Friday, April 28, 2017

फिल्म समीक्षा


            इंतजार के तपते रेगिस्तान पर पानी की बौछार              सी सूकून देगी बाहुबली द कन्क्लूजन

सिनेमा के इतिहास में शायद पहली बार ऐसा हुआ होगा जब फिल्म के पहले भाग में छोड़े गये एक सवाल के जवाब के लिए दर्शकों ने लगभग दो वर्षाें तक इतनी बेताबी दिखाई होगी. माउथ पब्लिसिटी के सहारे साल 2015 की सबसे बड़ी हिट साबित हुई बाहुबली अपने साथ एक ऐसा सवाल छोड़ गयी थी जो अगले दो साल तक देश के सबसे बड़े सवाल के तौर पर आम जिंदगियों के बीच तैरता रहा. सवाल था आखिर कटप्पा ने बाहुबली को क्यों मारा? इस सवाल ने फिल्म से जुड़ी टीम पर उम्मीदों का ऐसा बोझ डाल दिया था कि उनकी एक चूक फिल्म का मटियामेट कर सकती थी. पर तमिल, तेलुगु, हिंदी और मलयालम में एक साथ रिलीज बाहुबली द कन्क्लूजन इंतजार में तपते रेगिस्तान सरीखे हो चुके दर्शकों के मन-मस्तिस्क पर पानी की बौछार सी सूकून देगी. पिछली फिल्म से ज्यादा भव्य, रोचक व सौंदर्यपरक बाहुबली द कन्क्लूजन लाजर्र देन लाइफ छवि वाली फिल्म की अद्भूत मिसाल है. लार्जर देन लाइफ वाली छवि ने हम सब के मन में तभी जड़ जमा ली थी जब हम बचपन में हर रात दादी-नानी के सुनाये किस्सों की आगोश में होते थे. फैंटेसी और कपोल-कल्पनाओं में बुने उन कहानियों का असर कुछ यूं होता कि सुनी हुई कहानियां भी हम बार-बार उसी उत्सुकता से सुनते. उस किस्सागोई ने हम सब को इस कदर जकड़ा कि आज भी उस परिवेश और रोचकता के ताने-बाने में बुनी हर कहानी हमें चुंबक की भांति खींच लेती है. बाहुबली उसी किस्म की कहानी है, दृश्य संयोजन के साथ. जिसका संसार फंतासी और लाजर्र देन लाइफ के आवरण के बावजूद खालिस देसी और बहुपरिचित सा लगता है. जिसका संसार फंतासी और लाजर्र देन लाइफ के आवरण के बावजुद खालिस देसी और बहुपरिचित सा लगता है. और तारीफ करनी होगी पटकथा लेखक केवी विजयेंद्र प्रसाद, निर्देशक एस एस राजामौली और उनकी वीएफएक्स टीम की, जिन्होंने पहले भाग में उस फंतासी भरी दुनिया का अधिकांश हिस्सा घुमाने के बावजूद दूसरे भाग में रोचकता और भव्यता की उत्सुकता चरम पर रखी. जिसने दर्शकों को उसकी जिजिविषा शांत होने तक थियेटर की सीट से चिपकाए रखा.
कहानी वहीं से शुरू होती है जहां पिछली फिल्म का अंत हुआ था. कटप्पा (सत्यराज) और महेंद्र बाहुबली (प्रभास) के बीच उस संवाद के जरिये कहानी फ्लैशबैक में जाती है जिसमें कटप्पा बताता है कि उसके हाथों ही माहिस्मति के सम्राट अमरेंद्र बाहुबली (प्रभास) की हत्या हुई थी. राजमाता शिवगामी देवी(रमैया कृष्णण) के आशीर्वाद से सम्राट बनने की तैयारी में जुटा अमरेंद्र कटप्पा के साथ देशाटन पर निकलता है. बीच रास्ते उसकी मुलाकात राजकुमारी देवसेना (अनुष्का शेट्टी) से होती है और दोनों एक-दूसरे को दिल दे बैठते हैं. वो देवसेना को माहिस्मति ले आता है. पर परिस्थितियां ऐसी करवट लेती हैं कि अमरेंद्र बाहुबली की हत्या हो जाती है और भल्लाल देव (राणा दग्गूबती) माहिस्मति का सम्राट बन जाता है. फिर कहानी वर्तमान में लौटती है और अपने पिता की मौत से आक्रोशित महेंद्र बाहुबली भल्लाल देव के खिलाफ जंग का आह्वान कर देता है.
बाहुबली द कन्क्लूजन का स्पेशल इफेक्ट्स निश्चित रूप से पिछली फिल्म का विस्तार माना जा सकता है. पिछली फिल्म से अजिर्त पैसे का इस फिल्म के मेकिंग में लगाने का निर्देशक का बयान परदे पर चरितार्थ होता दिखता है. स्पेशल इफेक्ट्स से रचित विहंगम दृश्य, महलों और पहाड़ों के विशालकाय सेट के साथ झरने, जलप्रपात, पहाड़ और जंगल कहीं से भी आभाषी प्रतीत नहीं होते. प्रभास और राणा दग्गुबाती का अभिनय क ौशल और तकनीकी सामंजस्य देखने योग्य है. युद्ध के दृश्यों में दोनों और भी आकर्षित करते हैं. देवसेना के किरदार में अनुष्का शेट्टी की चपलता व चंचलता देखने योग्य है. आखिर में, मजबूत पटकथा, उम्दा अभिनय व तकनीक के बेजोड़ संगम से हॉलीवूड की पीरियड ड्रामा वाली उत्कृष्ट फिल्मों की सीमा रेखा में प्रवेश करती दिखती बाहुबली हिंदी सिनेमाई उन निर्माता-निर्देशकों के लिए एक सबक सरीखी है जो लाजर्र देन लाइफ और किस्सागोई के नाम पर क ामचलाऊ सिनेमा के पैरोकार बने बैठे हैं.
क्यों देखें- इसकी वजह तो पिछले दो साल से जगजाहिर है.
क्यों न देखें- वजह की तलाश गैरवाजिब है.


