Sunday, November 27, 2016

दिल की बात: डियर जिंदगी


दर्द के पलों में रोते, सिसकते और गमगीन भावों से हम बस यही चाहते हैं कि दर्द देने वाले को ये दिखा सकें कि उसने हमें कितना दर्द दिया. पर ये देखने के लिए दर्द देनेवाला रूकता कहां है. और तकलीफ हम बस खुद को ही देते जाते हैं. पढ़ने में भले ही यह क ोरी फिलॉसफी लगे पर अगर आप शाहरूख और आलिया को परदे पर यही फिलॉसफी जीते देखेंगे तो यकीन मानिये फिल्म के आखिर में खुद के दर्द को थियेटर की सीट पर ही छोड़ आयेंगे.
बीते कुछ महीनों में कई फिल्में आयी. कुछ अच्छी, कुछ बुरी. पर पिंक के महीनों बाद आज एक ऐसी फिल्म देखी जिसने अंदर खलबली मचा दी. गहरे तक झकझोर दिया. बरसों से मन के अंदर कैद खुशियों को आजादी की ओर खुलते दरवाजे की टोह दे दी. दिखा दी मन के झंझावातों, रिश्तों की गुत्थियों और डर बनकर खुशियों को अमरबेल की माफिक जकड़े बुरी यादों से निकलने की राह. राह जो कतई मुश्किल नहीं. फिल्म के कुछ सींस और संवाद यकीनन काफी वक्त तक पीछा नहीं छोड़ने वाले. दोस्ती, प्यार और ब्रेकअप जैसे सिंपल क ांसेप्ट के साथ शुरू हुआ फिल्म का सफर कब लड़कियों की समस्याओं, फैमिली और पैरेंटिंग इथिक्स जैसे गंभीर मुद्दों के गलियारे ले गया पता ही नहीं चला. पर फिल्म के खात्में के साथ ही उस दोराहे पर खड़ा था जहां एक ओर मन की व्याकुलता थी, अनसुलङो रिश्तों की कड़वाहट थी, दर्द था, डर था तो दूसरी ओर बाहें पसारे जिंदगी थी, अपनी गोद में समेटने को आतुर खुशियां थी और हाथ में था गौरी शिंदे की डियर जिंदगी का वो फलसफा और आत्म विश्वास जो बार-बार मन को खुशियों की दिशा दिखा रहा था. और यकीन था कि अब खुशियों की तलाश में दिशाभ्रमित शायद ना हो पाऊं. अब भी जेहन में रह-रहकर गुंज रहा है जहांगीर (शाहरूख) का वो संवाद कि जिंदगी में गिरने के डर से खुशियों का दामन मत छोड़ो , क्योंकि जबतक गिरकर गलतियां नहीं करोगे बेस्ट का चुनाव कैसे करोगे. कायरा(आलिया )और जहांगीर के बीच की बातचीत का एक दृश्य भी रह-रहकर कचोट रहा है जहां दो ब्वायफ्रेंड्स से ब्रेकअप के बाद कायरा चैन की नींद सोना चाहती है और नये रिश्ते में फिर से धोखे का डर उसे रातों को सोने नहीं देता. जहांगीर उसे समझाता है कि जब तुम कुर्सियां खरीदने जाती हो तो जरूरी नहीं कि दुकान की पहली कुर्सी ही तुम्हें पसंद आये. तुम उसका चुनाव करती हो जो तुम्हें कंफर्ट फ ील कराता है. तब सूकून का अहसास करती कायरा का ये पुछना कि हर लड़की कुर्सी क्यों नहीं खरीदती? उफ्फ! बात छोटी सी पर असर गहरे. पर हम क्यूं फिक्र करें उस दर्द का, क्यूंकि ऐसी चुनाव करने वाली लड़कियां तो हमारे लिए चालू टाइप होती हैं ना! या फिर लड़कों की मानसिकता पर तंज कसता कायरा का वो संवाद कि बेड तक ले जाते वक्त लड़कों को हर लड़की मेच्योर दिखती है पर क ामयाबी की ओर लड़कों से कदम मिलाती उसी लड़की में उन्हें इमेच्योरिटी के लक्षण दिखने लगते हैं. क्यूं हैं हम ऐसे? या फिर क्यूं ऐसे हैं वो पैरेंट्स जो जन्म के बाद बच्चों को पालते तो अपनी मर्जी अपने तरीके से हैं, पर बच्चों की हर असफलता का ठीकरा फ ोड़ते उनके ही सिर हैं. पर यकीन मानिये, डियर जिंदगी की खूबसूरती इसमें नहीं कि वो तमाम रिश्तों की क मियां निकालती है, फिल्म खूबसूरत तब बन जाती है जब अलग-अलग रिश्तों में क मियों के बावजूद आपके खुशियों की चाबी खुद के अंदर छुपी दिखाती है.
और हां, आलिया की बात न क रूं तो फिल्म के साथ ज्यादती होगी. क्यूंकि थियेटर में गुजारे हर पल के साथ मन के किसी क ोने में अभिनय को ले आलिया के लिए विश्वसनीयता बढ़ती जा रही थी. उनके हर एक्सप्रेशन के साथ हिंदी सिनेमा के उज्जव भविष्य का विश्वास पुख्ता होता जा रहा था. आखिर में थैंक्स गौरी शिंदे, समूंदर की लहरों से कबड्डी खेलते शाहरूख के जरीये जिंदगी के नये फलसफे समझाने के लिए, मानवीय संवेदनाओं के ताने -बाने को निहायत खूबसूरती से बूनकर हमें उसके आगोश में लपेटने के लिए. खुशियों की तलाश में मृग मरीचिका सरीखे भटकते मन को अंदर की कस्तूरी से रूबरू कराने के लिए. और यकीनन फिल्म की दिल चुरा ले जाती खूबसूरत अंत के लिए.


No comments: