Thursday, December 22, 2016

बेचैन किरदारों का सुलझा निर्देशक

प्रतिभा किसी सुविधा की मोहताज नहीं होती और ये बात बिहार से निकले कई लोगों की सफलता खुद ब खुद कहती है. तत्कालीन बिहार के जमशेदपुर में जन्में फिल्म निर्देशक इम्तियाज अली की कहानी भी कुछ ऐसी ही है. मूल रूप से दरभंगा के इम्तियाज सिनेमा की कई जटिलताओं के साथ बिहार की और भी कई यादें खुद के अंदर जज्ब किये हुए हैं. जैसे ही बातचीत का मौका मिला, उन यादों और विचारों ने शब्दों की शक्ल ले ली.
जब वी मेट, रॉकस्टार, हाइवे, तमाशा. ग्यारह सालों के सफर में केवल सात फिल्में. बात कर रहा हूं हिंदी सिनेमा के कन्फ्यूज्ड किरदारों के फोकस्ड निर्देशक इम्तियाज अली की. पटना की गलियों से निकलकर एक बिहारी छोरा कैसे मुंबई की जटिलता भरी सिनेमाई दुनिया का अगुआ बन जाता है, अपने आप में शोध का विषय है. अपनी फिल्मों के जरिये किरदारों के मनोदशा की परतें उधेड़ते, प्रेम की अपारंपरिक परिभाषा गढ़ते और किरदार के अंदर की उथल-पुथल से आंख-मिचौली करते इम्तियाज अली की शख्सियत पल में आपको अपनी मोहपाश में बांध लेने वाली मृगमरीचिका सरीखी है. मिलने से पहले इस बात का अंदेशा तो था कि इम्तियाज जैसे शख्स की गांठ खोलना आसान नहीं होगा, पर तकरीबन चालीस मिनट की बातचीत के दौरान कई अनसुलङो गिरह खोलने की कोशिश कामयाब रही.
मार्केटिंग-एडवरटाइजिंग का बंदा इम्तियाज आगे जाकर फिल्मों में स्कोप तलाशता है. आपके किरदारों का कन्फ्यूजन भी कहीं आपके अंदर की बेचैनी का रिफ्लेक्शन तो नहीं?
(ठहाके लगाते हुए) कह सकते हैं. थोड़ी खुद के और थोड़ी आस-पास के लोगों के अंदर की बेचैनी मिलाकर ही एक किरदार गढ़ता हूं. और अगर मुझसे पुछें तो कन्फ्यूज्ड होना इंसान के लिए हमेशा पॉजिटिव होता है. क्योंकि जब भी हम कोई धारणा मन में गढ़ते हैं तो कुछ ही वक्त में उसके अधीन हो जाते है. फिर हम उससे बाहर की बातें सोच ही नहीं पाते. और जिस दिन से हम सोच का दायरा सीमित कर लेते हैं हमारा पतन शुरू हो जाता है. कन्फ्यूजन इंसान को तब होता है जब एक धारणा के मन में होते हुए हम दूसरी धारणा की ओर आकर्षित होते हैं. ऐसे सिचुएशन ही कहानी या किरदार को ड्रामेटिक या देखने-सूनने लायक बनाते हैं.
थोड़ा फ्लैशबैक में चलें तो घर से भागकर थियेटर्स के प्रोजेक्टर रूम में बैठकर फिल्में देखते-देखते उसी फिल्मनगरी के क ामयाब निर्देशक की जर्नी कैसी रही?
बीस साल की जर्नी है, बात क रूं तो शायद कुछेक साल भी कम पड़ जाएं. जन्म जमशेदपुर में हुआ फिर नोट्रेडेम व संतमाइकल पटना से पढ़ाई की. यहीं राजेन्द्रनगर बैंक रोड में रहता था. आठ साल यहां रहा. पिताजी का ट्रांसफरेबल जॉब होने की वजह से एक बार फिर जमशेदपुर पहुंचा. वहां रिश्तेदार के दो थियेटर्स थे तो फ्री में फिल्म देखने की लिबर्टी थी. पसंदीदा दृश्यों को बार-बार देखने की गरज से मै और आरिफ(भाई आरिफ अली) प्रोजेक्टर रूम में बैठकर भी फिल्म देख लिया करते थे. फिर दिल्ली युनिवर्सिटी से पढ़ाई की और मार्केटिंग-एडवरटाइजिंग में भविष्य तलाशने लगा. वो काम तो हाथ लगा नहीं हां टेलीविजन में प्रोडक्शन असिस्टेंट का काम मिला. फिर थियेटर और फिल्में. यही संक्षिप्त जर्नी है.
ग्यारह साल और सात फिल्में. इतनी निश्चिंतता की वजह?
देखिए, मेरे मन के गागर में कहानियों का जो सागर है वो सीमित है. पर मै उसका पूरी जिंदगी करना चाहता हूं. तो मुङो लगता है कि अगर मै उसे तेजी से खर्च क रूंगा तो जल्द ही खत्म हो जाऊंगा. इसलिए मै उसका इस्तेमाल धीरे-धीरे और पूरी तल्लीनता से कर रहा हूं. दूसरी बात क्वालिटी के आगे क्वांटिटी कभी बेस्ट च्वाइस हो ही नहीं सकती. जल्दबाजी में कुछ भी बना देने से अच्छा धीरे-धीरे ही सही पर मन का करूं ताकि लंबा टिक पाऊं.
नजर थोड़ा बिहार की ओर करें तो कुछ अपवादों को छोड़कर सौ साल के हिंदी सिनेमा में बिहार का प्रोस्पेक्टिव केवल निगेटिव या जोक्स जैसा रहा. क्या वजह रही?
आप जो कह रहे हैं ये बहुत अहम सवाल है. और मै कुछ भी झूठ-सच बोल कर इस सवाल को दरकिनार नहीं कर सकता. भले सौ साल के सिनेमा में मै केवल दस साल का हिस्सेदार रहा हूं फिर भी इस उपेक्षा से मुंह नहीं मोड़ सकता. इसके सही-सही कारणों का उत्तर मै भी आज तक नहीं ढूंढ पाया हूं पर मै इसकी जिम्मेदारी केवल फिल्मकारों के मत्थे नहीं मढ़ सकता. दर्शक देखते हैं तो फिल्मकार दिखाते हैं. आप देखना बंद करो, अशोक-कुं वर सिंह का बिहार सामने करो, फिल्मकारों का पर्सपेक्टिव खुद ब खुद बदल जाएगा.
