Saturday, February 25, 2017

फिल्म समीक्षा

                मैदान--जंग में पनपते प्यार की कहानी रंगून

विशाल भारद्वाज की अपनी एक शैली है. उनकी नाट्य शैली की फिल्में जब गुलजार के क ाव्यात्मक शैली में घूल-मिल जाती है तो अलग तरह का प्रभाव पैदा करती हैं. कमीने और हैदर के बाद वही प्रभाव रंगून में देखने को मिलता है. द्वितीय विश्वयुद्ध के वक्त जापानी और इंगलैंड के वार की पृष्ठभूमि पर बनी रंगून विषय की संजीदगी की वजह से आकर्षित करती है. कमी बस यूद्ध और प्रेम प्रसंगों के बीच समन्वय बनाने के चक्कर में दोनों ही विषयों से उपयुक्त न्याय नहीं कर पाने की रह जाती है. और और आखिर में दर्शकों की उम्मीदें युद्ध की वीभत्सता और प्रेम की व्याग्रता दोनों से अधूरी रह जाती है.
कहानी फिल्म अभिनेत्री मिस जुलिया(कंगना रनौत) की है. बंजारन ज्वाला देवी से एक क ामयाब अभिनेत्री जुलिया बनाने के एवज में प्रोडय़ूसर रूसी विलिमोरिया(सैफ अली खान) ने अपनी रखैल बना रखा था. जुलिया की ख्वाहिश थी कि किसी रोज उसे मिसेज विलिमोरिया के नाम से जाना जाये. इसके लिए वो रूसी को इमोशनल तरीके से तैयार करती है. दूसरी ओर अंग्रेज अधिकारी हार्डी जापानी सेना से युद्ध को ले परेशान है. जापानी सेना से जंग में थक चुकी भारतीय सेना के मनोरंजन के लिए वो जुलिया को बार्डर पर भेजना चाहता है. सुरक्षा कारणों से पहले तो रूसी और जुलिया इसके लिए राजी नहीं होते पर हार्डी के आश्वासन पर रजामंदी दे देते हैं. जुलिया की सुरक्षा जिम्मेदारी अंग्रेजी सेना के भारतीय जवान नवाब मलिक(शाहिद कपूर) को सौंपी जाती है. बार्डर पर जाते वक्त अचानक जापानी सेना का हवाई हमला होता है, जिसमें जुलिया और मलिक टोली से दूर हो जाते हैं. वापसी की राह तलाशते दोनों की नजदीकियां बढ़ती हैं. वापसी के बाद रूसी को दोनों के बीच पनपे प्रेम का भान होता है. प्रेम में चोट खाये रूसी की भावनाएं नफरत में बदलती हैं, तभी अंग्रेजी सेना में आइएनए (आजाद हिंद फ ौज) के जासूस होने की बात पता चलती है. हार्डी और रूसी इसके तह तक जाने की कोशिश करते हैं जिसमें कई नाटकीय घटनाएं सामने आती हैं.
प्रेम त्रिकोण व भावनात्मक ऊहापोह समेटे कहानी का पहला हाफ काफी सुस्ती भरा है. कई जगहों पर कमजोर एडिटिंग का असर दिखता है. पर दूसरे हाफ में कहानी रफ्तार पकड़ती है. रह-रहकर उफनती राष्ट्रप्रेम की भावना उसे और तीव्र करती हैं. बस युद्ध और प्रेम के कशिश की आवश्यक जरूरतों की कमी खलती है. गुलजार के गीतों के जरिये विशाल ने उसे भरने की भरसक प्रया किया है, पर इन क ोशिशों के जरिये भी वो इस कमी की भरपाई नहीं कर पाये. अभिनय के स्तर पर फिल्म जरूर संजोने लायक बन जाती है. जुलिया के रूप में कंगना के भाव किरदार के साथ ही तब्दील होते हैं. रूसी और नवाब के साथ प्रेम दृश्यों में कंगना के किरदार की तब्दीलियां भाती हैं. शाहिद हैदर के बाद फिल्म दर फिल्म निखरते जा रहे हैं. नवाब के रूप में उनकी मेहनत क ाबिले तारीफ है. सैफ के हिस्से कुछ कम दृश्य आये हैं. पर उनकी हर उपस्थिति दृश्यों पर अलग प्रभाव डालती है.
क्यों देखें- विशाल के साथ शाहिद, कंगना और सैफ के प्रशंसक हों तों फिल्म जरूर देखें
क्यों न देखें- फिल्म की रफ्तार और नाटकीयता की कमी उब देगी.


