Saturday, October 29, 2016

फिल्म समीक्षा

     एक्शन और इमोशन की नयी परिभाषा है शिवाय

पिछले एक साल से अजय देवगन के नाम पर बस शिवाय की चर्चा सुनने मिल रही थी. फिर इसके ट्रेलर ने जिज्ञासा का स्तर इस कदर बढ़ा दिया था कि उम्मीदें चरम पर थी. आखिरकार फिल्म देखी और तब वाकई लगा कि क्यों पिछले एक साल से अजय देवगन ने कई बाकी सारे प्रोजेक्ट्स को मना किया और क्यों शिवाय के भारी-भरकम बजट के लिये अपना सबकुछ दांव पर लगा दिया. अजय की शिवाय एक्शन और इमोशन के स्तर पर हिंदी सिनेमा को एक अलग ही दिशा में ले जाती है. कई बार अभिनय और निर्देशन दोनों की कमान एक साथ थामने के चक्कर में सब मटियामेट हो जाता है. पर तारीफ के क ाबिल हैं अजय जिन्होंने पूरी शिद्दत से दोनों को बखूबी थामा. लब्जों के बजाय आंखों से बात करते इमोशंस और दूर्गम बर्फीली पहाड़ियों में फिल्माये हॉलीवूड को टक्कर देते एक्शन सींस इसे एक अलग ही श्रेणी में ला खड़ा करते हैं.
कहानी पहले ही सीन में इमोशनल करती हुई नौ साल पीछे फ्लैशबैक में चली जाती है. उतराखंड के एक गांव में रहने वाला शिवाय(अजय देवगन) पर्यटकों को माउंटेन ट्रैकिंग में गाइड करने का क ाम करता है. ट्रैकिंग के दौरान उसकी मुलाकात ओल्गा(एरिका क ार) से होती है. दोनों एक-दूसरे को पसंद करने लगते हैं. एक दिन अचानक मौसम खराब होने की वजह से दोनों हिमस्खलन के बीच फंस जाते हैं. जान बचाने की कोशिश में हालात ऐसे बनते हैं कि दोनों के रिश्ते आत्मीयता के रास्ते दैहिक सफर पर चल पड़ते हैं. ओल्गा मां बनने वाली होती है, और यहीं से फिल्म हिंदी सिनेमा के प्रचलित ढांचों से उलट रास्ता अख्तियार करती है. शिवाय को बच्चे की चाहत है पर ओल्गा अपनी फैमिली की वजह से मां नहीं बनना चाहती. 5ावाय की काफी मिन्नतों के बाद वो इसी शर्त पर मां बनने को तैयार होती है कि बच्चे को जन्म देने के बाद वो उसे शिवाय के पास छोड़कर वापस बुल्गारिया चली जाएगी. सालों बाद जब शिवाय की बेटी गौरा(एबीगेल एम्स) को इस बात का पता चलता है तो वो अपनी मां से मिलने की जिद करती है. शिवाय उसे ले बुल्गारिया पहुंचता है, पर अगले ही दिन वहां गौरा का किडनैप हो जाता है. फिर.. अर्र र्र रुकिये, सेकेंड हाफ की कहानी और क्लाइमैक्स का लुत्फ अगर आपने थियेटर में नहीं उठाया तो आप निश्चित ही एक्शन और इमोशन के एक उम्दा क ॉकटेल के स्वाद से वंचित रह जाएंगे.
अभिनय के स्तर पर फिल्म अजय देवगन की भावनात्मक छलांग के लिए निश्चित ही देखे जाने लायक है. उम्र के इस पड़ाव में ऐसे अंतर्रास्ट्रीय स्तर की प्रयोगात्मक एक्शन से उनकी विस्तृत रेंज का पता चलता है.
क्यों देखें- इंडियन ट्रैडिशनल वैल्यूज के साथ एक इंटरनेशनल स्तर की फिल्म देखने के इच्छुक हों तो.
क्यों न देखें- फिल्म की लंबाई धैर्य में थोड़ी खलल डाल सकती है.


