Thursday, April 25, 2013

..यहां पे सब गांधी-गांधी है


                           रघुपति राघव राजा राम.. भू?ो पेट सोने क ी तमाम कोशिश बेकार जाने के बाद ध्यान बंटाने के लिए धनेसर पेट पर हाथ र?ाकर गुनगुनाने लगा. बीच-बीच में भू?ा से चिहुंकते चिंटुआ क ी आवाज भी गाने में बैकग्राउंड म्युजिक क ा अहसास करा रही थी. अचानक ?ाट्-?ाट् क ी बाहर से आती आवाज से धनेसर क ा आवाज भंग होता है.पहले तो उसने सोचा उठकर दे?ाूं कौन है, फिर सोचा घर में एक्को दाना त है नहीं, चोरो-चुहाड़ होगा तो का ले जाएगा. इ सोचकर ऊ फिर से गुनगुनाने लगा. पर तेज होती ?ाट्-?ाट् क ी आवाज ने उसे भू?ा जितना परेशान कर दिया. मन मसोसकर उठा और ?ींजते हुए बोला-
‘‘अरे कउन है हो, अधरतियो में ?ाट्-?ाुट कइले है, सुतहूं देगा कि ना..’’
‘‘धनेसर,अरे हम हैं.. गांधी’’
‘‘गांधी! अरे कउन गांधी..ई गांव में तो कउनो गांधी है नहीं,कउनो चोर-चुहाड़ तो न-न हो जी’’
‘‘अरे नहीं भाई,हम हैं मोहन दास..अरे तुम्हारा अपना महात्मा गांधी.’’
‘‘महात्मा गांधी! (आश्चर्य से) ढेरे पउआ चढ़ा लिए हो का?’’
‘‘विश्वास नहीं होता तो पास आके दे?ा लो’’
अंधेरे में धनेसर ने पास जाके दे?ा,‘‘शकल से तो लग रहे हैं बापू टाइप, पांचवा के किताब में दे?ो थे, पर आप इहां कइसे..’’
‘‘बड़ा मन कर रहा था दे?ाने का अपने देश को, यहां के लोग क ो,सो चला आया, पता नहीं लोगों को हम याद-वाद भी हैं कि नहीं’’
‘‘याद! का कह रहे हैं बापू..अरे ई देश में तो बिना आपके किसी को चैने नहीं मिलता है, समुचा देश आपहीं के पीछे तो भाग रहा है.’’
‘‘सच धनेसर!’’
‘‘आउर न तो का, विश्वास नहीं है त चलिए घुमा लाते हैं. अपना चश्मा से दे?िाएगा त ?ाुदे मान जाइएगा.’’
‘‘ये बात है तो चलो, अब तो हम भी ए?साइटेड हो गये हैं आजाद भारत के गांधी प्रेम को दे?ाने के लिए ’’
‘‘बचाओ-बचाओ’’
अचानक सड़क पर चार लोग किसी की पिटाई करते दि?ो.
‘‘अरे-अरे ये हिंसा ?यूं कर रहे हैं लोग’’
‘‘चुपचाप दे?ाते न जाइए बापू, सामने बइठल ?ाकी वर्दी वाला त कुछ करीए नहीं पा रहा है, आप का कर लीजिएगा.’’
तभी मार ?ाने वाला भागकर ?ाकी वाले के पैरों में गिर पड़ता है-
‘‘बचा लीहिं हुजूर, सब मिलके मार दी हमरा..’’
‘‘भागता है कि न एइजा से, ई हमरा थाना से बाहर का मैटर है, एगो हरिहर पत्ता निकाल तो अभी के अभी मामला हियें सलटा देते हैं’’थानेदार अपना लाठी दि?ाते हुए बोला.
‘‘दे?ो न बापू, अपने परम भक्त क ो..आपके लाठी का कइसे उपयोग कर रहा है ’’
‘‘ये..मेरा भक्त?’’