Wednesday, February 22, 2017

फिल्म समीक्षा

दास्तान इंडो-पाक के एक अनऑफिशियल वार की द गाजी अटैक

वार पर आधारित कुछेक उम्दा भारतीय फिल्मों में द गाजी अटैक शुमार की जाएगी. फिल्म भले उस युद्ध की दास्तान कहती है जिसका भारतीय रिकार्ड में कोई जिक्र नहीं, पर क्लासीफाइड वार के सत्य घटना पर आधारित यह फिल्म निर्माता-निर्देशक की क्रियेटिव सोच का उत्कृष्ट नमूना है. संकल्प रेडी के फिल्म की कहानी भारत-पाक के चार घोषित युद्धों से इतर 1971 के उस युद्ध की कहानी है जिसमें पाकिस्तान ने अपने सबमरीन गाजी के जरिये आइएनएस विक्रांत और भारत के पूर्वी बंदरगाहों को तबाह करने की योजना बनायी थी. तब सर्च ऑपरेशन पर निकले एस 21 के कैप्टन रणविजय सिंह(के के मेनन) और उनकी टीम ने दुश्मन सबमरीन की तलाश कर उसे क्लासीफायड वार के जरिये खत्म कर दिया.
बांग्लादेश बनने के तुरंत पहले की ये घटना परदे पर एक डिस्क्लेमर के जरिये शुरू होती है. जिसमें ये बताया गया कि कहानी एक सत्य घटना पर आधारित किंतु कल्पनाओं के सम्मिश्रण से बनी है. क्योंकि इसका कोई आधिकारिक रिकार्ड कहीं नहीं मिलता. तब पूर्वी पाकिस्तान में उपजे विद्रोह और वहां के शरणार्थियों को भारत में शरण देने की वजह से भारत पाकिस्ताना की नजरों का क ांटा बन चुका था. बदले की चाहत में पाक ने अपने सबसे खतरनाक सबमरीन गाजी को पूर्व से पानी के रास्ते रवाना किया. जिसका लक्ष्य भारत के आइएनएस विक्रांत और विशाखापत्तनम के बंदरगाह को तबाह करना था. ताकि भारत की शक्ति कमजोर कर उससे युद्ध में हराया जा सके.
नौसेना अधिकारी इस मिशन की टोह लेने के लिए भारतीय सबमरीन एस21 भेजते हैं, जिसका कैप्टन रणविजय सिंह है. रणविजय गरम मिजाज ऑफिसर था जो जंग के मैदान में अटैक के परमिशन के भरोसे नहीं बैठता. क्योंकि उसका बेटा 65 के जंग में ऐसी ही परमिशन के इंतजार में शहीद हो चुका था. उसके इसी मिजाज से परेशान होकर नौसेना अधिकारी ऑपरेशन में उसके साथ अजरून वर्मा (राणा दग्गुबाती) और देवराज (अतुल कुलकर्णी) को भेजते हैं. उधर पनडूब्बी गाजी का कैप्टन रज्जाक भी काफी आक्रामक था. वो एस 21 को नष्ट करने के लिए एक के बाद एक कई अटैक करता है. पर रणविजय, अजरून और देवराज की रणनीति उसे विफल करती हुई गाजी को तबाह कर देती है. इस अनऑफिशियल वार में कुछ शहादत भी देनी पड़ती है. पर जिंदा रहे लोग भी पहचान और मेडल से वंचित रह जाते हैं.
फिल्म अपने टेक्नीकल एस्पेक्ट्स की वजह से भी देखे जाने लायक है. समुद्र के भीतर युद्ध और सबमरीन के अंदर के दृश्यों का फिल्मांकन कमाल का प्रभाव उत्पन्न करता है. केके मेनन, राणा दग्गुबाती के साथ अतुल कुलकर्णी का बेहतरीन अभिनय फिल्म को मजबूती से थामे रखता है. हां फिल्म में दो जगहों पर राष्ट्रगान का इस्तेमाल है जो कहानी के लिहाज से बिलकुल वाजिब लगता है. तो फिल्म देखते वक्त थियेटर में अगर आप भी उसे उचित सम्मान दें तो निश्चित ही फक्र महसूस होगा.
क्यों देखें- युद्ध की पृष्ठभूमि पर आधारित एक उम्दा फिल्म देखनी हो तो.
क्यों न देखें- मसाला मनोरंजन की चाहत हो तो दूर ही रहें.