Saturday, April 22, 2017

फिल्म समीक्षा

                  कमजोर और बिखरी कहानी से नूर बेनूर

नॉवेल को सिनेमा की शक्ल देना मुल कहानी पर आधारित फिल्म बनाने से कहीं ज्यादा रिस्की है. जरा सी चूक सिनेमा की किरकिरी करा सकती है. चुंकि दर्शक पहले से ही नॉवेल के पाठक होते हैं जिसकी वजह से वो फिल्म में भी कहानी की उसी आत्मा और रस का विस्तार चाहते है. तब छिछले तौर पर रुपांतरित कोई भी कहानी उनकी संतुष्टि पूर्ण नहीं कर पाती. कुछ ऐसी ही स्थिति पाकिस्तानी जर्नलिस्ट सबा इम्तियाज के उपन्यास कराची यू आर किलींग मी पर आधारित सुनील सिप्पी की नूर की रही. नूर गढ़ते समय सुनील ने न केवल किरदार का नाम बदला बल्कि परिवेश व अन्य स्तरों पर भी तब्दीलियां तो की, पर उसे मुकम्मल शक्ल नहीं दे पाये. उनकी सबसे बड़ी खामी तो पत्रकारिता आधारित इस कहानी का पत्रकारीय जीवन की हकीकत से क ोसों दूर होना रहा.
नूर रॉय चौधरी (सोनाक्षी सिन्हा) एक महत्वकांक्षी जर्नलिस्ट है. सोशल व रियल रिपोर्टिग में रुचि रखती है. पर मार्केट और चैनल के दबाव में उसे बॉलीवूड रिपोर्टिग भी करनी पड़ती है. खुद में मशगुल रहने वाली नूर की बिखरी-बिखरी जिंदगी में उसके पिता और दो दोस्त भी हैं. उसके बचपन का एक दोस्त अयान (पूरब कोहली)भी है जिसपर वो सबसे ज्यादा भरोसा करती है. कहानी में दिलचस्प मोड़ तब आता है जब नूर की एक स्कैम बेस्ड रियल स्टोरी चोरी करके किसी और के नाम से चला दी जाती है.
शुरुआत में किरदारों को स्थापित करने में ही कहानी काफी खिंच जाती है. बगैर पत्रकारीय शोध परिवेश की संरचना भी बनावटीपन का अहसास देती है. इस सुस्त माहौल में कुछ असर करता है तो बस सोनाक्षी का बंधनमुक्त अभिनय. नूर के किरदार में सोनाक्षी निर्बाध रूप से खुद की ही सीमाएं तोड़ती नजर आती है, पर कमजोर कहानी और फिल्मांकन में उनकी मेहनत बिखर कर रह जाती है. रही-सही कसर कमजोर क्लाइमैक्स के जरिये पूरी हो जाती है. और फिल्म मुकम्मल अंजाम तक पहुंचने से पहले ही दम तोड़ देती है. फिल्म के गानों के साथ-साथ लोकेशंस और सिनेमेटोग्राफी से जरूर थोड़ी राहत का अहसास होता हैं.
क्यों देखें- अगर आप सोनाक्षी के जबर फैन हैं तो एक बार फिल्म का दीदार कर सकते हैं.
क्यों न देखें- किसी उम्दा विषय की उम्मीद में हों तो.