‘‘आउर न तो का? आप ही न कहे थे बूरा मत दे?ाो,तो ई लोग कुच्छो बूरा दे?ाता ही नहीं है, बस आप ही के नाम का माला जपता रहता है’’
‘‘मुर्?ा मत बनाओ धनेसर, इसने तो एक बार भी मेरा नाम नहीं लिया’’
‘‘सब बूझ जाइएगा बापू, चलिए एगो और परम भक्त से मिलवाते हैं आपको’’
घुमाते-घुमाते धनेसर गांधी जी को ले गया विधायक जी के आवास पर-
‘‘इ है हमरे विधायक जी का घर.?िाड़की से झांक के दे?िाए न, आप भी गदगदा न गए विधायक जी का गांधी प्रेम दे?ा के तो कहिएगा.’’
गांधी जी ने जिस तेजी से अपना सिर ?िाड़की से अन्दर किया उससे दोगूने तेजी से बाहर निकाला.
‘‘हे राम! ये जन प्रतिनिधि तो नोटों की गड्डी पे सोया है, पं?ा भी नोटों से ही झल रहा है ’’
‘‘असली चीज तो आप दे?ाबे नहीं किये, तनि गौर से दे?िाए न, सब बुझा जाएगा’’
मन मसोसकर गांधी जी ने एक बार फिर सिर अन्दर किया, अन्दर का नजारा दे?ा उनकी तो आं?ों चौड़ी हो गयी. विधायक जी हाथ में पांच-पांच सौ के नोटों की गड्डी लिए बेतहाशा चूमे जा रहे थे. नोट पर अपनी तस्वीर दे?ा उन्हें पल में ही धनेसर की सारी बात समझ आ गयी.     चुपचाप सिर बाहर किया और और इससे पहले वो कुछ बोलते धनेसर ने कहा-
  1. ‘‘दे?ो बापू, ई लोग हैं आपके दूसरे भक्त. बूरा मत सुनो वाले. कउनो की सुनते ही नहीं है, बस लगल रहते हैं आप ही के भजन-कीर्तन में’’

‘‘अब और मत बताओ धनेसर, सब समझ गए हम. लोगों को अब हमसे ज्यादा हमारे फोटो से प्यार हो गया है ’’
‘‘प्यार! अरे अइसा-वइसा प्यार, आपके सि?योरिटी के लिए तो अब आपको इंडिया के बदले विदेशी बैंक में र?ाने लगा है लोग’’
‘‘बस करो भाई,अब यही सुनना बाकी रह गया था. जिंदगी भर स्वदेशी-स्वदेशी का रट लगाने वाले को मरने के बाद विदेशी बैंक में भेज रहा है, भगवान जाने किस जनम का बैर निकाल रहा है’’
‘‘अभी कहां, आप त रात में आयें हैं, दिन में आते तब न आपको दि?ाते, सरकारी बाबू के दराज से लेके  संसद के मेज तक, कोयला  के ?ादान से आदर्श मकान तक, गाय-भैंस के चारे से स्विस के द्वारे तक,चारों ओर त आपे-आप हैं’’
‘‘?यों शर्मिदा करते हो धनेसर, अब और दे?ाने की हिम्मत नहीं है मुझमें. अब तो यहां आने में भी..?ौर छोड़ो, जाते-जाते ये भी बता ही दो मेरे तीसरे भक्त आजकल कहां हैं’’
‘‘ई तो मते पुछिए बापू..’’
AA‘‘डरो मत, जब इतना कुछ ङोल लिया तो ये भी ङोल ही लूंगा’’
‘‘त सुनिए, उहां तक पहुंच नहीं है, न तो उनसे भी मिलवाइए देते. टॉप लेबल पर बइठल है लोग, बस एक्के राग अलापते हैं..सौ बूरी बातें बोलने से मेरी एक ?ामोशी भली. अब रहने भी दीजिए, सब ?ाोलिए के बोलवाइएगा क ा!’’
‘‘अब बोलने को और बचा ही ?या!’’
