बात
जब देशभक्ति की हो तो मतलब
दूश्मन को शह और मात देने से
होता है,
फिर
चाहे इसके लिए प्यादे के साथ-साथ
रानी को ही क्यों न कुर्बान
करना पड़े.
रुस्तम
का ये डायलॉग एक लाइन में फिल्म
का लब्बोलुआब बता जाता है.
पर
फिल्म का असली आनंद आप थियेटर
का रूख किये बगैर कतई नहीं ले
सकते.
निर्देशक
नीरज पांडे के अनुसार नानावटी
केस को आधार मानकर रची गयी ये
कहानी पटकथा की बूनावट के
अलावे अभिनय व साठ के दशके के
बॉम्बे(अब
मुंबई)
की
जीवंतता की वजह से भी देखे
जाने लायक है.
तत्कालीन
बॉम्बे की गलियां,
मकान,
गाड़ियों
और जीवनशैली के बखूबी चित्रण
के लिए रुस्तम की टीम बधाई की
हकदार है.
और
इन सब को अक्षय कुमार ने उम्दा
अभिनय के साथ पिरोकर फिल्म
की विश्वसनीयता बढ़ा दी है.
अक्षय
अब इस शैली के महारथी बनते जा
रहे हैं.
फिल्म
दर फिल्म किरदार विश्वसनीयता
के अनुरूप खुद को ढाल लेना
उनकी खूबी बन चुकी है.
रुस्तम
इसी कड़ी की नयी फिल्म है.
कहानी
साठ के दशक के नेवी ऑफिसर रुस्तम
पावरी(अक्षय
कुमार)
है.
महीनों
जहाज पर डय़ुटी होने की वजह से
उसे घर से दूर रहना पड़ता है.
ऐसे
ही एक बार अचानक उसे छह महीने
के लिए बाहर जाना पड़ता है.
रुस्तम
की अनुपस्थिति में उसकी प}ी
सिंथिया पावरी(इलियाना
डिक्रुज)और
उसके दोस्त विक्रम मखीज (अजर्न
बावजा)
के
बीच नजदीकियां बढ़ जाती है.
वक्त
से पहले छुट्टियों से लौट आने
पर रुस्तम को इस बात की खबर
मिल जाती है.
सिंथिया
उसे कुछ बताना चाहती है,
पर
इससे पहले रुस्तम गुस्से में
उसकी गोली मार कर हत्या कर
देता है.
और
खुद को पुलिस के हवाले कर देता
है.
रुस्तम
को सजा दिलाने के लिए विक्रम
की बहन प्रीति मखीजा(ईशा
गुप्ता)
वकील(सचिन
खेडेकर)
हायर
करती है.
रुस्तम
अपना केस खुद लड़ता है.
उसके
फेवर में एक न्यूजपेपर टेवल्वायड
के मालिक ईराच बिलिमोरिया(कुमुद
मिश्र)अखबार
के जरीये जनसमर्थन तैयार करते
हैं.
पब्लिक
फेवर और रुस्तम की आत्मरक्षा
में हुई हत्या की दलील पर जज
व जूरी उसे रिहा करने ही वाली
होती है तभी केस के इन्वेस्टिगेटिंग
ऑफिसर लोबो(पवन
मल्होत्र)
कुछ
ऐसे सबूत लाते हैं जिनसे रुस्तम
दोषी साबित हो जाता है.
इस
सबूत से और कई राज खुलते हैं
और ये केस साधारण मर्डर केस
न रहकर देश की सुरक्षा का रुख
अख्तियार कर लेता है.
फिल्म
अपने पहले हाफ में काफी कसी
हुई है.
दूसरा
हाफ इस कसावट में ढीलेपन व
फिल्म की लंबाई की वजह से थोड़ा
विचलित करता है.
पर
कोर्ट रूम के नाटकीय मजमे ने
इस कमी को भरसक भर दिया.
सह
कलाकारों का भी फिल्म को
अपेक्षित सहयोग मिला है.
अंतत:
फिल्म
दर्शकों के अक्षय कुमार की
सिनेमा वाली छवि पर खरी उतरती
है,
बस
फिल्म का संगीत मधुर होने के
बावजुद उस दौर के साथ न्याय
करने में असफल साबित होता है.
क्यों
देखें-
सस्पेंस-थ्रिल
के साथ अक्षय के फैन हों तो
फिल्म आपके लिए है.
क्यों
न देखें-
अक्षय
को ले किसी एक्शन फिल्म की
उम्मीद में हों तो.
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