Saturday, April 15, 2017

फिल्म समीक्षा

                   बंटवारा देश से दिलों तकबेगम जान

बेगम जान दो साल पहले आयी बंग्ला फिल्म राजकहिनी का हिंदी रिमेक है. निर्देशक श्रीजित मुखर्जी ने उस वक्त भी फिल्म के लीड किरदार के लिए विद्या बालन को लेना चाहा था, पर कुछ कारणों से वह यह फिल्म कर नहीं पायी. फिर जब महेश भट्ट ने श्रीजित को इसके हिंदी रिमेक पर काम करने को कहा तब वो ये कहानी लेकर दोबारा विद्या के पास गये. बेगम जान भारत-पाकिस्तान के बंटवारे पर बनी अन्य प्रेम कथाओं वाली फिल्मों से इतर बंटवारे में घर-बार लुटा चुके विस्थापितों की कहानी कहती है. जिनके लिए बंटवारे के वक्त खींची गई रेडक्लिफ लाइन महज एक लकीर नहीं बल्कि उनकी जिंदगी को दो टुकड़ों में बांटने वाली लाइन थी. बंटवारे के इस दंश के साथ-साथ श्रीजित औरतों की सामाजिक स्थितियों को भी कहानी में पिरो जाते हैं और साफगोई से बता जाते हैं कि समय चाहे बंटवारे के वक्त का हो या वर्तमान का, औरतों की सामाजिक स्वीकरोक्ति ज्यों की त्यों है. 2016 के साथ शुरू हुई कहानी जब कालातीत(1947) में पहुंची तब भले माहौल अलग था पर औरतों की स्थितियां तब भी वही थी. अहम मुद्दे और उम्दा अदाकाराओं के साथ फिल्म टुकड़ों-टुकड़ों में आपको प्रभावित जरूर करती है, पर सारे मजबूत पक्षों को एक साथ कहानी में पिरोते वक्त श्रीजित खुद बिखर से जाते हैं जो उनकी फिल्म की उनकी बुनावट में साफ झलकती है.
कहानी शुरू होती है पंजाब के एक छोटे से गांव से, जहां बेगम जान(विद्या बालन) का क ोठा है. बचपन में बेवा हो चुकी बेगम तवायफ का धंधा करते-करते वहां के राजा(नसीरुद्दीन शाह) की छत्रछाया में अपना क ोठा खड़ा कर लेती है. वक्त बीतने के साथ अलग-अलग शहरों की आठ-दस और लड़कियां उसके क ोठे में आ जाती हैं. राजा जी की सरपरस्ती में बेगम अपनी हुकुमत चलाती है. गांव का थानेदार और मुखिया भी गाहे-बगाहे उसकी दहलीज लांघते रहते हैं. कहानी में मोड़ तब आता है जब बंटवारे के लिए रेडक्लिफ के तैयार नक्शे को लागू करने के लिए कंटीले तारों का बाड़ बनाने का काम शुरू होता है. और बेगम जान का क ोठा बंटवारे की उस लकीर के बीचो-बीच आ जाता है. बेगम क ोठा खाली करने से मना कर देती है. हुक्म की तामील कराने आये भारत और पाक के अधिकारी श्रीवास्तव जी(आशीष विद्यार्थी) और इलियास (रजत कपुर) क ोठा खाली करवाने के लिए कबीर (चंकी पांडे) की मदद लेते हैं. फिर शुरू होता है बंटवारे के रहनुमाओं और अपने अस्तित्व की खातिर खड़ी महिलाओं के बीच जंग. जिसका अंजाम निश्चित तौर पर आपको अंदर से झकझोर देगा.
कमजोर एडिटिंग और कहानी के बिखराव की वजह से फिल्म पहले हाफ में थोड़ी लचर दिखती है. पर दूसरे हाफ तक आते-आते रौ में आ जाती है. सेंसर बोर्ड की कैंची से बचे फिल्म के कुछ संवाद सीधा दिल को भेदते हैं. श्रीधर का फिल्म के कई हिस्सों में भारत की वीरांगनाओं की छवि को विद्या बालन के रूप में पेश करना भी भाता है. औचित्य बस इतना की बात चाहे लक्ष्मीबाई की हो या रानी पद्मावती की हो या बेगम जान की, औरतें हर रूप में उतनी ही ताकतवर होती है. फिल्म की सबसे बड़ी ताकत कुछ है तो कलाकारों का उम्दा अभिनय. बेगम जान के किरदार में विद्या की संजीदगी और क रूण व रौद्र पलों में उनके चेहरे का भाव उनकी समर्थता जाहिर करता है. सहयोगी भुमिकाओं में उन्हें इला अरूण और बाकी की अभिनेत्रियों का भी अपेक्षित सहयोग मिला है. नसीरुद्दीन शाह, विवेक मुश्रन, आशीष विद्यार्थी व रजत कपुर भी सराहनीय हैं. आशा भोंसले अरिजित सिंह की आवाज में पाश्र्व में चलते फिल्म के गाने कहानी को जरूरी गति देते हैं.
क्यों देखें- बंटवारे के दंश को दिखाती एक अलग किस्म की फिल्म देखनी हो तो.
क्यों न देखें- फिल्म व्यस्कों के लिए है तो ख्याल रखना जरूरी है.



