रोज की भांति आज भी राम पदारथ बाबू की नींद खूली प}ी के गजर्न वाले अलार्म से. दोनो बुतरू सुबह-सुबह किचेन में खाली कटोरे और थाली से हिमेश रेशमिया टाइप कोई रीमिक्स धुन बना रहे थे. बीच-बीच में उनके मुंह से निकलती काएं-कोएं की आवाज जैसे कोरस का काम कर रही थी. दिन भर जैसे स्कूल में बच्चे राम पदारथ बाबू का बेमन से लेर सुनते, वैसे ही रोज सुबह घर में पदारथ बाबू की क्लास लगती थी.
- का धनरूआ की अम्मा..कम से कम आज तो अपने शब्दों के वाण कमान से मत छोड़ो..
-काहे..काहे ना चलाएं..आज कौन सा ज्ञानपीठ मिलने वाला है आपको, जो..
-अरे मेरा न सही, आज के दिन का तो ख्याल करो..आज टीचर्स डे है..
टीचर्स डे का नाम सुनते ही श्रीमति जी यों तिलमिलाई जैसे किसी ने गर्म तवे पर पानी की बूंद गिरा दी हो.
-भर दिन क्लास में भुंकना है..रात में फूल फैमिली भूखे कुहुंकना है और चले हैं टीचर्स डे मनाने..अरे तुम्हारे जैसे मास्टरों के लिए तो टीचर नहीं फटीचर डे होना चाहिए था..
इससे पहले कि श्रीमति जी का गुस्सा ज्वालामुखी में तब्दील होता, पदारथ बाबू ने सीधे गुसलखाने में घुसने में ही भलाई समझी. पर घुसते-घुसते श्रीमति का एक और व्यंग्य वाण उनके कान से टकरा ही गया.
-पेट में अन्न ना दाना और जा रहे हैं गुसलखाना, फायदा क्या है..
जैसे-तैसे सारे काम निबटाकर पदारथ बाबू स्कूल के लिए तैयार हुए. शिक्षक सम्मान समारोह था स्कूल में. सो बक्से से धुला-धुलाया ढाई इंच का पैबंद लगा कुरता निकाला और इस गर्व से पहना जैसे द्रोणाचार्य अवार्ड लेने जाना हो. पर जैसे ही जाने के लिए दहलीज के बाहर कदम रखा, रही-सही कसर धनरुआ ने पूरी कर दी.
-बाबुजी! आज स्कूल से टीचर्स डे गिफ्ट में दू गो रोटिए मांगले आइएगा..
पदारथ बाबू को लगा जैसे आज मास्टर की इज्जत भी दू गो रोटी की मोहताज हो गयी है..
पर स्कूल पहुंचते ही उनका सारा टेंशन काफूर हो गया. भव्य स्टेज, शहर के गणमान्य व्यक्ति व नेतागण, उनकी आंखों में एक अजीब चमक आ गयी. प्रोग्राम शुरू हुआ..नेताओं और अतिथिगण के भाषण के बाद जैसे ही रामपदारथ बाबू का नाम शहर के बेस्ट टीचर अवार्ड के लिए पुकारा गया, मारे खुशी के पदारथ बाबू कुर्सी से उछल पड़े. स्टेज पर जाते वक्त सीना गर्व से फुलाने की कई असफल कोशिश भी की. कदम ऐसे बढ़ा रहे थे जैसे सर्वपल्ली जी की विरासत आगे बढ़ाने का न्यौता मिल रहा हो उनको. एक शॉल, एक सर्टिफिकेट और फूलों की ढेर सारी मालाओं से क्षण भर में ही लाद दिए गए पदारथ बाबू. फिर शुरू हुआ छात्रों के उपहार देने का सिलसिला. कोई कलम भेंट करता तो कोई बड़े लेखक की पुस्तक. पर पदारथ बाबू की आंखें तो कुछ और ही ढूंढ रहीं थी. आखिरकार एक-एक कर सब बच्चे चले गये. पदारथ बाबू ने भी सारे गिफ्ट्स, शॉल और सर्टिफिकेट अपने झोले में समेटा और भारी मन से वापिस जाने को उठे. तभी एक लड़का दौड़ता हुआ आया..
-मास् साहेब..इतने बड़े-बड़े गिफ्ट्स देखकर मुझ गरीब की हिम्मत नहीं हुयी आने की..ये एक छोटा सा गिफ्ट मेरी ओर से, घर जाकर ही खोलिएगा अच्छा लगेगा.
घर पहुंचते ही पदारथ बाबू ने सबसे पहले उस बच्चे का गिफ्ट खोला. पेपर के टुकड़े से लपेटा गया गिफ्ट खोलते ही बुतरूओं को मानो मन मांगी मुराद मिल गयी. चार रोटियां और गुड़ की डली..देखते ही बच्चे उसपर टूट पड़े. एक तरफ बच्चे रोटी से पेट की आग बुझा रहे थे तो दूसरी ओर पदारथ बाबू मुड़े-तुड़े अखबार की उस कटिंग में छपी हेडिंग से अपनी भूख मिटा रहे थे.. हेडिंग थी ग्यारह महीने से शिक्षकों को वेतन नहीं
शिक्षक दिवस पर व्यंग्य-------गौरव.
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