?ाट्-?ाट् की आवाज के साथ लौटते बापू की सिसकियां रात की ?ामोशी में गूम होती जा रही थी और धनेसर अपनी भू?ा से पीछा छुड़ाने के लिए मस्ती में गुनगुनाता जा रहा था-
‘‘यहां पे सब गांधी-गांधी है’’
                                                                                           गांधी जयंती पर व्यंग्य
                                                                                                  गौरव

जीना तो इसी का नाम है



ये दौलत भी ले लो,ये शोहरत भी ले लो,भले छीन लो मुझसे मेरी जवानी..
मगर मुझको लौटा दो बचपन का सावन, वो क ागज की कश्ती वो बारिश का पानी..
क ौन होगा जो ये गाना सूनकर अपने बचपन में न लौटना चाहे. पर पिछले चार दिनों में मै जिन-जिन से मिला उन्हें दे?ाकर पहली बार अहसास हुआ कि आज से दस-पन्द्रह साल बाद वो शायद ही अपना बचपन फिर से जीना चाहें. चाहे वो कचरे के ढेर पर अपना जीवन तलाशती  दूर्गा हो या स?िायों के संग कूड़े के ढेर से मिले ?िालौनों में अपनी ?ाुशियां तलाशती तीन साल की मुस्कान. कहते हैं बचपन जीवन का सबसे ?ाूबसुरत लम्हा होता है. ताउम्र आदमी उन्हीं लम्हों में अपने जीवन की सारी ?ाुशियां तलाशता है. गुड्डे-गुड़ियों के ?ोल में हर बचपन अपनी पूरी जिंदगी संवार रहा होता है. पर जब वही बचपन अपने नाजूक पलों में जवानी और बुढ़ापे के थपेड़े ङोलने को मजबूर हो, बि?ार चुकी जिंदगी को कूड़े-कचरे में मिले तार से सीने को मजबूर हो, तो कोई कैसे उम्मीद करे कि जीवन के किसी मोड़ पर वो फिर से वही लम्हा जीना चाहेगा.
एक चॉकलेट के टूकड़े में ?ाुशियों का हर रंग तलाशती आरती की आं?ाों ने मेरे लिए ?ाुशियों के मायने ही बदल दिये. नये कपड़े पहनते चांद के चेहरे की चमक दे?ाकर लगा जैसे वो चांद के लिए सिर्फ कपड़े भर नहीं, बल्कि ?ाुशियों का जामा हो. कभी सोचा भी नहीं था कि जिसे हमने एक छोटा सा अभियान समझा था वो केवल अभियान न रहकर किसी के चेहरे की मुस्कान बन जाएगा. ‘मै भी ?िालौने छूना चाहती हूं’,‘कचरे में ही अपनी जिंदगी तलाशता हूं’, ‘अब तो रेलवे प्लेटफार्म ही मेरा संसार है’, ‘जिस दिन कबाड़ बेचकर बीस रुपया कमा लिया, अपनी तो उसी दिन दीवाली है’ इन ?ाबरों को पढ़कर दिल में उमड़े जज्बातों की छोटी सी लहर ने उन बच्चों से मिलते ही जैसे सैलाब का रूप ले लिया. लगा जैसे या ?ाुदा! कोई इन्हें मेरा बचपन दे दे. नन्हें-नन्हें हाथों में जब हमारी टीम ने ‘आओ दीप जलाएं ’अभियान के तहत चॉकलेट्स, बिस्किट्स, मिठाईयां, कपड़े और दीये र?ों तो यकीन जानिए दीपावली के सैकड़ों दीपों की चमक से कई गुना ज्यादा चमक उनकी आं?ाो में उतर आयी. जज्बातों की रौ में बच्चों के ?ाुशियों की लौ जल उठी. हर वो हाथ जिसने इस लौ को जलाने में अपना सहयोग दिया उनके जज्बे को सलाम. चाहे वो स्कूल के स्टूडेंट्स हो,जिन्होनें अपने दीपावली पॉकेट मनी को किसी की मुस्कुराहट पे कुर्बान कर दिया या गृहणियां, जिन्होनें कहीं न कहीं उन बच्चों में भी अपने बच्चे की अ?स दे?ी. पर सिलसिला यहीं न थमने पाये, ?योंकि अगर आपने एक भी बचपन को उसकी मासुमियत लौटा दी तो यकीन जानिए, जमाने भर की ?ाुशियां उस एक ?ाुशी के आगे फ ीकी पड़ जायेगी. आज इस अभियान ने सचमुच सि?ा दिया कि-
                         किसी की मुस्कुराहटों पे हो निसार, किसी का दर्द मिल सके तो ले उधार
                         किसी के वास्ते हो तेरे दिल में प्यार, तो जीना इसी का नाम है..