Wednesday, April 5, 2017

इंटरव्यू: क्षितिज रॉय

               गंदी बात ने बना दिया पोपुलर राइटर
प्रतिभा किसी उम्र की मोहताज नहीं होती. हिंदी साहित्य के क्षेत्र में गंदी बातनॉवेल के जरिये दखल देने वाले भागलपुर के वर्षीय क्षितिज रॉय ऐसी ही प्रतिभा के धनी हैं. रेडियो के लिए कहानी लेखन का काम कर चुके क्षितिज अपने ब्लॉग लेखन और शॉर्ट फिल्मस के लिए भी जाने जाते हैं. साल 2017 में प्रकाशित गंदी बात ने उन्हें अचानक युवाओं का चहेता नॉवेलिस्ट बना दिया. गौरव से खास बातचीत में क्षितिज ने भागलपुर से दिल्ली होते हुए अपने यूथ आइकॉन बनने के इसी सफर को साझा किया.

- भागलपुर के क्षितिज की सहरसा और दिल्ली होते हुए साहित्य के क्षितिज पर छा जाने की संक्षिप्त जर्नी क्या रही?
- मेरी पैदाइश भागलपुर की है. पापा नेतरहाट स्कूल (रांची के पास) में टीचर थे लिहाजा मेरी भी दसवीं तक की पढ़ाई उसी स्कूल से हुई. उसके बाद मैं डीपीएस आरकेपुरम, दिल्ली आ गया. फिर मैंने किरोड़ीमल से ग्रेजुएशन और दिल्ली स्कूल ऑफ इकॉनोमिक्स से पोस्ट ग्रेजुएशन किया. इस बीच मेरे बचपन का काफी लंबा हिस्सा नानाजी के घर सहरसा में गुजरा. नानाजी काफी साहित्यिक किस्म के व्यक्ति थे. उनके पास मुङो राही मासूम रजा और कमलेश्वर जैसे बड़े साहित्यकार को पढ़ने का मौका मिला. अंदर में साहित्य के प्रति रुझान का बीज वहीं पनप गया शायद. अगर सच कहूं तो नानाजी का सानिध्य न पाता तो शायद कभी लिख भी ना पाता.
- बड़े साहित्यकारों को पढ़ने और खुद नॉवेल लिखने के बीच की यात्र कैसी थी?
- पढ़ते-पढ़ते रुझान तो साहित्य की ओर हो ही चुका था. क ॉलेज के दौरान मुङो रेडियो के लिए कहानी लिखने का मौका मिला. रेडियो पर नीलेश मिश्र के शो यादों का इडियट बॉक्स के लिए कहानी लिखने के क्रम में शार्ट फिल्म्स बनाने का ख्याल जेहन में आया. फिर मैने कुछ शार्ट फिल्म्स बनायी भी. मुङो हमेशा से अपनी भावनाएं व्यक्त करने के लिए अलग-अलग मीडियम की तलाश रही है. ऐसे ही किसी कोशिश में कहानी और फिल्म स्क्रिप्ट की दुनिया में विचरते-विचरते गंदी बात की रचना हो गयी.
- बात चली तो गंदी बात पर आते हैं. सबसे पहले तो ऐसे अनयुजूअल टायटल के पीछे की क्या कहानी रही?
- सच कहूं तो कहानी लिखते वक्त कोई भी टायटल मेरे दिमाग में था ही नहीं. जबकि अमूमन ऐसा होता नहीं. मेरी हर छोटी-बड़ी कहानी की शुरुआत तय टायटल से ही होती थी. पर इस कहानी का बड़ा हिस्सा लिखने के बाद भी टायटल जेहन से नदारद था. तभी कहीं ऑटो में गंदी बात गाना सूना. उस वक्त भी ये क्लियर नहीं था कि यही नाम हो सकता है. पर नॉवेल के कई सिक्वेंस पर गौर करने और राजकमल प्रकाशन के सत्यानंद निरूपम जी से विस्तृत चर्चा के बाद इस नाम पर सहमति बन गयी.
- गंदी बात के नायक गोल्डेन की जर्नी भी काफी हद तक आपसे मेल खाती है. ये महज संयोग है या कुछ और?