हम इस बदलाव की उम्मीद आपसे क्यूं न करें?
बिलकुल क8ीजिए, और करना भी चाहिए. मै खुद भी एक्सपेक्ट करता हूं कि कोई ऐसी फिल्म बनाऊं जिससे बिहार झलके. मगर वो कोई आम फिल्म नहीं हो सकती जिसमें केवल नाम भर बिहार दिखे. कुछ खास होना चाहिए ताकि लोग कह सकें हां ये बिहार है. उस खास का इंतजार है, कहानी की तलाश है, फिर बिहार जरूर दिखेगा मेरी फिल्म में.
आपके किरदारों की तरह कुछ आपके अंदर भी झांकने की कोशिश करते हैं. अगर इम्तियाज निर्देशक न होते तो क्या होते?
ये आपने मेरे मन का पुछा(हंसते हुए). सच में अगर मै निर्देशक न होता तो बास्केटबॉल चैंपियन होता, जो अबतक किसी टीम का क ोच बन चुका होता. स्कूल के दिनों में बास्केटबॉल के प्रति सीरियसनेस का ये आलम था कि एक वक्त तो मै ये डिसाइड करने लगा था कि इंजीनियरिंग की तैयारी करूं या बास्केटबॉल कैंप ज्वाइन कर लूं.
अब वो सीरियसनेस, वो शौक कहां है?
निर्देशक रूपी किरदार ने उसे मन के किसी कोने में कैद कर दिया है. कई बार आजादी के लिए मचलता भी है. पर नये किरदार ने उसे वक्त की जंजीर में गहरे जकड़ रखा है.
फिल्मों में बाजार का बढ़ता प्रभाव और स्टार सिस्टम के बारे में क्या राय है?
जिसे आप बाजार का प्रभाव कह रहे हैं वही सबसे जरूरी तत्व है फिल्म बनाने के लिए. कोई प्रोडय़ूसर करोड़ों-करोड़ खर्च कर रहा है फिल्म निर्माण पर तो हम निर्देशकों का भी फर्ज बनता है कि उसे उचित मात्र में रिकवरी दें. अगर ऐसा नहीं होता है तो कुछ ही वक्त में फिल्म निर्माण का सिलसिला ही थम जाएगा. और रिकवरी के लिए मनोरंजक फिल्में बनाना जरूरी है. मै अपनी बात करूं तो मै अपने मन के लिए ऐसी फिल्म कभी नहीं बनाना चाहूंगा जिससे निर्माताओं को नुकसान हो. जहां तक स्टार सिस्टम की बात है तो मेरे अनुसार इससे फिल्म इंडस्ट्री को नुकसान ही है. इसकी वजह से नई प्रतिभाओं को सही से उभरने का मौका ही नहीं मिलता.
गानों के साथ आप काफी अठखेलियां करते हैं, खासकर इरशाद क ामिल के साथ मिलकर. जल्द ही उन अठखेलियों में दर्शक भी शामिल हो जाते हैं. ये कैसे हो पाता है?
इरशाद और मेरी केमिस्ट्री ऐसी है जहां बदतमीजियों का स्कोप पूरा है. लिहाज और फ ॉर्मलिटी के लिए हमारे बीच कोई स्पेस ही नहीं है. उसे पता होता है कि मेरी फिल्म को क्या चाहिए. कभी-कभी तो मेरी फिल्म के ड्राफ्ट देखकर वो ही कई तब्दीलियां कर देता है. अक्सर मै उनसे कहता हूं कि कुछ बातें जो मै कहानी के जरिये नहीं कह सकता इसको आप गानों के जरिये कैसे कहेंगे. हम दोनों ही लिरिक्स, गानें की लाइनों और सिचुएशनल वर्ड्स पर घंटों लड़ते हैं.
थियेटर की जरूरत कितनी है इस फ ील्ड में?
बहुत, बहुत जरूरी है. क्योंकि थियेटर ही है जो आपको तराशता है. ये ऐसा मंच है जहां आप अकेले ही सारी जिम्मेदारियां एक साथ संभाल सकते हैं. नाटक लिखने से लेकर एक्टर और डायरेक्टर की जिम्मेदारी आप खुद ही ले सकते हैं. मैने खुद कई ऐसा प्ले किया जहां मै वन मैन आर्मी था. ये जिम्मेदारी ही आपको आगे चलकर निखारती है. मै तो अब भी थियेटर के प्रति इतना आशक्त हूं कि मौके कि तलाश में रहता हूं. थियेटर का भविष्य भी काफी सुनहरा है, विश्वास रखिये आने वाले दिनों में थियेटर भी काफी कमर्शियलाइज्ड होगा.
बिहार आकर कभी थियेटर करना चाहेंगे?
आप बुलाइए तो सही. अच्छी पटकथा दिखे जो दिल में उतर जाएं फिर तो मै कभी भी आने को तैयार हूं. बिहार में थियेटर की स्थिति का मुङो ज्यादा अंदाजा तो नहीं पर अभी मै शिमला में थियेटर वालों के साथ मिलकर कुछ प्लानिंग कर रहा हूं, जल्द ही खुलासा करूंगा.
आखिर में बिहारी युवाओं के लिए कुछ खास मोटिवेशनल?
देखिए कला के क्षेत्र में सफल लोग कभी किसी सुविधा के मोहताज नहीं रहे. ये कहना कि इस कमी की वजह से मै सफल नहीं हो पाया आपकी कमजोरी है. इरान जैसा देश तमाम अभावों के बावजूद आज सर्वश्रेष्ठ सिनेमा देता है. तो प्रतिभा को खुद तराशिए. अंदर के आग को जलाए रखिए और इस बात का इंतजार मत क ीजिए कि कोई सामने से आकर आपकी मदद करेगा. उन्हीं अभावों के बीच रास्ता तलाशिए मंजिल जरूर हासिल होगी.


Thursday, December 15, 2016

बिहार हमेशा से मुङो अपनी ओर खींचता रहा है: पंकज त्रिपाठी






वक्त की लंबी खाई भी टैलेंट को मंजिल तक पहुंचने से नहीं रोक सकती. समय-समय पर कई बिहारी प्रतिभाओं ने इसे साबित किया है. गैंग्स ऑफ वासेपुर, मांझी द माउंटेनमैन, मसान और नील बटे सन्नाटा जैसी फिल्मों से अपने अभिनय का लोहा मनवा चुके पंकज त्रिपाठी की कहानीं भी कुछ ऐसी ही है. जमीन से लगाव ऐसा कि पटना फिल्म फेस्टिवल में शिरकत करने के लिए मकाऊ फिल्म फेस्टिवल का ऑफर दरकिनार कर दिया. पटना आये पंकज त्रिपाठी ने प्रभात खबर से खास बातचीत में कई मुद्दों पर अपनी राय रखी.
-इतनी सारी फिल्में, और हर फिल्म में अलहदा किरदार. इतनी वेरायटी कहां से लाते हैं?
ये एक लंबी प्रक्रिया है. अभिनय की शुरुआत लगभग 20 वर्ष पहले हुई. ये उन बीस सालों की मेहनत का नतीजा है, जो मैंने क्राफ्ट और कला को साधने में लगायी है. अब अंदर में इतना कुछ जमा हो चुका है कि हर किरदार को मै कुछ नया दे सकता हूं. अगले साल मेरी लगभग दस फिल्में आने वाली हैं. पर आप देखोगे तो पाओगे सभी के शेड्स एक-दूसरे से बिलकूल जुदा हैं. और यही वजह कि अब बड़ी फिल्मों के निर्देशक छोटी भुमिकाओं के लिए भी मुङो बुलाने लगे हैं क्योंकि उन्हें लगता है कि ये छोटी भुमिका में भी कुछ नया कर उसे यादगार बना देगा.
-बिहार से मुंबई की जर्नी कैसी रही?
मुङो शुरू से ही अपने बारे में जो बात पता थी वो ये कि मुङो दस से पांच की नौकरी कभी नहीं करनी. जर्नी की शुरुआत पटना में थियेटर से हुई. फिर एनएसडी ज्वाइन किया. वहां से वापस पटना आया. बीच में थियेटर की अनिश्चितता देख फैमिली वालों ने होटल मैनेजमेंट का क ोर्स करा दिया. बाद में शेफ का काम भी किया. पर मन वापस मुंबई ले गया. अब आठ-दस सालों के संघर्ष के बाद इंडस्ट्री और दर्शकों ने पूरी तरह स्वीकार कर लिया है.
-सौ साल के हिंदी सिनेमा में भी बिहार की छवि नहीं बदली, क्या लगता है आपको?
इसके पीछे मुङो दो वजह दिखती है. पहला तो ये कि यहां से कोई लिखने वाला हिंदी सिनेमा को नहीं मिला. यहां के राइटर्स होते तो शायद वो यहां की छवि को, पॉजिटीविटी को करीने से परदे पर उतार पाते. दूसरी बात ये है कि नेशनल लेवल पर बिहार की छवि क्राइम जेनेरेटेड स्टेट की बना दी गयी है. हालांकि ऐसा है नहीं, पर यहां की प्रतिरोधी क्षमता को निगेटिव तौर पर प्रचारित कर दिया गया है. तो बाहरी फिल्मकार बिहार की उसी बनी-बनायी छवि को असल मान बैठते हैं. वरना अगर प्रकाश झा जैसे फिल्मकार का खल चरित्र अगर बिहारी है तो उसका विरोध कर जीतने वाले नायक भी तो इसी परिवेश के हैं. हम उन नायकों को क्यों नहीं देखते. तो नजरिया बदलने की जरूरत है.
क्या वजह है थियेटर या एनएसडी के कलाकार मुख्यधारा की सिनेमा में लीड कैरेक्टर जैसे रोल से वंचित रह जाते हैं?
देखिये ये एक तरह से बाजारवाद को चुनौती देने वाली बात है. अगर फिल्मी बैकग्राउंड के लोग फिल्मों में आते हैं तो उनके आने से पहले ही माहौल ऐसा तैयार कर दिया जाता है कि दर्शक इंतजार शुरू कर देते हैं. फिल्म से लेकर प्रमोशन तक की उनकी प्रक्रिया की पूरी क ार्मस तैयार रहती है. पर हम जैसे कलाकारों को लीड में लेने की बात ही लोगों के इंट्रेस्ट से परे हो जाती है. मुङो लगता है हम जो इतने साल गुलाम रहे हैं ये उसी का प्रतिफल है. हमारे अंदर की बौखलाहट को एक लाजर्र दैन लाइफ हीरो की दरकार है. फिर उसका बेटा,फिर उसका बेटा और ये सिलसिला अनवरत जारी है. यहां लोगों को समझने में ये काफी वक्त लगेगा कि सिनेमा सिर्फ सिक्स पैक या चेहरा मोहरा नहीं है, सिनेमा संवेदना है. ये सिर्फ एक मनोरंजन नहीं है, जीने की कला है.
सिनेमा में क्लास और मास के दर्शकों का गैप नहीं भरने की मुख्य वजह क्या है?
ये मामला मेरी समझ से संचार क्रांति का है. आज से पहले इंटरनेट का जमाना नहीं था. संचार माध्यम कम होने से दर्शकों को पता ही नहीं था कि ग्लोबल लेबल पर क्लास की फिल्में कितनी अप्रीशियेट की जाती हैं. आज का यूथ ग्लोबलाइज्ड हो रहा है. वो फ्रांस, स्पेन, इरान की फिल्में देख लेता है. ऐसे में फिल्मकारों को भी लगने लगा है कि कुछ भी बनाकर अब ज्यादा वक्त तक दर्शकों को बेवकूफ नहीं बना सकते. यही वजह है कि अब नील बटे सन्नाटा जैसी फिल्में भी मास को अट्रैक्ट करने लगी हैं. तो उम्मीद क ीजिए. परिदृश्य बदल रहा है. धीरे-धीरे ये क्लास और मास का गैप भी भर जाएगा.
आने वाले दिनों में हम पंकज त्रिपाठी को किन-किन प्रोजेक्ट्स में देखेंगे?
फूकरे रिटर्न्‍स, जूली 2, न्यूटन व बरेली की बरफी आदि फिल्में हैं.
बिहार के युवाओं के लिए खास टिप्स?

ज्यादा नहीं कहूंगा. बस ईमानदारी से अपना काम करते जाओ कुछ भी नामुमकीन नहीं. जल्द मुकाम हासिल करने के चक्कर में कैप्सूल कोर्स के पीछे मत भागो. लंबी प्रक्रिया है, साधना करो. सफलता जरूर मिलेगी.