Saturday, February 18, 2017

खास बातचीत

                                        अलहदा किरदारों का सशक्त अभिनेता

मेहनत अगर पूरी शिद्दत से की जाए तो किस्मत मेहरबान होती ही है. ये सोच है थियेटर के जरिये टीवी और फिल्मों में अपनी पुख्ता पहचान बना चुके सीवान के अभिनेता अखिलेंद्र मिश्र का. टीवी शो चंद्रकांता का क्रुरसिंह हो, सरफरोश का मिर्ची सेठ या फिर गंगाजल का भूरेलाल, हर अलहदा किरदार अखिलेंद्र की उम्दा क ाबिलियत बयां करता है. प्रभात खबर के दफ्तर आये अखिलेंद्र ने गौरव के साथ खास बातचीत में अपने जीवन की कई गिरहें खोली.
आर्मी बैकग्राउंड में जन्में और दस भाई-बहनों में सबसे छोटे अखिलेंद्र मिश्र की सिने यात्र भी कम दिलचस्प नहीं रही. व्यक्तित्व ऐसा कि मिलने वालों को चंद पलों में आध्यात्म और नेशनल व इंटरनेशनल सिनेमा के अपने ज्ञानपाश में बांध ले. मुलाकात के साथ ही गर्मजोशी से शुरू हुआ बातों का सिलसिला कला, संस्कृति, स्प्रिचुअलिटी, अभिनय व बिहार में संभावनाओं के गलियारे होता हुआ ऐसे सफर पर निकला कि कब घंटों बीत गए पता ही नहीं चला.
झ्र दरौंदा(सीवान) से ही सफर की शुरूआत करते हैं.
झ्र दरौंदा मेरी जन्मस्थली है. पर होश संभालने के बाद मेरा ज्यादातर जीवन शहरों में ही बीता. मेरे पिताजी सेकेंड वर्ल्ड वार का हिस्सा थे. वार खत्म होने के साथ ही बटालियन डिजॉल्व की दी गयी और पिताजी को आर्मी या फिर सिविल सर्विसेज का ऑप्शन मिला. दादाजी की इच्छानुसार पिताजी ने कस्टम सेंट्रल एक्साइज ज्वाइन कर लिया. जॉब ट्रांसफरेबल होने की वजह से हमारा बचपन भी कई शहरों में बीता. वैशाली, गोपालगंज और छपरा में हाईस्कूल तक की पढ़ाई हुई. शहरों में रहने के दौरान भी हम हर साल दशहरे में गांव (दरौंदा) जरूर जाते थे. जहां हर साल पूजा के दौरान भोजपूरी और हिंदी नाटक होते थे. ऐसे ही एक नाटक गौना की रात में एक चाइल्ड आर्टिस्ट की जरूरत पड़ी और मुङो चुन लिया गया. मेरा तो दिमाग सातवें आसमान पर था. और आप यकीन नहीं करेंगे, उस उम्र में भी कई पेज की स्क्रिप्ट एक दिन में रट्टा मारकर मैं नाटक के लिए तैयार हो चुका था. वहीं से अभिनय की शुरूआत हुई. जो आगे चलकर इप्टा और टीवी से होता हुआ सिनेमा के रूपहले परदे तक पहुंचा.
झ्र नाटकों और थियेटर की बातों को जरा विस्तार दें.
झ्र कई साल दशहरे में नाटक के उपरांत छपरा में एक एमेच्योर ड्रेमेटिक एसोसियेशन से जुड़ाव हुआ. ये ग्रुप प्रथम राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद के बड़े भाई बाबू महेंद्र प्रसाद द्वारा बनाया गया था. यहां मुङो प्रो. रसिक बिहारी वर्मा, उदय शंकर रुखयार, वाचस्पिति मिश्र और मोहम्मद जकारिया जैसे लोगों का सानिध्य मिला. वहां मैंने शरद जोशी का एक था गदहा उर्फ अलादाद खां जैसा बड़ा नाटक किया. वहीं से मेरी सोच का विस्तार शुरू हुआ. आगे मेरी इच्छा एनएसडी जाने की थी. पर मोहम्मद जकारिया के सुझाव पर मैंने मूंबई जाकर इप्टा ज्वाइन कर लिया. फिर दो-तीन सालों के थियेटर के बाद टीवी शोज हाथ आये.