- पूरी तरह से तो नहीं कह सकता कि गोल्डेन और क्षितिज एक-दूसरे के प्रतिरूप हैं. बिहार से दिल्ली तक के सफर के अलावा कुछ एलिमेंट्स सिमिलर हो सकते हैं. पर ये मुझसे कहीं ज्यादा बिहार में छूट चुके मेरे दोस्तों की कहानी है. कई अलग-अलग किरदारों से मैंने गोल्डेन का रिफरेंस लिया. जिनमें मेरे दोस्त, ट्रेन के सफर में मिले एक अजनबी द्वारा साझा की गयी उसकी कहानी के अलावा रांझना मूवी के कुंदन का किरदार भी शामिल है. रांझना देखते वक्त मुङो लगा ये फिल्म वाले बिहार और यूपी के लड़के को हमेशा लड़कियों के पीछे भागने वाला क्यों दिखाते हैं. प्रेम में होने के साथ-साथ लड़कों की और भी अलग-अलग जर्नी होती है. काफी कुछ होता है उनकी यात्र में कहने को.
- कहानी में इस्तेमाल भदेस व अपारंपरिक भाषा से साहित्य की गरिमा दरकती नजर आती है. बाजार के दबाव में ये किस हद तक उचित है?
- देखिये ये गरिमा का मिथक मेरे अंदर पहली बार तब टूटा जब मैंने क ाशी का अस्सी को पढ़ा. उसे पढ़कर पहली बार मुङो लगा अगर आप अपने किरदार को उसके परिवेश, शिक्षा स्तर के लिहाज से भाषाई आजादी नहीं देंगे तो वो बनावटी हो जाएगा. और गरिमा के चक्कर में किरदार और कहानी से समझौता मेरी नजर में उचित नहीं है. एज एन रायटर आपको अपने किरदार को हर स्तर पर वो आजादी देनी होगी जो उसे खुलकर सामने आने का मौका दे. मैं गरिमा के बंधन में बंधकर अपनी डायरी तो लिख सकता हूं पर लोगों के जेहन में बने रहने के लिए मुङो उनके आस-पास की भाषाई शैली में उतरना ही होगा.
- इंटरनेट और सोशल मीडिया के यूग में किताबों के जरिये मास तक पहुंचना कितना चैलेंजिंग है?
- मैं इसे दूसरे तरीके से देखता हूं. आपको भी पता होगा कि पांच-सात साल पहले तक हम जैसे लेखकों को पब्लिशिंग हाऊस तक पहुंचने और अपनी किताब छपवाने में चप्पलें घिस जाया करती थी. पर ये सोशल मीडिया का ही प्रभाव है कि आपके लेखन से प्रभावित होकर हाऊसेज अब खुद राइटर्स को अप्रोच करने लगे हैं. तो अब आपके पास इन मीडियम्स के रूप में ऐसा प्लेटफार्म उपलब्ध है जो आपकी प्रतिभा को सही नजरों में ला सके. और जहां तक पाठक वर्ग की बात है तो अभी भी एक बड़ा तबका है जो किताबों में रुचि रखता है और उसे खरीदता है. यहां तक की पुस्तक मेलों में भी युवाओं का हिंदी साहित्य के प्रति रुझान पॉजिटीव उम्मीद जगाता है.
- ब्लॉग लेखक, शार्ट फिल्म मेकर, साहित्यकार के रूप में दुनिया आपको देख चुकी है. क्षितिज खुद को फ्यूचर में किस जगह पाते हैं?
- इस मामले में मैं बहुत लालची किस्म का इंसान हूं. एक दिन मैं खूद को किसी बड़े थियेटर के परदे पर किसी सिनेमा के बड़े राइटर के रूप में देखना चाहता हूं. फिर आगे मुङो खुद की लिखी फिल्म डायरेक्ट भी करनी है. अभी कुछ फिल्म्स की स्क्रिप्ट राइटिंग के लिए बातचीत भी फ ाइनल दौर में है. और मेरा मानना है कि डायरेक्शन का रास्ता भी स्क्रिप्ट राइटिंग से होकर ही जाता है. तो स्क्रिप्टिंग के जरिये मैं भी खुद को एक बड़े डायरेक्टर के रूप में स्टेबल करने का ख्वाब पाले बैठा हूं.


इंटरव्यू: अविनाश दास, फिल्म निर्देशक

                    जिद से जीत तक का सफर
किसी ने सच ही कहा है,
कौन कहता है आसमां में सुराख नहीं होते,
एक पत्थर तो तबियत से उछालो यारों.
और ये कोई क ोरी कहावत नहीं, वरना कौन सोच सकता था कि दरभंगा के एक छोटे से गांव का आर्थिक रूप से पिछड़ा लड़का जीतने के जूनून में अपने सपनों के पीछे इस कदर पड़ जाएगा कि झख मारकर क ामयाबी को उसके कदम चुमने ही पड़ेंगे. जी हां, ऐसी ही कहानी है क विता, नाटक और पत्रकारिता के रास्ते सिनेमाई दुनिया में पुरजोर तरीके से दस्तक देने वाले निर्देशक अविनाश दास की. जूनून भी ऐसा कि सत्रह साल की पत्रकारिता की स्थायी नौकरी छोड़ अगले आठ-दस साल संघर्ष के रास्ते चलते रहे, पर हार नहीं मानी. प्रभात खबर के गौरव से खास बातचीत में अविनाश ने अपने इसी जर्नी के उतार-चढ़ाव और कई संजो कर रखे जाने वाले पलों को साझा किया.
कद-काठी, वेशभूषा और बातचीत का लहजा ऐसा कि अविनाश से मिलते ही एक ठेठ व बिहारी संस्कृ ति में रचे बसे शख्स सा आभास हो जाए. बातों में साहित्यिक परिवेश का असर साफ झलकता है. बातचीत की शुरुआत प्रभात खबर जिंदाबाद के स्वर से करते हुए, चेहरे पर आत्मविश्वास की लकीरों और कर्म के प्रति समर्पण की भाव के साथ अविनाश ने अपने गांव और पत्रकारीय जीवन से लेकर अनारकली ऑफ आरा के बनने तक की कहानी बतायी.
- शुरुआत दरभंगा से करते हैं. गांव के एक साधारण परिवार का लड़का सिनेमा की दुनिया में दस्तक देते हुए अपने जैसे कई युवाओं को सपने दिखा जाता है. इस जर्नी को विस्तार से बताएं.
- दरभंगा के लहेरियासराय के पास फरएता गांव में मेरा जन्म हुआ. बचपन से पढ़ाई-लिखाई में मन बिलकुल नहीं लगता. उसी उम्र से मन एक कल्चरल एक्टिविस्ट की तरह से डेवलप होने लगा था. नाटक करना, सांस्कृतिक प्रोग्राम ऑर्गनाइज करना ये सब जिंदगी का हिस्सा बनता जा रहा था. उसी दौरान बाबा नागाजरून से नजदीकियां बढ़ी. उनके साथ कई जगह ट्रैवल करने का मौका मिला. इसका एक फ ायदा ये हुआ कि भाषा के तौर पर हिंदी मेरे कब्जे में आ रही थी. मन की उड़ान इन्हीं गतिविधियों के आस-पास मंडराती थी पर यथार्थ रह-रहकर धरातल पर ला खड़ा करता था. बाबूजी प्राइवेट ट्यूटर थे. घर में तीन बड़ी बहनें, चाचा-चाचियों का परिवार और इन सबकी जिम्मेदारी बाबूजी के ऊपर. तब लगा कि मेरी स्वछंदता मुङो पारिवारिक जिम्मेदारियों के साथ न्याय नहीं करने देगी. उसी दौरान पटना में प्रभात खबर के साथ जुड़ने का मौका हाथ लगा. तत्कालीन प्रधान संपादक हरिवंश जी के साथ जुड़कर पत्रकारीय जीवन की शुरुआत की. और ये सिलसिला विभिन्न अखबारों और चैनलों से होते हुए लगभग सत्रह सालों तक चला. पर इन सत्रह सालों में एक बात यह भी रही कि मैंने अपने सपने को कभी मरने नहीं दिया.
- इस लंबे सफर में आप अखबार के संपादक पद तक भी पहुंचे. मोहल्ला लाइव जैसी चर्चित वेबसाइट के ऑनर रहे. ऐसी स्टेबिलिटी छोड़ मुंबई में जगह तलाशने का जोखिम लेते वक्त गुम हो जाने का डर नहीं लगा?
- देखिए, डर लाइफ को हमेशा उल्टी दिशा में ले जाता है. प्रभात खबर ज्वाइन करते वक्त मैं ग्रेजूएशन पार्ट टू का छात्र था. पर तब भी मुङो ये डर नहीं लगा कि मैं ये काम कर पाऊंगा या नहीं. मेरी लाइफ का हमेशा से फंडा रहा है कि कोई काम करना है तो बस करना है. पत्रकारीय जीवन में रहते हुए भी मैं मन की नहीं कर पा रहा था. अंदर की बेचैनी फ्रस्ट्रेशन लेवल तक पहुंचने को थी. सो खुद को वाइडर स्पेस देने के लिए मायानगरी की राह पकड़ ली. और जहां तक स्टेबिलिटी का सवाल है तो मन में स्थायित्व की भावना विकास की सबसे बड़ी बाधा है.