Saturday, December 10, 2016


फिल्म समीक्षा

            बेफिक्रे के जरिये ब्यूटी से बोल्डनेस की ओर यशराज

यशराज के फिल्मों की सबसे बड़ी खासियत भारतीय परंपरा और पारिवारिक मुल्यों के ताने-बाने से बूनी फिल्में रहीं हैं. दिवंगत यश चोपड़ा की फिल्म जब तक है जान के जरिये वो बूनावट थोड़ी दरकी थी. इस बार आदित्य चोपड़ा ने बेफिक्रे के साथ उस आवरण को उतार फेंका है जो कभी यशराज की पहचान हुआ करता था. तर्क यूवा व उनके टेस्ट या बदलते कल्चर का ख्याल रखने की हो सकती है. पर पूरे परिवार के साथ फिल्म देखने की चाहत वाले दर्शक वर्ग के लिए यशराज की ये सौगात थोड़ी अकुलाहट दे सकती है. बहरहाल बात सिनेमा की करें तो बेफिक्रे रणवीर सिंह की एक और छलांग है. बाजीराव तक के सफर को वो बेफिक्रे से एक कदम और आगे ले जाते हैं. कहानी में नयापन न होने के बावजूद मेट्रो कल्चर के साथ आदित्य का ये ट्रीटमेंट यूथ्स को तो जरूर आकर्षित करेगा.
ब्रेकअप के बाद धरम(रणवीर सिंह) और शायरा (वाणी कपुर) एक-दूसरे से कतराते हैं. अपनापन बरकरार है पर बीच में एक अजनबीपन की दीवार उठ चुकी है. क ारण तलाशते दर्शक एक गाने के जरिये फ्लैशबैक में जाते हैं. दिल्ली का धरम एडवेंचर की तलाश में पेरिस पहुंचता है. मुलाकात शायरा गिल से होती है. पहली मुलाकात में एडवेंचर की चाहत में कई अजीबोगरीब डेयर एक दूसरे को देते हुए साथ होते हुए भी प्यार में न पड़ने की बात तय करते हैं. क्रेजीनेस का ये सफर अपने शुरुआत में ही किस से होता हुआ बिस्तर तक जा पहुंचता है. शायरा के लिए यह यूज टू है पर धरम को इसमें नया एक्साइटमेंट दिखता है. नतीजतन दोनों लिव इन में रहने का फैसला लेते हैं. पर आम जोड़ों की तरह दोनों कुछ ही वक्त में इस रिश्ते से बोर हो जाते हैं, और ब्रेकअप कर लेते है. पर ब्रेकअप के बाद भी दोस्ती बरकरार रहती है. लाइफ में कुलबुलाहट तक आती है जब सिंगल जीवन जीने की कोशिश में दोनों को एक -दूसरे की अहमियत का अंदाजा होता है. पतझड़ के पत्तियों की माफिक झड़ चुकी भावनाओं की जगह अहसास के नए क ोंपल उगते हैं. करीब होने की चाहत हिलोर लेती हैं.
बेफिक्रे की कहानी में कुछ भी अलहदा नहीं है. बावजूद इसके ट्रीटमेंट की वजह से फिल्म देखने लायक बन जाती है. गीत-संगीत के अलावे आदित्य के इस विजन को अगर किसी का भरपूर साथ मिला है तो वो हैं रणवीर सिंह. उन्हें देखते हुए भले आपको बैंड बाजा बारात के बिट्टू शर्मा का अहसास हो, पर फिल्म में यूज्ड एनर्जी और ताजगी के जरिये रणवीर फिर ये जता जाते हैं कि क्यों वो समकालीन अभिनेताओं में श्रेष्ठ हैं. हां वाणी को देख थोड़ी चूक का अहसास होता है. पेरिस के नयनाभिराम लोकेशंस और विशाल-शेखर के कर्णप्रिय संगीत से सजी फिल्म आकर्षित तो करती है पर फिल्म में इस्तेमाल बेशुमार किसींग सींस और रणवीर का बैक न्यूड सीन कहीं न कहीं फिल्म को फैमिली इंज्वायमेंट के दायरे से दूर करता है.
