कमजोर और बिखरी कहानी से नूर बेनूर
नॉवेल
को सिनेमा की शक्ल देना मुल
कहानी पर आधारित फिल्म बनाने
से कहीं ज्यादा रिस्की है.
जरा
सी चूक सिनेमा की किरकिरी करा
सकती है.
चुंकि
दर्शक पहले से ही नॉवेल के
पाठक होते हैं जिसकी वजह से
वो फिल्म में भी कहानी की उसी
आत्मा और रस का विस्तार चाहते
है.
तब
छिछले तौर पर रुपांतरित कोई
भी कहानी उनकी संतुष्टि पूर्ण
नहीं कर पाती.
कुछ
ऐसी ही स्थिति पाकिस्तानी
जर्नलिस्ट सबा इम्तियाज के
उपन्यास कराची यू आर किलींग
मी पर आधारित सुनील सिप्पी
की नूर की रही.
नूर
गढ़ते समय सुनील ने न केवल
किरदार का नाम बदला बल्कि
परिवेश व अन्य स्तरों पर भी
तब्दीलियां तो की,
पर
उसे मुकम्मल शक्ल नहीं दे
पाये.
उनकी
सबसे बड़ी खामी तो पत्रकारिता
आधारित इस कहानी का पत्रकारीय
जीवन की हकीकत से क ोसों दूर
होना रहा.
नूर
रॉय चौधरी (सोनाक्षी
सिन्हा)
एक
महत्वकांक्षी जर्नलिस्ट है.
सोशल
व रियल रिपोर्टिग में रुचि
रखती है.
पर
मार्केट और चैनल के दबाव में
उसे बॉलीवूड रिपोर्टिग भी
करनी पड़ती है.
खुद
में मशगुल रहने वाली नूर की
बिखरी-बिखरी
जिंदगी में उसके पिता और दो
दोस्त भी हैं.
उसके
बचपन का एक दोस्त अयान (पूरब
कोहली)भी
है जिसपर वो सबसे ज्यादा भरोसा
करती है.
कहानी
में दिलचस्प मोड़ तब आता है
जब नूर की एक स्कैम बेस्ड रियल
स्टोरी चोरी करके किसी और के
नाम से चला दी जाती है.
शुरुआत
में किरदारों को स्थापित करने
में ही कहानी काफी खिंच जाती
है.
बगैर
पत्रकारीय शोध परिवेश की
संरचना भी बनावटीपन का अहसास
देती है.
इस
सुस्त माहौल में कुछ असर करता
है तो बस सोनाक्षी का बंधनमुक्त
अभिनय.
नूर
के किरदार में सोनाक्षी निर्बाध
रूप से खुद की ही सीमाएं तोड़ती
नजर आती है,
पर
कमजोर कहानी और फिल्मांकन
में उनकी मेहनत बिखर कर रह
जाती है.
रही-सही
कसर कमजोर क्लाइमैक्स के जरिये
पूरी हो जाती है.
और
फिल्म मुकम्मल अंजाम तक पहुंचने
से पहले ही दम तोड़ देती है.
फिल्म
के गानों के साथ-साथ
लोकेशंस और सिनेमेटोग्राफी
से जरूर थोड़ी राहत का अहसास
होता हैं.
क्यों
देखें-
अगर
आप सोनाक्षी के जबर फैन हैं
तो एक बार फिल्म का दीदार कर
सकते हैं.
क्यों
न देखें-
किसी
उम्दा विषय की उम्मीद में हों
तो.
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