- एक मिडिल क्लास लड़के की आंखों में सिनेमा बनाने जैसा बड़ा ख्वाब कब घर कर गया?
- इस ख्वाब ने स्कूल के समय में ही जन्म ले लिया था. तब मैं स्कूल से भाग-भाग कर फिल्में देखा करता था. उस समय मन में ये ख्याल आता कि अगर मेरे पास पैसे हुए तो मैं अपने गांव में एक बड़ा सिनेमा हॉल बनवाऊंगा जहां मेरी बनायी फिल्में लगेंगी. फिर धीरे-धीरे नाटकों के जरिये कई इन्टेलेक्चुअल दोस्त बनें. पटना में फिल्म क्लब का मेंबर बनने के बाद फिल्मों को ले दूसरी तरह की समझदारी बढ़ी. तो एक तरह से कह सकते हैं कि ये ख्वाब एक प्रोसेस की तरह समय-समय पर मेरे अंदर मोडिफाई होता रहा.
- पत्रकारिता छोड़ने और पहली फिल्म शुरू करने के बीच का संघर्ष कैसा रहा?
- वो दौर तो लाइफ की कई रियल्टिज से सामना करा गया और काफी कुछ सिखा भी गया. एनडीटीवी में काम के दौरान दिल्ली में लोन पर मकान ले लिया था. अचानक नौकरी छोड़ने के बाद ईएमआई न चुकाने की वजह से घर नीलामी की नौबत आ गयी. एक कार खरीदी थी उसके क ज्रे अलग थे. कुछ वक्त को तो लगा जैसे अबतक का कमाया सबकुछ छिनने वाला है. लेकिन तब भी मन में ये पॉजिटिविटी बनी थी कि जो चीज ईएमआई पर टिकी हो उसका छिन जाना ही बेहतर है. पर संयोग कुछ ऐसा रहा कि उस दौरान टेलिविजन और फिल्मों में असिस्ट करने जैसे छोटे-मोटे काम मिल गये और जिंदगी पटरी पर आनी शुरू हो गयी. फिर स्क्रिप्ट को ले कर संघर्ष शुरू हुआ. प्रोडय़ूसर ढूंढने से लेकर एक्टर्स को रेडी करने का संघर्ष.
- इस दौरान परिवार वालों का रिएक्शन क्या रहा?
- फैमिली का ही सपोर्ट रहा जिसने मेरे अंदर के फिल्मकार को जिंदा रखा. इतने साल खपाने के बाद उन्हें भी लगा कि मुङो सपनों को जीने का एक मौका तो मिलना चाहिए. मैं चाहूंगा कि मेरी कामयाबी का बराबर श्रेय मेरी प}ी और बेटी को भी मिले जिन्होंने संघर्ष के दिनों में दो-ढाई साल मुझसे दूर रहना बर्दाश्त किया. यहां तक कहा कि अगर सफल ना हुए तब भी उसी प्यार से आपकी वापसी का स्वागत होगा.
- चलिए इसी बात को विस्तार देते हैं. अनारकली ऑफ आरा के स्क्रिप्ट से कैमरे तक का सफर कैसे तय किया?
- एक बात तो शुरू से दिमाग में तय थी कि काम नये लोगों के साथ ही करना है ताकि कंफर्टिवली अपने विजन को परदे पर ला सकूं. पर बाजार के दृष्टिकोण से एक स्टार फेस भी जरूरी था जो फिल्म बेचने में सहायक हो . शुरुआत में रिचा चड्डा इस फिल्म के लिए तैयार हुई. जो कि संयोग से मेरी दोस्त और टीवी में मेरी जूनियर थी. पर हाल ही में बिहारी पृष्ठभूमि पर बनी गैंग्स ऑफ वासेपुर में काम करने के बाद उन्हें लगा इतनी जल्दी फिर बिहारी किरदार निभाना कैरियर के लिहाज से सही नहीं रहेगा. सो उन्होंने मना कर दिया. इसी बीच प्रोडय़ूसर ने भी हाथ खींच लिये. मैं दूखी था. तभी उस स्क्रिप्ट को पढ़ने के बाद स्वरा भास्कर ने लीड रोल के लिए हां कर दी. स्वरा के हां से एक नये प्रोड्यूसर की भी रजामंदी मिल गयी. फिर आगे चलकर पंकज त्रिपाठी (जिन्होंने मेरी पहली फिल्म में काम करने का वादा किया था) और संजय मिश्र जी का साथ मिला.
- पिछले साल महिला मुद्दों पर पिंक, दंगल और पाच्र्ड जैसी फिल्में आयी. अनारकली इससे कितनी अलग है?