क्यों देखें- आदित्य, रणवीर के फैन हों और एक मौका बनता है.
क्यों न देखें- यशराज की छवि के अनुरूप फिल्म देखने की चाहत लिए बैठे हों तो.



फिल्म समीक्षा

                इस बार भी चौंकाती है कहानी 2: दुर्गा रानी सिंह

तकरीबन चार साल पहले सुजॉय घोष विद्या बालन के साथ कहानी लेकर आए थे. अलग तरह के सस्पेंस में बूनी उस फिल्म ने तब दर्शकों क ा ध्यान बरबस खींचा था. इस बार सूजॉय ने बिलकुल अलग किस्म की कहानी का चयन किया. पिछली कहानी का एक्सटेंशन मानकर फिल्म देखने वाले दर्शकों के लिए साफ कर दूं कि इस कहानी का पिछली फिल्म से कोई ताल्लुक नहीं है. निर्देशक, क ास्ट और नाम के अलावा बाकी सारी चीजें यहां जुदा हैं. बेशक फिल्म का सस्पेंस सेकेंड हाफ के बाद कमजोर पड़ता है पर दो किरदारों में विद्या का अलहदा अभिनय, सूजॉय का कसा निर्देशन और तपन बासू की कमाल की सिनेमेटोग्राफी पूरी फिल्म को रोचक बना देती है.
कहानी विद्या सिन्हा और दूर्गा रानी सिंह (विद्या बालन) की है. विद्या की बेटी मिनी लकवाग्रस्त है. उसका एक ही सपना है कि एक दिन मिनी अपने पैरों पर खड़ी हो सके. अचानक एक दिन मिनी की किडनैपिंग हो जाती है और उसकी तलाश करती विद्या का एक्सीडेंट हो जाता है. केस की तहकीकात करता इंद्रजीत(अजरून रामपाल) सुराग की तलाश में विद्या की हमशक्ल कुख्यात दूर्गा रानी सिंह तक जा पहुंचता है. जो किडनैपिंग और मर्डर की वांटेड है. इस कोशिश में दूर्गा और विद्या की गुत्थी सुलझाते इंद्रजीत के सामने कई राज परत दर परत खूलते जाते हैं. सूजॉय ने सस्पेंस के साथ-साथ फिल्म के जरीये एक गंभीर मुद्दे से भी दर्शकों को कुरेदा है. घर की चाहरदीवारी के अंदर चाइल्ड हैरशमेंट जैसे मुद्दे को उन्होंने जिस संवेदनशीलता के साथ कहानी में मिश्रित किया है, निश्चित ही सराहनीय है.
फिल्म की सशक्तता और रोचकता की सबसे मुख्य वजह विद्या बालन हैं. आम मसाला वाली जिन फिल्मों में विद्या गाहे-बगाहे पटरी से उतर जाती हैं, वहीं लीक से हटकर किरदार आधारित फिल्मों में उनकी भूमिका चरम पर होती है. दूर्गा और विद्या के दो अलग-अलग परिवेश आधारित किरदार में उनकी विश्वसनीयता ही उनकी सक्षमता की परिचायक है. इंद्रजीत की भुमिका में अजरून किरदार के जरूरत को बखूबी निभा जाते हैं. क ालीम्पोंग और क ोलकाता की गलियों और लोकेशंस को खूबसूरती से फिल्माता सिनेमेटोग्राफी भी बांधे रखता है. सस्पेंस फिल्मों की जरूरत के लिहाज से बैकग्राउंड स्कोर और म्यूजिक का भी अच्छा साथ मिला.
क्यों देखें- सुजॉय की सस्पेंस विधा पसंद हो तो फिल्म और विद्या बिलकुल भी निराश नहीं करेगी.
क्यों न देखें- पिछली कहानी से तुलना व्यर्थ होगी.