फिल्म समीक्षा

                    प्यार या दोस्ती..ऐ दिल है मुश्किल

रिश्तों की डोर बड़ी बारीक होती है, थोड़ी सी गलतफहमी और उम्र भर की टीस. फिल्म का नायक मैने प्यार किया के उस डॉयलॉग को जीने में विश्वास रखता है कि एक लड़का और लड़की कभी दोस्त नहीं हो सकते. नायिका की सोच में स्वछंदता है. पर वो अपने पूर्व प्रेमी के धोखे से आहत है. इस वजह से वो प्यार के बजाय दोस्ती को ज्यादा मजबूत और टिकाऊ मानती है. करन जाैहर अपनी पहली फिल्म से ही रिश्तों की बारीकियों के साथ खेलते आ रहे हैं. ऐ दिल है मुश्किल भी इसी श्रृंखला की अगली कड़ी है. फिल्म के जरीये करन ने प्यार और दोस्ती के बीच की बारीक ड ोर पर खूबसूरती से करतब दिखाई है. कहानी में कुछ नयापन नहीं होने के बावजूद रणबीर और अनुष्का के उम्दा अभिनय, एश्वर्या के ग्लैमरस अवतार, फवाद, शाहरूख और आलिया की मौजूदगी व मस्ती भरे वन लाइनर्स की वजह से फिल्म देखने लायक बन पड़ी है.
अयान(रणबीर कपुर) लंदन में एमबीए कर रहा है पर उसका दिल संगीत में बसता है. ऐसे में उसकी मुलाकात एलीजा खान(अनुष्का शर्मा) से होती है. दोनों में जल्द ही गाढ़ी दोस्ती हो जाती है. वक्त के साथ एलीजा के दिल में तो इस दोस्ती की प्रगाड़ता बरकरार रहती है, पर अयान के मन में प्यार पनपता है. अचानक एलीजा की लाइफ में पूर्व प्रेमी अली(फवाद खान) का आना होता है. एलीजा प्यार में कमजोर पड़ जाती है और अली से शादी कर लेती है. उसे भूलने की कोशिश में अयान तलाकशुदा शबा(ऐश्वर्या राय) के सानिध्य में पहुंच जाता है. पर वहां भी उसे सुकून नहीं मिलता. वो बार-बार एलीजा के रास्ते आता है इस उम्मीद में कि कभी तो वो उसे प्यार करेगी. पर तमाम जतन के बाद भी एलीजा के दिल में अयान की दोस्ती का स्वरूप नहीं बदलता. क्लाइमैक्स में इमोशन का ओवरडोज देने के चक्कर में करन थोड़ा ड्रामेटिक जरूर हो गये हैं. पर रणबीर के संवेदनशील अभिनय ने इस कमजोरी को भी ढंक दिया. एलीजा के आजादख्याल किरदार में अनुष्का खिलकर उभरती हैं. हां ग्लैमर का तड़का लगाने परदे पर आयी ऐश्वर्या का ऐसे किरदार के लिए हां कहना समझ से परे लगता है.

यंग जेनरेशन के लाइफस्टाइल और रिश्तों के ताने बाने में बूनी ये फिल्म कई हिस्सों में आपको रॉकस्टार, ये जवानी है दीवानी और तमाशा की याद दिलाती है. फिल्म के गीत संगीत तो पहले ही चार्टबस्टर में अपनी जगह बना चुके हैं. तो अगर आप इस दीवाली हल्के-फुल्के मूड में फैमिली इंज्वायमेंट चाहते हैं तो ऐ दिल.. का सफर भी बूरा नहीं रहेगा.