- अनारकली एक स्ट्रीट सिंगर की जर्नी है. पाच्र्ड को छोड़ दें तो बाकी फिल्मों का बैकड्रॉप अर्बन है. वहां औरतों की लड़ाई मर्द के जरिये लड़ी जाती है. पर अनारकली की लड़ाई खुद की है. वह अकेली ही समाज से लड़ती भी है और उठ खड़ी होती है. यहां उसकी मजबूती बाकी किरदारों से ऊपर हो जाती है.
- अनारकली के कैरेक्टर का रिफरेंस कहां से आया?
- एनडीटीवी में काम के दौरान ही मुङो ताराबानो फैजाबादी नाम की एक इरोटिक सिंगर का वीडियो देखने का मौका मिला. मैं स्तब्ध रह गया जब मुङो पूरे गाने के दौरान उस सिंगर का चेहरा एक्सप्रेशनलेस देखने को मिला. लगा, कैसे कोई सिंगर बिना किसी भाव के लोगों का मनोरंजन कर सकती है. फिर 2011-12 के दौरान गया में एक भोजपूरी सिंगर देवी के स्टेज शो के दौरान उनसे छेड़खानी की घटना सूनने को मिली. मेरे लिए दूसरा शॉकिंग तब था जब पता चला उस अकेली महिला के स्टैंड की वजह से बदतमीजी करने वाले यूनिवर्सिटी के अधिकारी को इस्तीफा देना पड़ा. मेरे अंदर इन दोनों घटनाओं से अनारकली के कैरेक्टर ने अपनी यात्र पूरी कर ली थी. देर बस उसे क ागज पर उतारने की थी.
- भोजपूरी सिनेमा के गिरते स्तर को किस नजरिये से देखते हैं?
- देखिए सारा मसला बाजार का है. बिहार अभी भी सिंगल स्क्रीन थियेटर के भरोसे चल रहा है. तो मुनाफे के लिए फिल्मों का बजट भी कम रखना पड़ता है. कम बजट में फिल्मकारों को मुनाफे के लिए ईलता और फूहड़पन ही बड़ा जरिया नजर आता है. दूसरी जिम्मेदारी दर्शकों की है. वो जबतक ऐसी फिल्में स्वीकारेंगे फिल्मकार बनाते रहेंगे. स्थिति में सुधार तभी होगा जब फिल्मकार ये स्वीकार करेंगे कि कम बजट या मुनाफे में भी अच्छी फिल्में बनायी जा सकती है.
- तो इस बदलाव की उम्मीद आपसे क्यों न करें?
- कर सकते हैं. मैं तो कहूंगा करना ही चाहिए. मेरी फिल्म अगर आप देखेंगे तो आपको एक अलग बिहार दिखेगा. चाहे वो पृष्ठभूमि के स्तर पर हो या भाषा के. और विश्वास रखिए मेरी हर फिल्म में कहीं न कहीं बिहार अपनी गरिमामयी आभा के साथ उपस्थित दिखेगा. पिछले दिनों फिल्म राइटर्स एसोसियेशन में भोजपूरी सिनेमा के गिरते स्तर को ले सेमिनार भी हुआ. तो चिंताएं हर ओर हैं. और ये संकेत है बदलाव का.
- पत्रकार और फिल्मकार के अलावा अविनाश के अंदर और क्या है?
- एक नॉवेलिस्ट या क वि. क विताएं तो मै अब भी करता हूं. पिछले दिनों मैंने अपने दरभंगा के दिनों को याद करते हुए कथा काव्य भी लिखा. तो राइटिंग का स्पेस मैंने खुद के अंदर अब भी बचा कर रखा हुआ है.
- बिहार से दूर होने के इतने अरसे बाद बिहार की सांस्कृतिक विरासत को खुद के अंदर किस हद तक पाते हैं?
- ईमानदारी से कहूं तो मेरे समय में जो सांस्कृतिक माहौल था उसने मेरे अंदर ऐसे-ऐसे बीज डाले हैं जो निकाले नहीं निकल सकता. मैं खुद भी कोशिश करूं तो उस भदेसपन से मुक्त नहीं हो सकता. और यही मेरी यूएसपी है. बिहार की सबसे बड़ी खासियत रही है प्रतिरोध की संस्कृति, जो मेरे अंदर गहरे जड़ जमा चुकी है. और बिहार की हर यात्र उस जड़ को और मजबूत कर देती है.
- युवाओं को इस फ ील्ड में कामयाबी के क्या मंत्र सिखाएंगे?
- मंत्र तो कुछ नहीं है बस मेहनत करना है. गिरना भी जरूरी है पर गिरने से डरकर या टूटकर राह मोड़ लेना सही नहीं है. गिरो और बार-बार गिरो, पर उस गिरने से सीख लेते हुए फिर उठ खड़े हो और सपनों का पीछा करो. तुम्हारी जिद ही तुम्हें मंजिल तक पहुंचाएगी.