Wednesday, April 5, 2017

इंटरव्यू: क्षितिज रॉय

               गंदी बात ने बना दिया पोपुलर राइटर
प्रतिभा किसी उम्र की मोहताज नहीं होती. हिंदी साहित्य के क्षेत्र में गंदी बातनॉवेल के जरिये दखल देने वाले भागलपुर के वर्षीय क्षितिज रॉय ऐसी ही प्रतिभा के धनी हैं. रेडियो के लिए कहानी लेखन का काम कर चुके क्षितिज अपने ब्लॉग लेखन और शॉर्ट फिल्मस के लिए भी जाने जाते हैं. साल 2017 में प्रकाशित गंदी बात ने उन्हें अचानक युवाओं का चहेता नॉवेलिस्ट बना दिया. गौरव से खास बातचीत में क्षितिज ने भागलपुर से दिल्ली होते हुए अपने यूथ आइकॉन बनने के इसी सफर को साझा किया.

- भागलपुर के क्षितिज की सहरसा और दिल्ली होते हुए साहित्य के क्षितिज पर छा जाने की संक्षिप्त जर्नी क्या रही?
- मेरी पैदाइश भागलपुर की है. पापा नेतरहाट स्कूल (रांची के पास) में टीचर थे लिहाजा मेरी भी दसवीं तक की पढ़ाई उसी स्कूल से हुई. उसके बाद मैं डीपीएस आरकेपुरम, दिल्ली आ गया. फिर मैंने किरोड़ीमल से ग्रेजुएशन और दिल्ली स्कूल ऑफ इकॉनोमिक्स से पोस्ट ग्रेजुएशन किया. इस बीच मेरे बचपन का काफी लंबा हिस्सा नानाजी के घर सहरसा में गुजरा. नानाजी काफी साहित्यिक किस्म के व्यक्ति थे. उनके पास मुङो राही मासूम रजा और कमलेश्वर जैसे बड़े साहित्यकार को पढ़ने का मौका मिला. अंदर में साहित्य के प्रति रुझान का बीज वहीं पनप गया शायद. अगर सच कहूं तो नानाजी का सानिध्य न पाता तो शायद कभी लिख भी ना पाता.
- बड़े साहित्यकारों को पढ़ने और खुद नॉवेल लिखने के बीच की यात्र कैसी थी?
- पढ़ते-पढ़ते रुझान तो साहित्य की ओर हो ही चुका था. क ॉलेज के दौरान मुङो रेडियो के लिए कहानी लिखने का मौका मिला. रेडियो पर नीलेश मिश्र के शो यादों का इडियट बॉक्स के लिए कहानी लिखने के क्रम में शार्ट फिल्म्स बनाने का ख्याल जेहन में आया. फिर मैने कुछ शार्ट फिल्म्स बनायी भी. मुङो हमेशा से अपनी भावनाएं व्यक्त करने के लिए अलग-अलग मीडियम की तलाश रही है. ऐसे ही किसी कोशिश में कहानी और फिल्म स्क्रिप्ट की दुनिया में विचरते-विचरते गंदी बात की रचना हो गयी.
- बात चली तो गंदी बात पर आते हैं. सबसे पहले तो ऐसे अनयुजूअल टायटल के पीछे की क्या कहानी रही?
- सच कहूं तो कहानी लिखते वक्त कोई भी टायटल मेरे दिमाग में था ही नहीं. जबकि अमूमन ऐसा होता नहीं. मेरी हर छोटी-बड़ी कहानी की शुरुआत तय टायटल से ही होती थी. पर इस कहानी का बड़ा हिस्सा लिखने के बाद भी टायटल जेहन से नदारद था. तभी कहीं ऑटो में गंदी बात गाना सूना. उस वक्त भी ये क्लियर नहीं था कि यही नाम हो सकता है. पर नॉवेल के कई सिक्वेंस पर गौर करने और राजकमल प्रकाशन के सत्यानंद निरूपम जी से विस्तृत चर्चा के बाद इस नाम पर सहमति बन गयी.
- गंदी बात के नायक गोल्डेन की जर्नी भी काफी हद तक आपसे मेल खाती है. ये महज संयोग है या कुछ और?