Sunday, October 23, 2016

फिल्म समीक्षा

          संवेदनशील मुदद्े का औसत फिल्मांकन 31 अक्टूबर
यूं तो 84 के सिख विरोधी दंगों और उससे उपजे हालात से प्रभावित लोगों पर गाहे-बगाहे कई फिल्मकारों की नजरें गयी. कई ने उन्हें कहानी में पिरोकर फिल्में भी बनायी, पर उन फिल्मों को जिस संवेदनशीलता और गहन शोध की जरूरत रही उससे वो हमेशा अछुता रहा. धग जैसी राष्ट्रीय पुरस्कार विजेता मराठी फिल्म के निर्देशक शिवजी लोटन पाटिल की नयी फिल्म 31 अक्टूबर भी इसी उदासीनता की अगली कड़ी है. कम बजट और कमजोर पटकथा की वजह से फिल्म भी सिख विरोधी दंगे पीड़ितों की तरह ही न्याय की आस लगाये रह जाती है. सब जानते हैं कि तत्कालीन दंगे की वजह से लगभग 2200 लोग मारे गये थे. उस हालात से पीड़ित सैकड़ों लोग आज भी अपराधियों के सजा की उम्मीद में तरस रहे हैं. ऐसे विषयों के फि ल्मांकन की सबसे बड़ी मांग शोधकार्य के साथ किरदारों और घटनाओं का बेहतर संयोजन होता है. और इन्हीं मोचोर्ं पर शिवजी पिछड़ जाते हैं. केवल एक परिवार के जरीये कहानी कहने की उनकी कोशिश में फिल्म प्रभावहीन हो जाता है.
कहानी दिल्ली के एक सिख परिवार की है. परिवार में देवेन्द्र सिंह(वीर दास) }ी तेजिन्दर क ौर(सोहा अली खान) दो बेटे और एक छोटी बेटी के साथ रहता है. जिंदगी खुशहाल चल रही होती है तभी 31 अक्टूबर को तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या हो जाती है. हत्या में उनके सिख अंगरक्षकों का हाथ होने की वजह से सिख विरोधी दंगे भड़क जाते हैं. अंगरक्षकों के किये की सजा पूरी सिख क ौम पर कहर के रूप में गिरती है. जगह-जगह सिखों की हत्या कर दी जाती है. फिल्म इसी दंगे के बाद देवेन्द्र के परिवार के सभी सदस्यों के सामने उत्पन्न परिस्थितियों की कहानी बयां करती है. निर्देशक इन दंगों की वजह से उत्पन्न हालातों के साथ-साथ कहानी में मानवीय संवेदनाओं को भी शुमार करने की कोशिश करती है. कुछ हिंदू परिवारों की मदद से तेजिन्दर और उसकी फैमिली इस मुसीबत से बाहर निकलने की जद्दोजहद करती है. और इसकी परिणिती क्या होती है इसका मुजायरा बेशक आप थियेटर में करें तो बेहतर होगा.
कहानी क ागजी स्तर पर जितनी मजबूत दिखती है, फिल्म देखते वक्त उतनी सशक्तता और संवेदनशीलता की कमी आपको निश्चित ही खलेगी. ऐसे विस्तृत परिप्रेक्ष्य वाले मुद्दे को एक परिवार के कहानी में समेटने की निर्देशक की कोशिश ही उनकी सबसे बड़ी कमजोरी बन जाती है. किरदारों के लिहाज से वीर दास और सोहा अली खान ने इस कमजोरी को पाटने की भरसक कोशिश की, पर यहां भी पटकथा का ढीलापन उनके आड़े आ जाता है. कुल मिलाकर फिल्म उस वक्त के परिवेश, घटनाओं और दंगों से उत्पन्न परिस्थितयों के बारे में तो कई ऐसी जानकारियां दे जाती हैं जिनसे हम अबतक अछूते थे, पर संवेदनशीलता के स्तर पर हमें अंदर तक झकझोरने में नाकामयाब हो जाती है.
क्यों देखें- सोहा अली खान और वीरदास की अभिनय के प्रशंसक हैं तो फिल्म का रूख कर सकते हैं.
क्यों न देखें- कहानी के माध्यम से दंगे के दर्द और उससे पीड़ितों के हालात का विस्तृत विेशन चाहते हों तो.



Saturday, October 15, 2016

फिल्म समीक्षा

                            कमजोर कहानी में पिस गये दिल्ली के सात उचक्के

http://epaper.prabhatkhabar.com/967679/PATNA-City/CITY…
सिचुएशनल कॉमेडी की सबसे बड़ी जरूरत होती है एक मजबूत स्क्रिप्ट. कहानी में जरा सी चुक हुई नहीं कि जी तोड़ मेहनत के बावजूद अभिनय के तमाम योद्धा मोर्चे पर धराशायी हो जाते हैं. कमोबेश यही स्थिति अभिनय के सात महारथियों की हुई फिल्म साच उचक्के में. निर्देशक संजीव शर्मा ने पुरानी दिल्ली की गलियों और गालियों को तो परदे पर खूबसूरती से तराशा, पर कहानी की बूनावट में कमजोर पड़ गये. उनकी इस कमजोरी को मनोज बाजपेयी, केके मेनन व विजय राज जैसे अभिनेताओं ने कॉमेडी के उम्दा स्तर से पाटने की भरपूर क ोशिश की, पर वे सब मिलकर भी इसे उत्कृष्टता की श्रेणी में नहीं ला सके. पर ऐसा नहीं कि फिल्म में देखने लायक कुछ भी नहीं है. पुरानी दिल्ली की तंग गलियां, वहां रचे-बचे निम्नवर्गीय परिवार की जिंदगियां और उन अभाव की गलियों में गुम आंखों में क ामयाबी के बुनते ख्वाब. संजीव की फिल्म उस परिवेश की सैर कराती है जहां बरसों से फिल्मकार जाना भूल चुके थे. और यही फिल्म की खासियत सी बन जाती है.
कहानी पुरानी दिल्ली के सात उचक्कों की है जो छोटे-मोटे अपराध कर के जिंदगी चला रहे होते हैं. उनकी ख्वाहिशें रिहाइशी और मौज-मस्ती भरी लाइफ से ज्यादा नहीं है. पप्पी(मनोज बाजपेयी) उचक्कों के गैंग का लीडर है. समस्या तब शुरू होती है जब पप्पी को सोना(अदिति शर्मा) से प्यार हो जाता है. सोना की मां के सामने वह खुद को एक रसूखदार के रूप में पेश करता है. और फिर खुद को अमीर दिखाने के चक्कर में वो एक बड़ा प्लान करता है. सब मिलकर पुरानी हवेली के दीवान साहब(अनुपम खेर) का खजाना लूटने का प्लान करते हैं. इस कोशिश में उनसे कई गलतियां होती हैं. और उन गलतियों को छुपाने में वो और गलतियां करते जाते हैं. खजाना लूटने के उनके प्लान में बार-बार उनका सामना इंस्पेक्टर तेजपाल (केके मेनन)से होता है. अपनी-अपनी जरूरतें पूरी करने के ख्याल से इस प्लान में जूड़ें इन उचक्कों की जर्नी उन्हें किस मोड़ पर ले जाती है इसका मुजायरा आप थियेटर में करें तो बेहतर होगा.
पहली बार फु ल क ॉमिकल किरदार निभा रहे मनोज यहां भी अपने पूरे रंग में दिखते हैं. क ॉमिकल टाइमिंग के महारथी माने जाने वाले विजय राज और केके मेनन के साथ के दृश्यों में मनोज और निखर जाते हैं. सहकलाकारों में अदिति शर्मा, अन्नु कपुर और अनुपम खेर भी अपेक्षित सहयोग देते हैं.
क्यों देखें- कॉमेडी के उम्दा कलाकारों को एक साथ देखना चाहें तो.
क्यों न देखें- किसी बेहतरीन सिचुएशनल कॉमेडी के दीदार की इच्छा रखते हों तो रहने ही दें.