Sunday, November 27, 2016

फिल्म समीक्षा

   दर्द भरे रिश्तों की भूलभूलैया में खुशियों के दरवाजे दिखाती डियर जिंदगी

करीब चार साल पहले गौरी शिंदे इंगलिश-विंगलिश के साथ आयी थी. एक सिंपल सब्जेक्ट और बड़े इम्पैक्ट वाली कहानी के साथ उन्होंने खुद के लिए एक अलग राह बना ली थी. डियर जिंदगी उसी रास्ते पर बनायी गयी एक और माइलस्टोन है. रिश्तों की उलझी गांठ के बीच फंसी दम तोड़ती खुशियों को जिस खूबसूरती से गौरी ने गांठ खोलकर खूले आसमान की सैर करायी वो वाकई तारीफ के क ाबिल है. डियर जिंदगी के किरदार और उनकी उलझनें बनावटी नहीं हैं. गौरी हमारे और आपके अंदर की अकुलाहट से हमारा ही परिचय कराती हैं. साफगोई से बता जाती हैं कि हमारे अंतस के छटपटाहट की जड़ भी हमारे ही अंदर है. वो जड़ जिसने हमारी खुशियों को अमरलत्ते की भांति जकड़ रखा है. फिर क ायरा(आलिया भट्ट) के जरीये धीरे-धीरे क ोमलता से उन जकड़न से मुक्ति की राह भी दिखा देती है. आज हर शख्स के अंदर कहीं न कहीं एक कायरा है, जिसे तलाश है बंद दरवाजे के पार की खुशियों की. गौरी वही दरवाजा खोलकर दर्शकों की जिंदगी खूशगवार बना देती है.
कायरा एक इंडिपेंडेंट लड़की है. सिनेमेटोग्राफर के रूप में अपना एक मुकाम बनाना चाहती है. जिंदगी की राह में उसे कई लड़कों का साथ मिलता है. पर हर बार एक अनजाने डर में वो खूद ही उस रिश्ते से दूरी बना लेती है. उसकी उलझनें अपने परिवार को लेकर भी हैं. पारिवारिक रिश्तों की परछाईं से भी वो दूर भागती है. रिश्तों के इन कशमकश के जुझती कायरा अनिद्रा की शिकार हो जाती है. ऐसे में उसकी मुलाकात एक साइकियाट्रिस्ट जग उर्फ जहांगीर खान (शाहरूख खान) से होती है. चेकअप सेशन और बातचीत के दौरान जग को कायरा की उन उलझनों का पता चलता है जो उसकी बीती जिंदगी से जुडें़ थे. बचपन से रिश्तों में चोट खायी कायरा के जख्मों की परत खुलती है. जग क ोमलता से उन जख्मों पर रिश्तों की नयी गर्माहट के मरहम लगाता है. धीरे-धीरे कायरा सूकून महसूस करती है. बाहरी दुनिया को खुद के दर्द की वजह मानती कायरा खुद ही उस दर्द से छुटकारे की राह बना लेती है. फिल्म कायरा के जरीये उन पैरेंट्स को सवालों के दायरे में ला खड़ा करती है जिनकी कमियों का दंश उनकी संतानों को ङोलना पड़ता है.
फिल्म कई वजहों से बार-बार देखे जाने लायक है. बेहतरीन क ांसेप्ट के अलावा इसके संवाद भी रह-रहकर आपको कुरेदते हैं. साथ ही खुद के अंदर की गुत्थियां सुलझाने को झकझोरते भी हैं. और इन वजहों को और विश्वसनीय बनाती है आलिया भट्ट और शाहरूख खान की अदाकारी. आलिया फिल्म दर फिल्म आज के जेनरेशन की सबसे समर्थ अभिनेत्री बनती जा रही हैं. डियर जिंदगी आलिया के लिए हाइवे(इम्तियाज अली) का एक्सटेंशन मानी जा सकती है.
जहांगीर के किरदार में शाहरूख की सादगी भाती है. ऐसे किरदार उन्हें खुद की बनी बनायी छवि तोड़ने का मौका देते हैं. सहयोगी किरदार में अंगद बेदी, कुणाल कपूर और अली जफर भी जंचते हैं. फिल्म की एक और खास बात इसका संगीत है. अमित त्रिवेदी ने कहानी के हिसाब से जिंदगी के उतार-चढ़ाव व खुशियों को बखूबी धूनों में उतारा है.
क्यों देखें- रूटीन फिल्मों से हटकर जिंदगी को करीब से जानने की चाहत हो तो जरूर देखें.
क्यों न देखें- मसाला फिल्म की चाहत झुंझलाहट दे सकती है.