- पूरी तरह से तो नहीं कह सकता कि गोल्डेन और क्षितिज एक-दूसरे के प्रतिरूप हैं. बिहार से दिल्ली तक के सफर के अलावा कुछ एलिमेंट्स सिमिलर हो सकते हैं. पर ये मुझसे कहीं ज्यादा बिहार में छूट चुके मेरे दोस्तों की कहानी है. कई अलग-अलग किरदारों से मैंने गोल्डेन का रिफरेंस लिया. जिनमें मेरे दोस्त, ट्रेन के सफर में मिले एक अजनबी द्वारा साझा की गयी उसकी कहानी के अलावा रांझना मूवी के कुंदन का किरदार भी शामिल है. रांझना देखते वक्त मुङो लगा ये फिल्म वाले बिहार और यूपी के लड़के को हमेशा लड़कियों के पीछे भागने वाला क्यों दिखाते हैं. प्रेम में होने के साथ-साथ लड़कों की और भी अलग-अलग जर्नी होती है. काफी कुछ होता है उनकी यात्र में कहने को.
- कहानी में इस्तेमाल भदेस व अपारंपरिक भाषा से साहित्य की गरिमा दरकती नजर आती है. बाजार के दबाव में ये किस हद तक उचित है?
- देखिये ये गरिमा का मिथक मेरे अंदर पहली बार तब टूटा जब मैंने क ाशी का अस्सी को पढ़ा. उसे पढ़कर पहली बार मुङो लगा अगर आप अपने किरदार को उसके परिवेश, शिक्षा स्तर के लिहाज से भाषाई आजादी नहीं देंगे तो वो बनावटी हो जाएगा. और गरिमा के चक्कर में किरदार और कहानी से समझौता मेरी नजर में उचित नहीं है. एज एन रायटर आपको अपने किरदार को हर स्तर पर वो आजादी देनी होगी जो उसे खुलकर सामने आने का मौका दे. मैं गरिमा के बंधन में बंधकर अपनी डायरी तो लिख सकता हूं पर लोगों के जेहन में बने रहने के लिए मुङो उनके आस-पास की भाषाई शैली में उतरना ही होगा.
- इंटरनेट और सोशल मीडिया के यूग में किताबों के जरिये मास तक पहुंचना कितना चैलेंजिंग है?
- मैं इसे दूसरे तरीके से देखता हूं. आपको भी पता होगा कि पांच-सात साल पहले तक हम जैसे लेखकों को पब्लिशिंग हाऊस तक पहुंचने और अपनी किताब छपवाने में चप्पलें घिस जाया करती थी. पर ये सोशल मीडिया का ही प्रभाव है कि आपके लेखन से प्रभावित होकर हाऊसेज अब खुद राइटर्स को अप्रोच करने लगे हैं. तो अब आपके पास इन मीडियम्स के रूप में ऐसा प्लेटफार्म उपलब्ध है जो आपकी प्रतिभा को सही नजरों में ला सके. और जहां तक पाठक वर्ग की बात है तो अभी भी एक बड़ा तबका है जो किताबों में रुचि रखता है और उसे खरीदता है. यहां तक की पुस्तक मेलों में भी युवाओं का हिंदी साहित्य के प्रति रुझान पॉजिटीव उम्मीद जगाता है.
- ब्लॉग लेखक, शार्ट फिल्म मेकर, साहित्यकार के रूप में दुनिया आपको देख चुकी है. क्षितिज खुद को फ्यूचर में किस जगह पाते हैं?
- इस मामले में मैं बहुत लालची किस्म का इंसान हूं. एक दिन मैं खूद को किसी बड़े थियेटर के परदे पर किसी सिनेमा के बड़े राइटर के रूप में देखना चाहता हूं. फिर आगे मुङो खुद की लिखी फिल्म डायरेक्ट भी करनी है. अभी कुछ फिल्म्स की स्क्रिप्ट राइटिंग के लिए बातचीत भी फ ाइनल दौर में है. और मेरा मानना है कि डायरेक्शन का रास्ता भी स्क्रिप्ट राइटिंग से होकर ही जाता है. तो स्क्रिप्टिंग के जरिये मैं भी खुद को एक बड़े डायरेक्टर के रूप में स्टेबल करने का ख्वाब पाले बैठा हूं.


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