फिल्म समीक्षा

                                                   प्रेम की अपूर्ण यात्रा है मिर्ज़्या

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मिर्ज़्या कहानी है सदियों से चली आ रही प्रेम के परिणिति की. सदियां बीत जाती है, युग बदल जाते हैं पर प्रेम की यात्रा और नियति एक सी रहती है. नदी के दो किनारों सी अतीत और वर्तमान के बीच से बहती गुलजार की मिर्ज़्या दो युगों की कहानी कहती है. जहां दोनों युगों में उसकी प्रेम धारा अनवरत बहती है पर आखिर में समाज रूपी सागर में समा जाती है. गुलजार के क ाव्यात्मक लहजे वाली प्रेमकथा को राकेश ओमप्रकाश मेहरा ने अपने शिल्प कला से ऊंचाई तो भरपूर दी पर दोनों इस भव्यता को जरूरी कहानी का मजबूत आधार नहीं दे पाये. मिर्ज़्या आकर्षित करती है लहरों की माफिक अठखेलियां करते गुलजार के उन्मुक्त संवादों से, उनकी परिकल्पना को मनोहारी दृश्यों में उकेरते राकेश मेहरा के शिल्प से, गीतों और लोकधूनों के साथ जुगलबंदी करते प्रेमपूर्ण भावों से. पर कमी नजर आती है तो इन सब मोतियों को एक साथ पिरोकर गूंथने वाले धागे की. जैसे राकेश ने रंग दे बसंती में दो कहानियों को बड़ी बारिकी से एक धागे में पिरोया था, वो बारीकी इस बार उनकी पकड़ से छूट जाती है. और यही वजह है कि तमाम र}ों के बावजूद फिल्म एक मुकम्मल आभुषण में तब्दील नहीं हो पाती और दर्शकों को अपने मोहपाश में बांध नहीं पाती.
कहानी शुरू होती है राजस्थान के बस्ती से. लोहारों की इस बस्ती में आदिल(हर्षवर्धन कपुर) है, जो बचपन से सूची (सैयामी खेर) से प्रेम करता है. प्रेम की पराकाष्ठा ये कि वो स्कूल के एक टीचर की हत्या केवल इसलिए कर देता है कि उसने सूची की क्लास में पिटाई कर दी थी. उसे रिमांड होम भेज दिया जाता है और सूची को ले उसके पिता शहर चले जाते हैं. बड़े होने पर सूची की शादी उस राजघराने में तय होती है जहां आदिल एक मुलाजिम का क ाम करता है. इसी कहानी के समानांतर एक और कहानी चलती है जहां पंजाब की वादियों में मिर्जा और साहिबा का प्रेम आंख मिचौली खेल रहा है. आदिल और सूची की प्रेम यात्र भी पंजाबी लोककथाओं में बसे मिर्जा और साहिबा सरीखी ही है. दो अलग-अलग क ालखंडों और पृष्ठभुमि पर संग-संग चलती दोनों कहानियों का अंत इस बात को तय करता है कि कालखंड चाहे कोई भी हो प्रेम की यात्र, उसकी नियति और परिवार व समाज का उसके प्रति नजरिया एक सा ही होता है.
भले कहानी दर्शकों को बांध पाने में असफल रही हो, पर दोहरे किरदार की मनोदशा और भावों को आत्मसात करने में दोनों मुख्य कलाकार पूर्णता का अहसास देते हैं. पहली फिल्म होने के बावजूद हर्षवर्धन व सैयामी की मेहनत और नेचुरलिटी ध्यान आकर्षित करती है. शंकर अहसान लॉय का पंजाबी मिठास लिए संगीत और गुलजार के गीत माहौल में एक अलग ही मिठास घोलते हैं. पर तमाम खूबसूरती के बावजूद फिल्म अलग-अलग हिस्सों में बंटकर रिझाती है, पर एक साथ गुंथने की कोशिश में टकराकर बिखर जाती है.
क्यों देखें- राकेश ओमप्रकाश मेहरा के शिल्प व गुलजार के क ाव्यलहरों में गोते लगाना चाहते हों तो.
क्यों न देखें- बांधकर रखने लायक कहानी की कमजोरी बार-बार आपके धैर्य की परीक्षा लेगी.