झ्र अभिनय क्षेत्र में हाथ आजमाने की बात पर परिवार वालों का क्या रिएक्शन रहा?
झ्र सच कहूं तो ये बिल्ली के गले में घंटी बांधने वाली बात थी. मां हमेशा से इंजीनियर बनाना चाहती थी. पर पढ़ाई के दौरान ही मुङो ये इल्म हो चुका था कि इंजीनियर और डॉक्टर बनना मेरे वश का नहीं है. फ ाइनली जब मूंबई जाकर अभिनय की ठानी तो घर में आफत आ गयी. मां ने हुलकते हुए कहा, हूंह, इंजीनियर-डॉक्टर त बनलù ना अब एक्टर बनबù, ई एक्टर का होला (इंजीनियर-डॉक्टर तो बन नहीं पाये अब एक्टर बनने चले हो, एक्टर क्या होता है)’. मैंने मां को बड़ी चतुराई से बताया कि एक्टर बनने के बाद मैं जो चाहे (इंजीनियर, डॉक्टर, वकील, दारोगा) बन सकता हूं. तब जाकर मूंबई जाने की परमिशन मिली. पिताजी का समर्थन भी मेरे अपेक्षा के विपरित था. इन सब को तो मैं भोलेनाथ का आशीर्वाद ही मानता हूं.
झ्र आपके बातचीत में आध्यात्मिकता का प्रभाव सहजता से महसूस होता है. ये बीज आपके जीवन मे कहां से पड़ा?
झ्र देखिए अध्यात्म मनुष्य के अंदर जन्म से ही होता है. कोई अगर ये कहे कि वो बिलकुल आस्तिक नहीं है तो या तो वो अज्ञानी है या झूठ बोल रहा है. आपके सांसों की डोर आध्यात्म से ही जूड़ी है. कर्म आप करते हैं पर फल पहले ही ऊपर वाले द्वारा तय किया जा चुका होता है. मैं जब बचपन में वैशाली के महुआ गांव में रहता था तो पिताजी ने अपने दोस्त की सलाह पर मेरा एडमिशन पास के ही एक गुरुकुल में करवा दिया. चार सालों तक मैं वहां रहा. सूबह चार बजे उठना, मंत्रदि पाठ ये सब मेरी दिनचर्या में शामिल था. मुङो लगता है ये बीज शायद वहीं पनप गया हो. आगे भी कर्म के साथ ध्यान और पूजन में निष्ठा की वजह से शायद वो बीज फ लित-फुलित होता रहा.
झ्र कर्म की बात चली तो आपकी नजर में कर्म और नियति का सफलता में किस हद तक योगदान है?
झ्र सारा योगदान कर्म का ही है. बस आपका कर्म ही है जो आपकी नियति बदल सकता है. विनोबा भावे ने भी कहा है, प्रयत्नहीन प्रार्थना प्रार्थना ही नहीं है. आपकी हर सफलता या विफलता आपके पूर्व में किये गये कर्मों का ही परिणाम होता है. जिस शिद्दत से, कर्मठता से आप मेहनत करेंगे किस्मत आपका भविष्य उसी अनुपात में संवारेगी.
झ्र बिहार से जुड़ी कोई खास याद जो साझा करना चाहें.
झ्र यादें तो कई हैं, पर एक घटना का खास जिक्र करना चाहूंगा. चंद्रकांता दर्शकों में फेमस हो चुका था. उसी दौरान एक बार भाई के तिलक समारोह में गांव जाने का मौका मिला. संयोग से उस दिन किसी घटना की वजह से बिहार बंद था. बस अड्डे पर केवल एक बस थी जो पैसेंजर्स से खचाखच भरी थी. लाख मिन्नतों के बावजूद कंडक्टर ने भी ङिाड़क दिया. तब मैने उसे क्रुरसिंह के गेटअप वाली अपनी तस्वीर दिखायी और बताया कि मै ही चंद्रकांता का क्रुरसिंह हूं. उसके आश्चर्य की सीमा न रही. फिर तो उसने पूरी खातिरदारी के साथ मुङो गांव तक छोड़ा.
