हर ओर सेक्सूअल हेरासमेंट और
डिस्क्रीमिनेशन जैसी बातें
औरतों की जिंदगी का हिस्सा
बन चली है.
औरतों
के खिलाफ केवल फिजीकल स्तर
पर ही नहीं सोच के स्तर पर भी
इतना वायलेंस है कि मेट्रोज
तक में भी महिलायें अपने
अस्तित्व की रक्षा के लिए लड़
रहीं हैं.
-
फेमिनिज्म
को लेकर पर्सनली आपके या फिर
आपके किरदारों के अंदर का जो
विक्षोभ,
विद्रोह
या उबाल है,
इसकी
बीज कहां पड़ गयी?
-
एक्जेक्टली
तो नहीं कह सकती पर शायद मेरी
परवरिश ही ऐसी हुई है कि कुछ
गलत होता हुआ एक्सेप्ट ही नहीं
कर पाती.
पैरेंट्स
ने मुङो हमेशा ऐसे किसी भेदभाव
से दूर रखा सो मेल डोमिनेटिंग
टेंडेसी को आसानी से पचा नहीं
पाती.
दिल्ली
जैसे शहर में पलते-बढ़ते
इतनी विकृतियां देख चुकी हूं
कि अंदर विद्रोह का ज्वालामुखी
बन चुका है,
जो
वक्त-वक्त
पर फूटता रहता है.
और
फूटे भी क्यों ना,
हर
कदम पर भेदभाव का ऐसा मंजर,
ऐसा
जाल कोई कबतक ङोल पाएगा.
हमें
भी हक है अपनी बात कहने का,
अधिकारों
के लिए लड़ने का.
-
थोड़ा
फ्लैश बैक में चलते हैं,
बिहार
से मुंबई तक की संक्षिप्त
जर्नी क्या रही?
-
पिताजी
बिहार कैडर से आएएस थे.
वो
मुल रूप से दरभंगा से बिलॉंग
करते थे.
बचपन
में मुङो बिहार के कई शहरों
मसलन बेगुसराय,
भागलपुर,
मुंगेर
और पटना में रहने का मौका मिला.
नौ
साल की उम्र में मेरा दाखिला
बोर्डिग स्कूल देहरादून में
हो गया.
फिर
कुछ वक्त बाद पैरेंट्स पटना
से दिल्ली शिफ्ट हो गये.
तब
मैं भी हायर एजुकेशन के लिए
दिल्ली आ गयी.
लेडी
श्रीराम क ॉलेज और जामिया
मिलिया से पढ़ाई करने के बाद
मुंबई आ गयी.
यहां
मुङो प्रकाश झा जी को असिस्ट
करने का मौका मिला.
गंगाजल
और अपहरण आदि में उन्हें असिस्ट
करने के बाद दिल दोस्ती इटीसी
और खोया-खोया
चांद में बतौर एक्जीक्यूटिव
प्रोडय़ूसर काम किया.
और
फिर टर्निग 30
के
जरिये निर्देशन की शुरुआत
की.
-
पहली
बार कब लगा कि अलंकृता के अंदर
एक फिल्ममेकर छुपा बैठा है?
-
(हंसती
हैं)
यकीन
नहीं करेंगे इसकी भी एक दिलचस्प
स्टोरी है.
ये
आभास मुङो बोर्डिग स्कूल में
ही हो गया था.
हमारे
स्कूल में सीनियर क्लासेज के
लिए ऑडियो-विजूअल
की क्लास होती थी.
उन्हें
पूरे साल के स्कूल एक्टीविटीज
का ऑडियो-विजूअल
बनाने का मौका भी मिलता था.
वो
विजुअल लगभग फिल्म फ ार्मेट
में ही होता था,
म्यूजिक
और इफेक्ट्स के साथ.
वहीं
से मन में बात बैठ गयी कि मुङो
भी फिल्में बनानी है.
फिर
जब सीनियर क्लास में गयी तो
मैंने भी ऑडियो-विजुअल
क्लास ज्वाइन कर ली.
फिल्म
बनाने का पहला अनुभव वहीं से
मिला.
-
फिल्मों
में जाने के फैसले पर फैमिली
रिएक्शन कैसा रहा ?
-
फैमिली
वाले हमेशा से सपोर्टिव रहे
हैं.
हां
शुरू में उन्हें यकीन नहीं
था कि मैं इसे सीरियसली ले रही
हूं.
मूंबई
जाने की इजाजत तो दे दी पर
उन्हें लगा एक-दो
साल में मैं खुद ही वापस आ
जाऊंगी.
पर
चार-पांच
सालों के बाद जब मैं वहीं रम
गयी तब उन्हें समझ आया कि मैं
इस फ ील्ड को ले कितनी सीरियस
हूं.
-
पिछले
कुछ वषों में काफी नये-नये
क ॉन्सेप्ट पर लीक से हटकर
फिल्में बन रही हैं.
ऐसी
फिल्मों का कैसा भविष्य देखती
हैं?
-
हां
ये सही है कि सिनेमा के लिए यह
सुनहरा दौर है.
नये-नये
युवा डिफरेंट आयडियाज के साथ
आ रहे हैं.
पर
फिल्मकारों के साथ-साथ
दर्शकों की भी जिम्मेदारी
बनती है.
नये
विषय और बने-बनाये
र्ढे से हटकर उम्दा फिल्म को
फ ाइनेंशियल सपोर्ट मिलेगा
तभी ऐसी फिल्में आगे बनेंगी.
इकोनोमिकली
सपोर्ट और उम्दा सोच के सामंजस्य
से ही बेहतर सिनेमा का भविष्य
उज्जवल रहेगा.
पहला
तो दर्शकों के ही हाथ है,
बाकी
हम तो अपना काम कर ही रहे हैं.
-
बिहार
से हैं तो बिहार के बैकड्रॉप
पर कोई फिल्म बनाने का विचार
है?
-
ऐसा
कोई क ॉन्सेप्ट अभी सामने आया
नहीं है.
केवल
बिहार के नाम पर कुछ भी बना
देने का कोई मतलब नहीं है.
मैंने
बिहार के सांस्कृतिक विरासतों
पर डाक्यूमेंट्री बनायी है.
जिस
दिन मुङो बिहार के बैकड्रॉप
पर क ोई उम्दा आयडिया आयेगा
फिल्म जरूर बनाऊंगी.
-
देश
में कई लड़कियां भविष्य में
अलंकृता बनने का ख्वाब पाले
बैठी हैं.
ऐसी
लड़कियों के लिए कोई संदेश.
-
सपने
देखो.
दूसरों
के ख्वाब अपनी आंखों में बसाने
के बजाय खूद के ख्वाब बूनो.
लड़ो.
मेहनत
करो और खुद के दम पर जीत हासिल
करो.
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