                                                                                                       -गौरव    


वो सम्मान वापस दिला दो


टिंग-टॉंग..डोर बेल का बटन दबाते हुए मेरे मन में एक अजीब सी खुशी थी. आज पहली बार सांता का गेटअप पहन किसी को गिफ्ट बांटने निकला था. सोचा दो-चार लोगों के चेहरे पर ही मुस्कान ला दूंगा तो मेरे लिए बहुत बड़ी खुशी होगी.
क ौन? अन्दर से किसी लड़की की आवाज आयी.
मै सांता..गिफ्ट देने आया हूं.
सांता! (खुशी से चहकते हुए) पर अगले ही पल एक मायुसी भरी आवाज आयी- सॉरी सांता अभी मम्मी-पापा नहीं हैं, दरवाजा नहीं खोल सकती. कल दिन के उजाले में आना, आओगे न..
मम्मी ने मना किया है! पर ?यों?
वो तो नहीं पता, पर मम्मी कहती हैं, जबतक मै घर ना लौटूं दरवाजा नहीं खोलना. ?योंकि रात में अब अपना घर भी सेफ नहीं है,सॉरी सांता..
बुङो मन से मैने अगला दरवाजा नॉक किया. क ी-होल से झांकते हुए फिर किसी युवती की चहकती आवाज आयी-
अरे सांता! लगा शायद पहला गिफ्ट इसी के हाथ जाना लिखा है.
हां, मै सांता, गिफ्ट देने आया हूं. दरवाजे की छिटकनी खुली,पर अगले ही पल-
तुम सचमुच के सांता हो?
मतलब?
मतलब, कहीं बाकियों की तरह तुम्हारे मुखौटे के पीछे भी कोई..
मै समझा नहीं..
रहने दो सांता, अब तो क ौन चेहरा इंसान का है और क ौन शैतान का पता
ही नहीं चलता. माफ करना,मै तुमपर विश्वास नहीं कर सकती.
बुङो मन से खुशियों के सारे गिफ्ट्स दर्द की पोटली में समेटे मै वापस लौटने लगा. तभी नजर घने क ोहरे और रात के साये में फुटपाथ पर बैठी एक लड़की पर पड़ी. सोचा शायद ये गिफ्ट्स इसे गम के साये से बाहर ले आये.
ये लो बेटी..शायद तुम्हें ही इसकी सबसे ज्यादा जरूरत है. गिफ्ट उसकी ओर बढ़ाते हुए बोला.
उसने कातर निगाहों से मुङो देखा और कहा-
गिफ्ट्स मेरे किस क ाम के..मुङो जो चाहिए वो तुम नहीं दे सकते..
?या चाहिए, बताओ तो..
अभी थोड़ी देर पहले कुछ शरीफों ने मेरी आबरू की चादर के चिथड़े कर डाले. ?या कहीं से वो चादर ला सकते हो, ?या वो सम्मान वापस दिला सकते हो!