झ्र आपने खल चरित्रों से शुरुआत की. क्या वजह मानते हैं आज के फिल्मों से क ालजयी नकारात्मक किरदारों के वर्चस्व खत्म होने की?
झ्र मुझसे पुछेंगे तो मैं कटु शब्दों में कहूंगा कि अब लेखकों की कलम से वैसे किरदार निकलते ही नहीं. गब्बर और मोगैम्बो जैसे क ालजयी किरदार आज सिनेमायी रजत पटल से अगर ओझल हैं तो कहीं न कहीं आज का हिंदी सिनेमा इसका जिम्मेदार है. भारतीय सिनेमा की कहानी शुरू से ही परंपरा और दायित्व पर आधारित रही है. जो आज के दौर में गुम नजर आता है. हम वेस्टर्न सिनेमा के पीछे भागने लगे हैं. जहां परंपरा और दायित्व के बदले अधिकारों का प्रदर्शन होता है. वो खुद ही कन्फ्यूज्ड हैं कि संबंधों की जटिलता या सामाजिक जिम्मेदारी को वे किस रूप में परोसें. और उनके कन्फ्यूजन के पीछे भागते-भागते हम खुद को जड़ों से क ाटते जा रहे हैं. यही वजह है कि अब हमारी कहानियों में भी किरदार नहीं अधिकार गढ़ें जा रहे हैं.
झ्र आपने लगभग हर स्टेट में थियेटर किया है. बाकी राज्यों की तुलना में बिहार के फिल्मी कल्चर को कहां पाते हैं?
झ्र ईमानदारी से कहूं तो काफी कुछ करने की आवश्यकता है. हमारे यहां आज भी फिल्मों को हेय दृष्टि से ही देखा जाता है. हम मनोरंजन के लिए रुपये तो खर्च करते हैं पर फिल्मी गतिविधियों में हिस्सेदारी के नाम पर सबकी निगाहें टेढ़ी हो जाती हैं. जरूरी है सिनेमा को सिलेबस बनाने की. जबतक आम आदमी सिनेमा के प्रति शिक्षित नहीं होगा उसकी महत्ता को समझ ही नहीं पायेगा, उसके इम्पैक्ट को नहीं समझ पायेगा. और इसके लिए फिल्मी बिरादरी से पहले सरकार को आगे आना होगा.
झ्र भोजपूरी सिनेमा के गिरते साख को किस नजर से देखते हैं?
झ्र आत्मा रोती है जब भोजपूरी सिनेमा के पोस्टर्स और गानों पर ध्यान जाता है. मैं समझ नहीं पाता कि शब्दों का ये भौंडापन हमें किस दिशा में ले जा रहा है. क्या सिनेमा केवल पैसा कमाने का जरिया भर रह गया है. आप मेरी व्यथा और विडंबना का अंदाजा इसी बात से लगा सकते हैं कि भोजपूरी नाटकों से क रियर की शुरुआत करने वाला शख्स आज तक एक अदद अच्छी भोजपूरी कहानी को तरस रहा है, जिस कहानी के साथ वो भोजपूरी फिल्मी क रियर शुरू कर सके. और यकीन मानिये ये तबतक बंद नहीं हो सकता जबतक किसी दृढ़निश्चयी सरकार की इसपर नजर ना पड़े. कठोरता और सजा ही ऐसी ईलता का समापन कर पायेगा.
झ्र आज के यूवाओं में मंजिल पाने की अजीब जल्दबाजी दिखती है. ऐसे यूवाओं को क्या कहना चाहेंगे?
झ्र देखिए चीजें जितनी जल्दी हासिल होती है उतनी ही तेजी से छिन भी जाती है. लिफ्ट से ऊपर जाने वाला उसी तेजी से नीचे भी आता है. पर सीढ़ियों से परिश्रम के जरिये ऊंचाई पर जाने वाला व्यक्ति ऊंचाई से उतरता भी उसी रफ्तार में है. तो मेहनत का कोई विकल्प नहीं है. सफलता के लिए बस दो ही बातें सबसे महत्वपूर्ण हैं, खुद पर विश्वास और धैर्य के साथ मेहनत.