Thursday, October 6, 2016

अंधविश्वास के खिलाफ अलख जगायेगा कलर्स का नया शो देवांशी

                          मुंबई से लौटकर गौरव
आस्था और अंधविश्वास के बीच बहुत बारीक लाइन होती है. जहां आस्था विश्वास के बुते टिका होता है, वहीं अंधविश्वास डर के सारे में जन्म लेता है. कलर्स चैनल का नया धारावाहिक देवांशी इसी विश्वास और डर की कहानी कहता है. हर बार एक नये सोशल इश्यूज को अपने डेलीसोप्स के जरिये दर्शकों तक पहुंचाने वाला चैनल एक बार फिर देवांशी के जरिये घर-घर में दस्तक देने वाला है. और इस बार उसने जिस मुद्दे को उठाया है उससे शायद ही आज के समाज का कोई वर्ग अछूता है. शो की शुरु आत से पहले मुंबई के होटल ताज में आयोजित प्रेस कॉफ्रेंस में शो के प्रोड्यूर्स और एक्टर्स ने इस मुद्दे और सीरियल के बारे में खुल कर अपनी बात रखी. तीन अक्तूबर शाम सात बजे से कलर्स पर दिखाये जानेवाले इस धारावाहिक की कहानी है अंधी आस्था के नाम पर इस्तेमाल होती नन्हीं देवांशी (काशी कोठारी) की. एक एक्सीडेंट में अपने माता-पिता को खो चुकी देवंशी का जीवन उस समय अचानक बदल जाता है जब वह एक शिशु के रूप में अचानक गॉड वूमन के चढ़ावे वाली हुंडी में गिर जाती है, और आस्था के नाम पर माता कुसुम सुंदरी (करु णा पांडेय) द्वारा वो मंदिर की संपित्त घोषित कर दी जाती है. कुसुम सुंदरी सरला और ओमी को उसके पालन-पोषण की जिम्मेदारी सौंपती है. थोड़ी बड़ी होने पर देवांशी को कस्बे के लोग घूंघरू वाली माया का अवतार बता उसे भी माता कुसुम सुंदरी सा देवी घोषित कर देते हैं. बच्ची को पालने वाली मां सरला भी लालचवश इस बात का फायदा उठाती है. वो देवांशी को माता कुसुम सुंदरी के मुकाबले खड़ा कर देती है. देवांशी इस अंधविश्वास से उपजी चुनौतियों का बखूबी सामना करती है और कस्बे में आस्था का डर दिखा कर राज करने वाली बुरी गॉडवुमन माता कुसुम सुंदरी को पराजित करने के सफर पर निकल पड़ती है. धारावाहिक के कॉसेप्ट के बारे में पूछे जाने पर कलर्स के प्रोग्रामिंग हेड मनीषा शर्मा ने बताया कि आज हमारे देश में भगवान व आस्था के नाम पर कई लोग विकास की सबसे बड़ी रुकावट बने हुए हैं. देवांशी के जरिये हम इसी अनछुए कॉन्सेप्ट को सामने ला रहे हैं जो बुराई व अच्छाई में जंग के इस सफर से दर्शकों को सोचने पर मजबूर कर देगा. फुल मीडिया हाउस प्रा. लि. द्वारा प्रस्तुत इस धारावाहिक में काशी और करु णा के अलावे मुख्य किरदारों में अंकिता शर्मा (सरला) और पंकज भाटिया (ओमी) भी हैं, जो देवांशी के पालन-पोषण करते हैं. साथ ही आमिर दल्वी द्वारा निभाये गये कुसुम सुंदरी के सेवक मोहन का किरदार भी उत्सुकता पैदा करेगा.
प्रोड्यूसर सोनाली जाफर के अनुसार हरियाणवी बैकड्रॉप पर आधारित इस धारावाहिक के लिए उन्होंने एक काल्पनिक कस्बे ज्वालापुरी की पृष्ठभूमि गढ़ी. पर उन्होंने इस बात का भी पूरा ध्यान रखा कि कल्पना आधारित ये कहानी प्रामाणकिता के ठोस धरातल से भी वंचित ना रहे.
देवी होने का ठोंग रचने वाली धारावाहिक की मुख्य किरदार (कुसुम सुंदरी) के बारे में बात करने पर करु णा पांडेय ने बताया कि इस शो के कॉन्सेप्ट ने पहली बार में ही मुङो आकर्षित कर लिया. कुसुम संदरी का किरदार निभाने वक्त मुङो कई बार आस्था और अंधविश्वासों के दुष्परिणाम को करीब से समझने का मौका मिला. इस किरदार की ताकत मेरे करियर को एक नयी ऊंचाई पर ले जायेगा. राम-रावण, कृष्ण-कंस के अविस्मरणीय कहानी से प्रेरित इस धारावाहिक का कॉन्सेप्ट ही इसकी सबसे बड़ी ताकत है और यह निश्चित है दर्शकों को भी अंधविश्वास के दलदल से बाहर खींचने में सफल होगा.
शो मे मोहन का किरदार निभा रहे आमिर दल्वी के अनुसार नकारात्मकता पर सकारात्मकता की जीत का कॉन्सेप्ट लिए यह धारावाहिक उन सबों पर कुठाराघात करेगा जो अंधविश्वास के भंवर में उलङो हैं. जैसे-जैसे कहानी सामने आती जायेगी नन्हीं देवांशी का नजरिया अंध आस्था के भक्तों की आंखें खोल देगा. और हमारा ये धारावाहिक अगर कुछ दर्शकों की नकारात्मकता खत्म करने में सफल रहा तो ये शो की सबसे बड़ी कामयाबी होगी.