दिल की बात: डियर जिंदगी


दर्द के पलों में रोते, सिसकते और गमगीन भावों से हम बस यही चाहते हैं कि दर्द देने वाले को ये दिखा सकें कि उसने हमें कितना दर्द दिया. पर ये देखने के लिए दर्द देनेवाला रूकता कहां है. और तकलीफ हम बस खुद को ही देते जाते हैं. पढ़ने में भले ही यह क ोरी फिलॉसफी लगे पर अगर आप शाहरूख और आलिया को परदे पर यही फिलॉसफी जीते देखेंगे तो यकीन मानिये फिल्म के आखिर में खुद के दर्द को थियेटर की सीट पर ही छोड़ आयेंगे.
बीते कुछ महीनों में कई फिल्में आयी. कुछ अच्छी, कुछ बुरी. पर पिंक के महीनों बाद आज एक ऐसी फिल्म देखी जिसने अंदर खलबली मचा दी. गहरे तक झकझोर दिया. बरसों से मन के अंदर कैद खुशियों को आजादी की ओर खुलते दरवाजे की टोह दे दी. दिखा दी मन के झंझावातों, रिश्तों की गुत्थियों और डर बनकर खुशियों को अमरबेल की माफिक जकड़े बुरी यादों से निकलने की राह. राह जो कतई मुश्किल नहीं. फिल्म के कुछ सींस और संवाद यकीनन काफी वक्त तक पीछा नहीं छोड़ने वाले. दोस्ती, प्यार और ब्रेकअप जैसे सिंपल क ांसेप्ट के साथ शुरू हुआ फिल्म का सफर कब लड़कियों की समस्याओं, फैमिली और पैरेंटिंग इथिक्स जैसे गंभीर मुद्दों के गलियारे ले गया पता ही नहीं चला. पर फिल्म के खात्में के साथ ही उस दोराहे पर खड़ा था जहां एक ओर मन की व्याकुलता थी, अनसुलङो रिश्तों की कड़वाहट थी, दर्द था, डर था तो दूसरी ओर बाहें पसारे जिंदगी थी, अपनी गोद में समेटने को आतुर खुशियां थी और हाथ में था गौरी शिंदे की डियर जिंदगी का वो फलसफा और आत्म विश्वास जो बार-बार मन को खुशियों की दिशा दिखा रहा था. और यकीन था कि अब खुशियों की तलाश में दिशाभ्रमित शायद ना हो पाऊं. अब भी जेहन में रह-रहकर गुंज रहा है जहांगीर (शाहरूख) का वो संवाद कि जिंदगी में गिरने के डर से खुशियों का दामन मत छोड़ो , क्योंकि जबतक गिरकर गलतियां नहीं करोगे बेस्ट का चुनाव कैसे करोगे. कायरा(आलिया )और जहांगीर के बीच की बातचीत का एक दृश्य भी रह-रहकर कचोट रहा है जहां दो ब्वायफ्रेंड्स से ब्रेकअप के बाद कायरा चैन की नींद सोना चाहती है और नये रिश्ते में फिर से धोखे का डर उसे रातों को सोने नहीं देता. जहांगीर उसे समझाता है कि जब तुम कुर्सियां खरीदने जाती हो तो जरूरी नहीं कि दुकान की पहली कुर्सी ही तुम्हें पसंद आये. तुम उसका चुनाव करती हो जो तुम्हें कंफर्ट फ ील कराता है. तब सूकून का अहसास करती कायरा का ये पुछना कि हर लड़की कुर्सी क्यों नहीं खरीदती? उफ्फ! बात छोटी सी पर असर गहरे. पर हम क्यूं फिक्र करें उस दर्द का, क्यूंकि ऐसी चुनाव करने वाली लड़कियां तो हमारे लिए चालू टाइप होती हैं ना! या फिर लड़कों की मानसिकता पर तंज कसता कायरा का वो संवाद कि बेड तक ले जाते वक्त लड़कों को हर लड़की मेच्योर दिखती है पर क ामयाबी की ओर लड़कों से कदम मिलाती उसी लड़की में उन्हें इमेच्योरिटी के लक्षण दिखने लगते हैं. क्यूं हैं हम ऐसे? या फिर क्यूं ऐसे हैं वो पैरेंट्स जो जन्म के बाद बच्चों को पालते तो अपनी मर्जी अपने तरीके से हैं, पर बच्चों की हर असफलता का ठीकरा फ ोड़ते उनके ही सिर हैं. पर यकीन मानिये, डियर जिंदगी की खूबसूरती इसमें नहीं कि वो तमाम रिश्तों की क मियां निकालती है, फिल्म खूबसूरत तब बन जाती है जब अलग-अलग रिश्तों में क मियों के बावजूद आपके खुशियों की चाबी खुद के अंदर छुपी दिखाती है.
और हां, आलिया की बात न क रूं तो फिल्म के साथ ज्यादती होगी. क्यूंकि थियेटर में गुजारे हर पल के साथ मन के किसी क ोने में अभिनय को ले आलिया के लिए विश्वसनीयता बढ़ती जा रही थी. उनके हर एक्सप्रेशन के साथ हिंदी सिनेमा के उज्जव भविष्य का विश्वास पुख्ता होता जा रहा था. आखिर में थैंक्स गौरी शिंदे, समूंदर की लहरों से कबड्डी खेलते शाहरूख के जरीये जिंदगी के नये फलसफे समझाने के लिए, मानवीय संवेदनाओं के ताने -बाने को निहायत खूबसूरती से बूनकर हमें उसके आगोश में लपेटने के लिए. खुशियों की तलाश में मृग मरीचिका सरीखे भटकते मन को अंदर की कस्तूरी से रूबरू कराने के लिए. और यकीनन फिल्म की दिल चुरा ले जाती खूबसूरत अंत के लिए.