Saturday, February 11, 2017

फिल्म समीक्षा

हंसते-हंसाते सिस्टम की बखिया उधेड़ता है जॉली एलएलबी 2

कानून और एडमिनिस्ट्रेटिव सिस्टम आज किस हद तक खोखलेपन का शिकार हो चुका है इसका मुजायरा आज का हर तीसरा-चौथा शख्स अपनी रोजमर्रा की जिंदगी में करता है. हद तो तब जब इस खोखलेपन से निजात दिलाने की कोशिश करता इक्का-दुक्का आदमी कब खुद इन खोखली गलियों में गुम हो जाता है पता ही नहीं चलता. जॉली एलएलबी के जरिये इन्हीं खामियों को परदे पर उजागर कर चुके निर्देशक सुभाष कपूर इसकी अगली किस्त के साथ कहानी को दो कदम और आगे ले जाते हैं. साफ लहजों में सुभाष ये बता जाते हैं कि कहानी, किरदार या परिवेश के बदलने के बावजूद सिस्टम की खामियां हर जगह मौजूद है. हर ओहदेदार इन खामियों का इस्तेमाल अपने-अपने तरीके से खुद के फ ायदे के लिए करता है. फिल्म हंसते-हंसाते सड़ी-गली स्थिति में आ चुके इसी सिस्टम की परत-दर परत उधेड़ने का काम करता है. फिल्म भले अपनी पहली किस्त से बहुत ज्यादा उम्दा होने के हमारे उम्मीदों पर खरी न उतरे, पर यह पिछली फिल्म से कहीं भी उन्नीस नहीं बैठती.
जगदीश मिश्र उर्फ जॉली (अक्षय कुमार) क ानपुर के एक नामी वकील के असिस्टेंट का काम करता है. घर में प}ी पुष्पा (हुमा कुरैशी) के इशारों पर चलने वाला जॉली कमाई के लिए छोटे-मोटे कानून तोड़ने से भी बाज नहीं आता.
क्योंकि उसे इसे बाहर निकलने का तरीका भी पता था. छोटे-मोटे वकालत से गुजारा करता जॉली क ोर्ट परिसर में खुद का चैंबर लेना चाहता है, जिसके लिए उसे काफी पैसों की जरूरत पड़ती है. इसी पैसे के चक्कर में वो हिना सिद्दकी
(सयानी गुप्ता) का केस अपने सीनियर से लड़वाने का झांसा दे उससे दो लाख एेंठ लेता है. सालों से न्याय की आस में भटक रही हिना इस सदमें से सुसाइड कर लेती है. अपनी गलती पर पछताता जॉली इस केस को हाथ में ले कर हिना के पति इकबाल(मानव कॉल) के फ र्जी एनकाउंटर की केस रिओपन करवाता है. फिर शुरू होती है कानून और सिस्टम के खिलाफ उसकी जंग जिसमें उसके खिलाफ खड़ें हैं लखनऊ के सबसे बड़े वकील माथुर (अन्नू कपूर) व असली गुनहगार पुलिस अधिकारी सूर्यवीर सिंह (कुमुद मिश्र).
फिल्म संजीदे मुद्दों पर भी व्यंग्यात्मक तरीके से प्रहार करती है, जिससे कहानी के प्रति दिलचस्पी बरकरार रहती है. सिस्टम और उसकी आड़ में चल रहे गोरखधंधों को दृश्य दर दृश्य बखूबी पिरोया गया है. जॉली के किरदार में क8ानपूर के अख्खड़पन और किरदार की बेबसी को अक्षय बखूबी जीते हैं. अक्षय का अब अपना एक जॉनर विकसित हो चुका है. जहां वो एक सीमित दायरे में रहकर भी भुमिकाओं की विविधता के साथ खेलते रहते हैं. हुमा कुरैशी और अन्नू कपूर भी भूमिका में रमते हैं, पर हिना के छोटे किरदार में सयानी गुप्ता याद रह जाती हैं. हां पिछली बार की तरह इस बार भी फिल्म की सबसे बड़ी उपलब्धि सौरभ शुक्ला रहे. जस्टिस त्रिपाठी के किरदार में वो पिछली फिल्म के अपने सफर को काफी आगे लेकर जाते हैं. बावरा मन और ओ रे रंगरेजा जैसे गाने तो पहले से ही चार्ट बस्टर में हैं. तो अगर आप इस साल की पहली सबसे बेहतरीन फिल्म का मुजायरा करना चाहे तो बेशक थियेटर का रूख कर सकते हैं.
क्यों देखें- जॉली एलएलबी की खुमारी में एक बार फिर उतरना चाहते हों तो जरूर देखें.
क्यों न देखें- पिछली फिल्म से आगे जाकर किसी अधिक उम्दा फिल्म की तलाश हो तो.


फिल्म समीक्षा

           रितिक की क ाबिलियत की बानगी है क ाबिल

अपने समकालीन अभिनेताओं में रितिक बेशक सबसे समर्थ अभिनेता हैं. राकेश रौशन और रितिक रौशन का जब-जब मेल हुआ है दर्शकों को कुछ अनुठा हासिल हुआ है. क ाबिल को भले राकेश रौशन ने निर्देशित नहीं किया पर फिल्म देखते वक्त कहानी से लेकर फिल्मांकन तक पर उनकी छाप साफ दिखती है. उनके साथ ने अपनी पिछली कुछ फिल्मों की असफलता के बावजूद रितिक में एक अलग आत्मविश्वास का संचार कर दिया है. संजय गुप्ता निर्देशित क ाबिल रितिक के अभिनय का एक नया प्रतिमान स्थापित करती है. ब्लाइंड किरदार की अंतर्दशा और मैनरिज्म को विश्वसनीय और असरदार तरीके से परदे पर जीते रितिक क ाबिल के साथ खुद को दो कदम आगे ले जाते हैं. संजय ने फिल्म के लिए हिंदी सिनेमा के बहुप्रचलित फ ामरूले प्यार और बदले का आधार चुना है. जिसे नये क्लेवर के साथ परोसकर उन्होंने फिल्म को देखने लायक बना दिया है.
डबिंग आर्टिस्ट रोहन भटनागर (रितिक रौशन) और सुप्रिया (यामी गौतम) ब्लाइंड कपल हैं. एक क ॉमन लेडी के जरिये दोनों की मुलाकात होती है. पहली मुलाकात से ही रोहन की जिंदादिली सुप्रिया को भा जाती है. दोनों एक दूसरे को पसंद करने लगते हैं और शादी कर लेते हैं. रोहन के मोहल्ले में ही अमित (रोहित रॉय) रहता है जिसे पहली नजर में सुप्रिया भा जाती है. अपने क ॉरपोरेटर भाई माधवराव शेलार (रोनित रॉय) के पावर के नशे में चूर अमित अपने दोस्त के साथ मिलकर सुप्रिया का रेप करता है. रोहन और सुप्रिया इसकी शिकायत पुलिस में करना चाहते हैं पर पुलिस इससे इनकार कर देती है. दोनों इस सदमें से बाहर आने की कोशिश में ही रहते हैं कि अमित फिर से एक रात अपनी हरकत दुहराता है. इस सदमें से सुप्रिया आत्महत्या कर लेती है. सिस्टम से हारा रोहन पुलिस अधिकारी चौबे को खुला चैलेंज देता है कि वो इसमें शामिल सभी गुनहगारों को मार देगा और पुलिस उसका कुछ नहीं बिगाड़ पाएगी. अपने अंधेपन को अपनी ताकत बनाता रोहन तब अपने मिमिक्री एबिलिटी का इस्तेमाल कर उनके खिलाफ जाल रचता है. और एक-एक कर सारे गुनहगारों को मौत के दरवाजे तक पहुंचाता है.
अंधे किरदार के बावजूद नृत्य और एक्शन के दृश्यों में रितिक की सहजता कहानी में विश्वास जगाती है. चेहरे की भाव-भंगिमाओं और आंखों की चमक के जरिये अभिनय करते रितिक किरदार की जड़ तक जाते नजर आते हैं. खल चरित्रों में रोहित और रॉनित का अभिनय भी कहानी के प्रभाव का दोगुना करता है. भ्रष्ट पुलिस अधिकारी की भुमिका में नरेन्द्र झा सराहनीय हैं. फिल्म के गाने भी क ानों में मधुरता घोलते हैं.
क्यों देखें- रितिक रौशन के उम्दा अदाकारी की मिसाल देखनी हो तो.
क्यों न देखें- कहानी से किसी नयेपन की उम्मीद ना रखें.


फिल्म समीक्षा

               शाहरुख के प्रशंसकों के लिए है रईस

शाहरुख खान की फैंटेसी और राहुल ढोलकिया के रियलिज्म का मिश्रण ही रईस की सबसे बड़ी यूएसपी मानी जा रही थी. और दोनों ही तारीफ के क ाबिल हैं जिन्होंने इस फिल्म के जरिये एक-दूसरे के जोनर को सहजता से एडॉप्ट कर लिया. शाहरुख ने जब-जब अपने कंफर्ट जोन की बांध तोड़ने की कोशिश की उनके पिटारे से कुछ खास ही निकला. अपनी बनी-बनायी इमेज को दरकिनार कर रईस के नॉन ग्लैमराइज्ड किरदार के लिए उनकी मेहनत इसी का उदाहरण है. औरअस्सी के दशक में गुजरात के शराब माफिया का निगेटिव किरदार निभाकर भी अंत में दर्शकों की सहानुभूति बटोर ले जाना इस मेहनत की सफलता की ओर इशारा.
रईस (शाहरुख खान) और उसका दोस्त सादिक (जीशान अयूब) बचपन से गुजरात के एक शराब माफिया (अतुल कुलकर्णी) के लिए काम करते हैं. बचपन से ही उसके अन्दर मां कि ये बात बैठ जाती है कि धंधा कोई छोटा नहीं होता, और धंधे से बड़ा कोई धर्म नहीं होता, तबतक जबतक किसी का बूरा ना हो. बड़ा होने पर रईस खुद का धंधा शुरू करता है. शराब का अवैध क ारोबारी होने के बावजूद वो हमेशा अपने अम्मी के उसुलों पर अमल करता है. अपनी कमायी से समाज के लोगों की मदद करता है. शराब के अवैध व्यापार के बीच हर बार उसकी टकराहट एसपी मजुमदार(नवाजुद्दीन सिद्दीकी) से होती है. मजुमदार हर बार उसे अपने जाल में बांधने की कोशिश करता है पर रईस अपनी शातिराना चाल से उसे विफल कर देता है. इसके लिए वो सत्ता में बैठे रसूखों तक का इस्तेमाल करने से भी नहीं चुकता. पर राजनीति का इस्तेमाल ही रईस की सबसे बड़ी भूल साबित होती है. अपने फ ायदे के लिए रईस और मजुमदार को अलग-अलग मोहरे की तरह इस्तेमाल करने वाले सत्ता और विपक्ष के राजनीतिज्ञ खुद पर आक्षेप आता देख उन्हीं मोहरों की आपस में भिड़त करवा देते हैं.
शाहरुख ने अपने ग्लैमर से इत्तर कुछ करने का भरपूर प्रयास किया है. पर तारीफ करनी होगी नवाजुद्दीन की जिन्होंने शाहरुख की उपस्थिति और कम फुटेज के बावजूद हर दृश्य में अपनी दमदार उपस्थिति दर्ज करा जाते हैं. हां फिल्म में माहिरा खान का बेजा इस्तेमाल खलता है. सनी लियोन पर फिल्माये गीत लैला के अलावे बाकी गाने कहानी की राह में रोड़े सरीखे फ ील देते हैं.