Saturday, April 15, 2017

फिल्म समीक्षा

                   बंटवारा देश से दिलों तकबेगम जान

बेगम जान दो साल पहले आयी बंग्ला फिल्म राजकहिनी का हिंदी रिमेक है. निर्देशक श्रीजित मुखर्जी ने उस वक्त भी फिल्म के लीड किरदार के लिए विद्या बालन को लेना चाहा था, पर कुछ कारणों से वह यह फिल्म कर नहीं पायी. फिर जब महेश भट्ट ने श्रीजित को इसके हिंदी रिमेक पर काम करने को कहा तब वो ये कहानी लेकर दोबारा विद्या के पास गये. बेगम जान भारत-पाकिस्तान के बंटवारे पर बनी अन्य प्रेम कथाओं वाली फिल्मों से इतर बंटवारे में घर-बार लुटा चुके विस्थापितों की कहानी कहती है. जिनके लिए बंटवारे के वक्त खींची गई रेडक्लिफ लाइन महज एक लकीर नहीं बल्कि उनकी जिंदगी को दो टुकड़ों में बांटने वाली लाइन थी. बंटवारे के इस दंश के साथ-साथ श्रीजित औरतों की सामाजिक स्थितियों को भी कहानी में पिरो जाते हैं और साफगोई से बता जाते हैं कि समय चाहे बंटवारे के वक्त का हो या वर्तमान का, औरतों की सामाजिक स्वीकरोक्ति ज्यों की त्यों है. 2016 के साथ शुरू हुई कहानी जब कालातीत(1947) में पहुंची तब भले माहौल अलग था पर औरतों की स्थितियां तब भी वही थी. अहम मुद्दे और उम्दा अदाकाराओं के साथ फिल्म टुकड़ों-टुकड़ों में आपको प्रभावित जरूर करती है, पर सारे मजबूत पक्षों को एक साथ कहानी में पिरोते वक्त श्रीजित खुद बिखर से जाते हैं जो उनकी फिल्म की उनकी बुनावट में साफ झलकती है.
कहानी शुरू होती है पंजाब के एक छोटे से गांव से, जहां बेगम जान(विद्या बालन) का क ोठा है. बचपन में बेवा हो चुकी बेगम तवायफ का धंधा करते-करते वहां के राजा(नसीरुद्दीन शाह) की छत्रछाया में अपना क ोठा खड़ा कर लेती है. वक्त बीतने के साथ अलग-अलग शहरों की आठ-दस और लड़कियां उसके क ोठे में आ जाती हैं. राजा जी की सरपरस्ती में बेगम अपनी हुकुमत चलाती है. गांव का थानेदार और मुखिया भी गाहे-बगाहे उसकी दहलीज लांघते रहते हैं. कहानी में मोड़ तब आता है जब बंटवारे के लिए रेडक्लिफ के तैयार नक्शे को लागू करने के लिए कंटीले तारों का बाड़ बनाने का काम शुरू होता है. और बेगम जान का क ोठा बंटवारे की उस लकीर के बीचो-बीच आ जाता है. बेगम क ोठा खाली करने से मना कर देती है. हुक्म की तामील कराने आये भारत और पाक के अधिकारी श्रीवास्तव जी(आशीष विद्यार्थी) और इलियास (रजत कपुर) क ोठा खाली करवाने के लिए कबीर (चंकी पांडे) की मदद लेते हैं. फिर शुरू होता है बंटवारे के रहनुमाओं और अपने अस्तित्व की खातिर खड़ी महिलाओं के बीच जंग. जिसका अंजाम निश्चित तौर पर आपको अंदर से झकझोर देगा.
कमजोर एडिटिंग और कहानी के बिखराव की वजह से फिल्म पहले हाफ में थोड़ी लचर दिखती है. पर दूसरे हाफ तक आते-आते रौ में आ जाती है. सेंसर बोर्ड की कैंची से बचे फिल्म के कुछ संवाद सीधा दिल को भेदते हैं. श्रीधर का फिल्म के कई हिस्सों में भारत की वीरांगनाओं की छवि को विद्या बालन के रूप में पेश करना भी भाता है. औचित्य बस इतना की बात चाहे लक्ष्मीबाई की हो या रानी पद्मावती की हो या बेगम जान की, औरतें हर रूप में उतनी ही ताकतवर होती है. फिल्म की सबसे बड़ी ताकत कुछ है तो कलाकारों का उम्दा अभिनय. बेगम जान के किरदार में विद्या की संजीदगी और क रूण व रौद्र पलों में उनके चेहरे का भाव उनकी समर्थता जाहिर करता है. सहयोगी भुमिकाओं में उन्हें इला अरूण और बाकी की अभिनेत्रियों का भी अपेक्षित सहयोग मिला है. नसीरुद्दीन शाह, विवेक मुश्रन, आशीष विद्यार्थी व रजत कपुर भी सराहनीय हैं. आशा भोंसले अरिजित सिंह की आवाज में पाश्र्व में चलते फिल्म के गाने कहानी को जरूरी गति देते हैं.
क्यों देखें- बंटवारे के दंश को दिखाती एक अलग किस्म की फिल्म देखनी हो तो.
क्यों न देखें- फिल्म व्यस्कों के लिए है तो ख्याल रखना जरूरी है.



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