फिल्म समीक्षा

                    एक्शन के शौकीनों को भाएगी फ ोर्स 2

पहली फ ोर्स से तुलना छोड़ दें तो फ ोर्स 2 का साथ आपको निश्चित ही भायेगा. पहली फिल्म में मुंबइ पुलिस एसीपी यशवर्धन और उसके काम के तौर-तरीकों से वाकिफ हो चुके दर्शकों के लिए ये जिज्ञासा बनी थी कि नयी फिल्म में नया क्या होगा. और यकीनन फिल्म उन दर्शकों की जिज्ञासा को खूबसूरती से शांत करने में सफल होती है. निर्देशक अभिनय देव ने फ ोर्स 2 के जरीये देश के लिए काम कर रहे उन रॉ एंजेंट्स की कहानी कही है जो पूरी उम्र तो देश सेवा में लगा देते हैं, पर पकड़े जाने पर वही देश उनसे मुंह मोड़ लेता है. उसके इंडियन होने पर ही सवालिया निशान लगा देता है और कभी-कभी तो उसे गद्दार तक बना दिया जाता है.
फ ोर्स 2 की कहानी पिछली फिल्म के खात्में के साथ ही शुरू होती है. माया(जेनेलिया देशमुख) की मौत के बाद एoीपी यशवर्धन उसकी यादों और अपने काम के सहारे जिंदगी गुजार रहा होता है. तभी खबर आती है कि चीन में काम कर रहे तीन रॉ के एंजेंट्स की हत्या हो जाती है. उनकी मौत पर भारत सरकार उन्हें रॉ का एजेंट मानने से इनकार कर देती है. मरने वालों में एक यश का दोस्त हरीश भी होता है जो मरने से पहले वो यश के लिए कुछ क्लू छोड़कर जाता है. उसके दिये सुराग से यश को पता चलता है कि ये हत्याएं करवाने वाला भी एक रॉ एजेंट है जो बुडापेस्ट अम्बेसी में काम करता है. यश के पिछले रिकार्ड को देखते हुए उसे इस केस की तहकीकात करने बुडापेस्ट भेजा जाता है जहां उसके साथ रॉ की एजेंट केके(सोनाक्षी सिन्हा) भी जाती है. वहां पहुंचकर दोनों साजिश के मुख्य आरोपी शिव शर्मा (ताहिर राज भसीन) तक भी पहुंच जाते हैं. पर इसके साथ ही एक के बाद एक रॉ एजेंट्स की हत्या शुरू हो जाती है. केके इस केस को रॉ के तरीके से हैंडल करती है जबकि यश की सोच मुंबई पुलिस की तरह चलती है. केस की तह तक जाते यश के हाथ एक दिन ऐसा सुराग लगता है जो इस केस की पूरी दिशा ही बदल देता है.
बीजिंग, संघाई और बुडापेस्ट के नयनाभिराम लोके शंस के साथ चलती कहानी जॉन की चुस्ती-फुर्ती की वजह से भी मोहती है. एक्शन और चेजिंग सींस में जॉन अब विश्वसनीय हो चले है, कमी रह जाती है तो बस उनके फेसियल एक्सप्रेशंस की. शायद यही वजह रही कि निर्देशक ने जॉन के क्लोज शार्ट्स से भरसक बचने का प्रयास किया है. अकीरा के बाद एक बार फिर सोनाक्षी की मेहनत सराहनीय है. ताहिर के अलावे छोटी भुमिकाओं में नरेन्द्र झा और आदिल हुसैन भी फबते हैं. गानों में क ाटे नहीं कटती का यंगर वजर्न लुभाता तो है पर बीजिंग के क्लब में हिंदी गाने बजना समझ से परे है.
क्यों देखें- अगर आप जॉन के तेजतर्रार एक्शन और चपलता के दीवाने हैं तो बेशक फिल्म आपके लिए है.
क्यों न देखें- पिछली फिल्म से तुलना थोड़ी निराश करेगी.