Thursday, April 25, 2013

..हिंदी डे ई का होता है जी!


                                                ‘‘डार्लिग सुनती हो ’’ सवेरे-सवेरे शहद से भी मीठी नेताजी की आवाज सुनते ही नेताइन के मन में थोड़ा डाउट हुआ.
‘‘का हुआ, आज महीनों बाद एतना मीठ-मीठ बोली सुनने को मिल रहा है, कुछ खास है का?’’
‘‘अरे पूछ मत, खास एतना कि सुनेगी तो तुहो कूदने लगेगी.’’
‘‘अइसा! का हुआ जी, जल्दी बताइए न.’’
‘‘अच्छा तो सुन, आज तोहरे हसबेंड जी को शहर के सबसे बड़े कॉलेज में लेर.. हम्मर मतलब भाषण देने का इनभिटेशन मिला है.’’
‘‘भाषण! अच्छा ऊ कउन खुशी में जी?’’
‘‘धत् बुड़बक! इहो नहीं जानती, अरे आज हिंदी डे है.’’
‘‘हिंदी डे! ई का होता है जी?’’
(थोड़ा सोचते हुए)‘‘का होता है! इ तो.. हमको भी नहीं मालुम, पर कला-संस्कृति विभाग का नेता होने के नाते एतना नॉलेज जरूर है कि आज के दिन सब काम हिंदीए में किया जाता है.’’
‘‘अच्छा! तो आज एही खुशी में आइ लभ यू भी हिंदीए में बोल दीजिए न.’’
(खींजते हुए)‘‘चाटेगी माथा! अब चुपचाप एगो काम कर, पिछला ईयर हिंदी डे पर जे हिंदी का मोटका पोथी (किताब) लाए थे, ऊ बक्सा से जल्दी निकाल के दे तो.’’
‘‘रे दइया! ऊ किताब तो हम शायद रद्दी वला को बेच दिये.’’
(बमकते हुए)‘‘एकदम बकलोले है का तू. अरे ऊ तो चिंटुआ का हिंदी वला बुक न बेची थी. हम हिंदी दिवस वाला बुक मांग रहे हैं,अरे उहे जे फटलका चद्दर में लपेट के बक्सा में रखे थे, भूला गयी का.’’
‘‘अच्छा ऊ..अभी निकालते हैं’’
थोड़ी देर में-
‘‘ए जी, ऊ तो लगता है दीवाली के झाड़-पोछ में कहीं और धरा गया, मिलीए नहीं रहा है.’’
‘‘अब अरली मॉर्निग बमकाओ मत हमको..एतना मुश्किल से चांस मिला है, उहो मिस हुआ न तो बूझ लेना.’’
फिर शुरू हुआ ऑपरेशन हिंदी खोज. बक्सा, आलमीरा, लॉकर, दराज..डेढ़ घंटे के मैराथन के बाद आखिर मिल ही गयी हिंदी बूक. मिली भी तो कहां, चट्टी के बोरे में लपेट कर छज्जे पर पड़ी हुई.
‘‘चलो, मिला तो सही, (धूल-गरदा झाड़ते हुए) अब फटाफट इसको कउनो रेशमी कपड़ा में लपेट कर दो, पहिले ही टू मच लेट हो गये हैं.’’
आखिरकार तालियों की गड़गड़ाहट के साथ नेताजी स्टेज पर पहुंचे.
‘‘रेस्पेक्टेड गेस्ट..आई मीन..मेरा मतलब..सम्मानित अतिथीगण, भाईयों और बहनों, कहते हैं हिंदी, भाषा की बिंदी है. पर आज की पीढ़ी तो जैसे बिंदी लगाना ही भूल गयी है. दिनकर, निराला, बच्चन जी की हिंदी अब स्टडी रूम से आउट होकर घर के छज्जे पर रखी जाने लगी है. हिंदी पर लेर तो सब देते हैं, पर सम्मान करते वक्त खुद की फीलिंग ही डेड हो जाती है. मेरा मन रो उठता है जब मै आज छोटे-छोटे बच्चों को अ™ोय, चौहान जी की कविताओं के बदले शकीरा और ब्रिटनी के अंग्रेजी गानों संग लिपटे-चिपटे देखता हूं.
आज हिंदी दिवस के अवसर पर मै अपने विभाग की ओर से ये वादा करता हूं कि जल्द से जल्द मै शेक्सपियर और मैकबेथ की रचनाओं का हिंदी अनुवाद कराऊंगा और हिंदी की गरिमा को आगे बढ़ाऊंगा..जय हिंद, जय इंडिया.’’
धम्म से घर में सोफे पर बैठते हुए नेताजी दिन भर का व्याख्यान सुनाते हुए बोले-
‘‘काश! आज तूम भी ऊंहा होती, का गर्दाझार लेर दिये हैं.. पर हम तो एतना शुद्ध हिंदी बोले कि तुम तो अंडरस्टैंडे नहीं करती, चलो जाने दो. बहुते थक गये हैं(हिंदी दिवस किताब वाले रेशमी रुमाल से मुंह पोंछते हुए) अब इ किताब को रख दो, अगिला साल फिर काम आएगा. और हां! अइसा जगह रखना कि अगिला साल सर्चिग में आसानी हो..’’
और इस तरह एक और हिंदी दिवस ने विदा ली, इस इंतजार के साथ कि शायद अगले साल उसकी किताब को फिर से स्टडी रूम में जगह मिल जाए.
-गौरव

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