मै नि:शब्द रात के सन्नाटे में उसकी सिसकियां सुनता जा रहा था, और सांता बना अपनी बेबसी पर आंसू बहा रहा था.                                                                                                                                     -गौरव





बाबुजी, एक बोरा गोइठा ले ले अइह


आज सुबह अचानक घुमते-घुमते मै दो-तीन मुहल्लों की सैर कर बैठा. बिना किसी पूर्व नियोजित इस सैर से हालांकि मुङो कोई फ ायदा तो नहीं हुआ, पर अलग-अलग घरों के कुछ मजेदार वाकये मेरे कानों में पड़े. लीजिए, आप भी सून लीजिए-
सीन 1:
मिसेज शर्मा के घर अरली मॉर्निग मिसेज वर्मा आ धमकती हैं-
‘‘हाय! मिसेज शर्मा’’
सुबह-सुबह उन्हें देख मिसेज वर्मा की दायीं आंख फड़क उठी -
‘‘अरे मिसेज वर्मा. आइए-आइए, इतनी सुबह-सुबह’’
‘‘हां काफी दिन हो गये थे. इधर से गुजर रही थी सोचा मिलती चलूं’’
‘‘हां-हां क्यूं नहीं,बैठिए. पर माफ कीजिएगा मिसेज वर्मा कल दूधवाले ने दूध नहीं दिया वरना चाय जरूर पिलाती’’
‘‘अच्छा कोई बात नहीं, मै नींबू वाले चाय से ही क ाम चला लूंगी’’
‘‘अब क्या बताएं मिसेज वर्मा, आखिरी नींबू बची थी, वो भी कल रात ही मैने चेहरे पर लगा ली’’
‘‘अच्छा कोई बात नहीं. मै भी जरा जल्दी में हूं, वो क्या है कि आपसे एक जरूरी बात करनी थी’’
मिसेज शर्मा समझ गयीं कि दायीं आंख फड़कने का रिजल्ट आने वाला है.
‘‘जी कहिए न..’’
‘‘वो क्या है कि कल ही रात मेरा सिलिंडर जवाब दे गया. सो अगर आप..’’
‘‘बस-बस मिसेज शर्मा. मै समझ गयी. अब आपसे क्या छुपाएं, सब्सिडी वाला पांचवा सिलिंडर चल रहा है, इसीलिए चाय-वाय पीना भी छोड़ दिया है. अब आखिरी सिलिंडर भी आपको दे दूंगी तो अगली बार मुङो साढ़े आठ सौ भरने पड़ेंगे. और कोई मदद चाहिए तो जरूर बताइए, आखिर वर्षो का साथ है, बस सिलिंडर की बात भूल जाइए. ’’
फिर दरवाजे से निकलती मिसेज वर्मा का लटका मुंह देख मै वहां से आगे निकल लिया-
सीन 2  चाय की फरमाइश करते धनेसर बाबु ज्योंहि डायनिंग टेबल पर पहुंचे मिसेज हत्थे से उ?ाड़ गयीं.‘‘आखिरी सिलिंडर है सब्सिडी वला,इहो आपके चाय-ताय के फेर में खतम हुआ न तो बुङिाएगा. चुल्हा फुंकवाएंगे आप ही से.’’
‘‘अरे का कहती हो, अच्छा दू गो बिस्कुटे दे दो, पानी पी के क ाम चला लेंगे’’
‘‘अच्छा त एगो औरो बात सून लीजिए. कल गैस एजेंसी वला आया था,कह रहा था मियां-बीवी दूनो के नाम पर कनेक्शन है,एगो को डेडे कर देगा’’
‘‘का! (थोड़ा सोचते हुए) ए मैडम हम का सोच रहे थे, काहे न हमलोग टेंपरोरी तलाक ले लें. कह देंगे अलगे-अलगे खाना बनता है, त दूनो कनेक्शन वैध रहेगा ’’
‘‘पगला-उगला गए हैं का जी. मुंआ ई सिलिंडर जे न करावे. जइसे चलाना है चलाइए पर भोरे-भोर हमको मत बमकाइए’’
इससे पहले ऊ और गरमाती, हम भी वहां से खिसक लिए-
सीन 3:
अचानक किसी के फोन पर जोर-जोर से गपियाने की आवाज सून मै ठिठक गया. 
‘‘त हम का करीं बाबुजी, आइल बानी पटना पढ़ाई करे, अब इहां पढ़ीं कि खाए-पिए के फेर में हर पांचवा दिन सौ-सौ रुपया भरीं’’
‘‘लेकिन ए बउआ, खइबù-पियबù ना त पढ़ाई कइसे करबù’’
‘‘अब रउओ सरकारे वला भाषा मत बोलीं. एजेंसी में स्टूडेंट ला गैस नइखे आ बगली में सौ-सौ रुपया किलो गैस ब्लैक करावे ला जाने कहां से सिलिंडर आ जाता सरकारी गोदाम में. एगो क ाम करù बाबुजी..’’
‘‘बोल न बउओ’’
‘‘अबरी पटना अइहù त एक बोरा गोइठे ले ले अइहù. लिट्टी सेंक के खाइब पर अब सौ-सौ रुपये किलो गैस ना भराइब’’
                                                                                                  व्यंग्य
                                                                                                   गौरव

..हिंदी डे ई का होता है जी!


                                                ‘‘डार्लिग सुनती हो ’’ सवेरे-सवेरे शहद से भी मीठी नेताजी की आवाज सुनते ही नेताइन के मन में थोड़ा डाउट हुआ.
‘‘का हुआ, आज महीनों बाद एतना मीठ-मीठ बोली सुनने को मिल रहा है, कुछ खास है का?’’
‘‘अरे पूछ मत, खास एतना कि सुनेगी तो तुहो कूदने लगेगी.’’
‘‘अइसा! का हुआ जी, जल्दी बताइए न.’’
‘‘अच्छा तो सुन, आज तोहरे हसबेंड जी को शहर के सबसे बड़े कॉलेज में लेर.. हम्मर मतलब भाषण देने का इनभिटेशन मिला है.’’
‘‘भाषण! अच्छा ऊ कउन खुशी में जी?’’
‘‘धत् बुड़बक! इहो नहीं जानती, अरे आज हिंदी डे है.’’
‘‘हिंदी डे! ई का होता है जी?’’
(थोड़ा सोचते हुए)‘‘का होता है! इ तो.. हमको भी नहीं मालुम, पर कला-संस्कृति विभाग का नेता होने के नाते एतना नॉलेज जरूर है कि आज के दिन सब काम हिंदीए में किया जाता है.’’
‘‘अच्छा! तो आज एही खुशी में आइ लभ यू भी हिंदीए में बोल दीजिए न.’’
(खींजते हुए)‘‘चाटेगी माथा! अब चुपचाप एगो काम कर, पिछला ईयर हिंदी डे पर जे हिंदी का मोटका पोथी (किताब) लाए थे, ऊ बक्सा से जल्दी निकाल के दे तो.’’
‘‘रे दइया! ऊ किताब तो हम शायद रद्दी वला को बेच दिये.’’
(बमकते हुए)‘‘एकदम बकलोले है का तू. अरे ऊ तो चिंटुआ का हिंदी वला बुक न बेची थी. हम हिंदी दिवस वाला बुक मांग रहे हैं,अरे उहे जे फटलका चद्दर में लपेट के बक्सा में रखे थे, भूला गयी का.’’
‘‘अच्छा ऊ..अभी निकालते हैं’’
थोड़ी देर में-
‘‘ए जी, ऊ तो लगता है दीवाली के झाड़-पोछ में कहीं और धरा गया, मिलीए नहीं रहा है.’’
‘‘अब अरली मॉर्निग बमकाओ मत हमको..एतना मुश्किल से चांस मिला है, उहो मिस हुआ न तो बूझ लेना.’’
फिर शुरू हुआ ऑपरेशन हिंदी खोज. बक्सा, आलमीरा, लॉकर, दराज..डेढ़ घंटे के मैराथन के बाद आखिर मिल ही गयी हिंदी बूक. मिली भी तो कहां, चट्टी के बोरे में लपेट कर छज्जे पर पड़ी हुई.
‘‘चलो, मिला तो सही, (धूल-गरदा झाड़ते हुए) अब फटाफट इसको कउनो रेशमी कपड़ा में लपेट कर दो, पहिले ही टू मच लेट हो गये हैं.’’
आखिरकार तालियों की गड़गड़ाहट के साथ नेताजी स्टेज पर पहुंचे.
‘‘रेस्पेक्टेड गेस्ट..आई मीन..मेरा मतलब..सम्मानित अतिथीगण, भाईयों और बहनों, कहते हैं हिंदी, भाषा की बिंदी है. पर आज की पीढ़ी तो जैसे बिंदी लगाना ही भूल गयी है. दिनकर, निराला, बच्चन जी की हिंदी अब स्टडी रूम से आउट होकर घर के छज्जे पर रखी जाने लगी है. हिंदी पर लेर तो सब देते हैं, पर सम्मान करते वक्त खुद की फीलिंग ही डेड हो जाती है. मेरा मन रो उठता है जब मै आज छोटे-छोटे बच्चों को अ™ोय, चौहान जी की कविताओं के बदले शकीरा और ब्रिटनी के अंग्रेजी गानों संग लिपटे-चिपटे देखता हूं.
आज हिंदी दिवस के अवसर पर मै अपने विभाग की ओर से ये वादा करता हूं कि जल्द से जल्द मै शेक्सपियर और मैकबेथ की रचनाओं का हिंदी अनुवाद कराऊंगा और हिंदी की गरिमा को आगे बढ़ाऊंगा..जय हिंद, जय इंडिया.’’
धम्म से घर में सोफे पर बैठते हुए नेताजी दिन भर का व्याख्यान सुनाते हुए बोले-
‘‘काश! आज तूम भी ऊंहा होती, का गर्दाझार लेर दिये हैं.. पर हम तो एतना शुद्ध हिंदी बोले कि तुम तो अंडरस्टैंडे नहीं करती, चलो जाने दो. बहुते थक गये हैं(हिंदी दिवस किताब वाले रेशमी रुमाल से मुंह पोंछते हुए) अब इ किताब को रख दो, अगिला साल फिर काम आएगा. और हां! अइसा जगह रखना कि अगिला साल सर्चिग में आसानी हो..’’
और इस तरह एक और हिंदी दिवस ने विदा ली, इस इंतजार के साथ कि शायद अगले साल उसकी किताब को फिर से स्टडी रूम में जगह मिल जाए.
-गौरव

माट साहेब का सम्मान समारोह


             रोज की भांति आज भी राम पदारथ बाबू की नींद खूली प}ी के गजर्न वाले अलार्म से. दोनो बुतरू सुबह-सुबह किचेन में खाली कटोरे और थाली से हिमेश रेशमिया टाइप कोई रीमिक्स धुन बना रहे थे. बीच-बीच में उनके मुंह से निकलती काएं-कोएं की आवाज जैसे कोरस का काम कर रही थी. दिन भर जैसे स्कूल में बच्चे राम पदारथ बाबू का बेमन से लेर सुनते, वैसे ही रोज सुबह घर में पदारथ बाबू की क्लास लगती थी.
- का धनरूआ की अम्मा..कम से कम आज तो अपने शब्दों के वाण कमान से मत छोड़ो..
-काहे..काहे ना चलाएं..आज कौन सा ज्ञानपीठ मिलने वाला है आपको, जो..
-अरे मेरा न सही, आज के दिन का तो ख्याल करो..आज टीचर्स डे है..
टीचर्स डे का नाम सुनते ही श्रीमति जी यों तिलमिलाई जैसे किसी ने गर्म तवे पर पानी की बूंद गिरा दी हो.
-भर दिन क्लास में भुंकना है..रात में फूल फैमिली भूखे कुहुंकना है और चले हैं टीचर्स डे मनाने..अरे तुम्हारे जैसे मास्टरों के लिए तो टीचर नहीं फटीचर डे  होना चाहिए था..
इससे पहले कि श्रीमति जी का गुस्सा ज्वालामुखी में तब्दील होता, पदारथ बाबू ने सीधे गुसलखाने में घुसने में ही भलाई समझी. पर घुसते-घुसते श्रीमति का एक और व्यंग्य वाण उनके कान से टकरा ही गया.
-पेट में अन्न ना दाना और जा रहे हैं गुसलखाना, फायदा क्या है..
जैसे-तैसे सारे काम निबटाकर पदारथ बाबू स्कूल के लिए तैयार हुए. शिक्षक सम्मान समारोह था स्कूल में. सो बक्से से धुला-धुलाया ढाई इंच का पैबंद लगा कुरता निकाला और इस गर्व से पहना जैसे द्रोणाचार्य अवार्ड लेने जाना हो. पर जैसे ही जाने के लिए दहलीज के बाहर कदम रखा, रही-सही कसर धनरुआ ने पूरी कर दी.
-बाबुजी! आज स्कूल से टीचर्स डे गिफ्ट में दू गो रोटिए मांगले आइएगा..
पदारथ बाबू को लगा जैसे आज मास्टर की इज्जत भी दू गो रोटी की मोहताज हो गयी है..
पर स्कूल पहुंचते ही उनका सारा टेंशन काफूर हो गया. भव्य स्टेज, शहर के गणमान्य व्यक्ति व नेतागण, उनकी आंखों में एक अजीब चमक आ गयी. प्रोग्राम शुरू हुआ..नेताओं और अतिथिगण के भाषण के बाद जैसे ही रामपदारथ बाबू का नाम शहर के बेस्ट टीचर अवार्ड के लिए पुकारा गया, मारे खुशी के पदारथ बाबू कुर्सी से उछल पड़े. स्टेज पर जाते वक्त सीना गर्व से फुलाने की कई असफल कोशिश भी की. कदम ऐसे बढ़ा रहे थे जैसे सर्वपल्ली जी की विरासत आगे बढ़ाने का न्यौता मिल रहा हो उनको. एक शॉल, एक सर्टिफिकेट और फूलों की ढेर सारी मालाओं से क्षण भर में ही लाद दिए गए पदारथ बाबू. फिर शुरू हुआ छात्रों के उपहार देने का सिलसिला. कोई कलम भेंट करता तो कोई बड़े लेखक की पुस्तक. पर पदारथ बाबू की आंखें तो कुछ और ही ढूंढ रहीं थी. आखिरकार एक-एक कर सब बच्चे चले गये. पदारथ बाबू ने भी सारे गिफ्ट्स, शॉल और सर्टिफिकेट अपने झोले में समेटा और भारी मन से वापिस जाने को उठे. तभी एक लड़का दौड़ता हुआ आया..
-मास् साहेब..इतने बड़े-बड़े गिफ्ट्स देखकर मुझ गरीब की हिम्मत नहीं हुयी आने की..ये एक छोटा सा गिफ्ट मेरी ओर से, घर जाकर ही खोलिएगा अच्छा लगेगा.
घर पहुंचते ही पदारथ बाबू ने सबसे पहले उस बच्चे का गिफ्ट खोला. पेपर के टुकड़े से लपेटा गया गिफ्ट खोलते ही बुतरूओं को मानो मन मांगी मुराद मिल गयी. चार रोटियां और गुड़ की डली..देखते ही बच्चे उसपर टूट पड़े. एक तरफ बच्चे रोटी से पेट की आग बुझा रहे थे तो दूसरी ओर पदारथ बाबू मुड़े-तुड़े अखबार की उस कटिंग में छपी हेडिंग से अपनी भूख मिटा रहे थे.. हेडिंग थी ग्यारह महीने से शिक्षकों को वेतन नहीं
                शिक्षक दिवस पर व्यंग्य-------गौरव.