Saturday, October 1, 2016

फिल्म समीक्षा

संघर्षजज्बे और क ामयाबी की कहानी
एम एस धोनीद अनटोल्ड स्टोरी

एम एस धोनी: द अनटोल्ड स्टोरी. फिल्म की कहानी को पूरी तरह जस्टिफाई करता टाइटल. थियेटर में आप धौनी के तीस साल के उस जर्नी का मुजायरा करते हैं, जिसमें संघर्ष है, जोश है, दर्द है, प्रेम है और साथ में है क ामयाबी की वो दास्तान, जिसके जरिये पहली बार आप किसी प्लेइंग स्पोर्सपर्सन की बायोपिक को परदे पर देखेंगे. धौनी के प्रचलित ग्लैमराइज्ड छवि से इतर फिल्म उस क ामयाबी के पीछे की कई सुनी-अनसुनी घटनाओं को खूबसूरती से उकेरती है. निश्चित ही तारीफ के क ाबिल हैं निर्देशक नीरज पांडेय जिन्होंने थ्रिलर वाले अपने कम्फर्ट जोन से बाहर निकल धौनी के जिंदगी के अनसुलङो गिरह को खोलने की सफल कोशिश की. पर उससे कहीं ज्यादा तारीफ के हकदार हैं अभिनेता सुशांत सिंह राजपूत. धौनी के हाव-भाव, आंतरिक मनोदशा और क्रिकेटीय शैली का हूबहू उकेरने के लिए सुशांत ने जिस संजीदगी से मेहनत की है वो उन्हें उम्दा अभिनेताओं के कतार में निश्चित ही दो कदम आगे ले जाता है. और यकीन मानिए अभिनय की संजीदगी का आलम ये कि थियेटर से बाहर भी कुछ समय तक आप अपने जेहन सुशांत को ही धौनी के रूप में पाने वाले हैं.
धौनी की सफल छवि से हम सब परिचित हैं, पर ये कहानी हमें उस वक्त में खींच कर ले जाती है जहां धौनी को क्रिकेट से ज्यादा फूटबॉल से प्यार था. रांची में वाटर सप्लाई पंप ऑपरेटर का क ाम करने वाले पान सिंह धौनी का बस एक सपना था कि उनका बेटा किसी अच्छे सरकारी नौकरी में चला जाए. पर बेटे का मन पढ़ाई से ज्यादा खेल में लगता था. स्कूल में उसे फूटबॉल के गोलकीपर के रूप में खेलता देख स्पोर्टस टीचर उसे क्रिकेट में विकेट क ीपिंग की सलाह देते हैं. उसे क ीपिंग से ज्यादा बैटिंग पसंद थी, और कुछ ही दिनों में अपने खेल से वो सबको इस बात का अहसास करा देता है. पढ़ाई का एक साधारण सा लड़का स्कूल में क्रिकेट के बदौलत स्टार बन जाता है. उसका खेल देखने के लिए स्कूल में छुट्टी तक कर दी जाती है. उसके हर मैच के बाद दोस्तों की ओर से समोसे की पार्टी होती है. दोस्त संतोष का समोसे की क ीमत पर उसे हेलिकॉप्टर शॉट सिखाना हो, या पंजाबी दूकानदार छोटू भाई द्वारा उसे स्पांसर दिलवाना, दोस्तों का सपोर्ट उसके हौसले को हमेशा बूलंद रखता है. बीच में संघर्षो की परीक्षा उसे कई बार तोड़ती भी है. चाहे वो दिलीप ट्राफी में चयन के बाद भी ना पहुंच पाने का गम हो या दो साल तक खड़गपुर रेलवे स्टेशन पर टीसी के क ाम से उपजा फ्रस्ट्रेशन. पर आखिर में मेहनत और हौसले का ये सफर उसे एक दिन इंडियन क्रिकेट टीम के ड्रेसिंग रूम तक ले ही जाता है. पर धौनी के जिंदगी की खुलती परतें यहीं नहीं रूकती. हाफ टाइम के पहले कहानी जहां क्रिकेटीय संघर्ष की कहानी कहती है तो इंटरवल के बाद धौनी के लव लाइफ की पलें साझा करती है. क्रिकेटीय जीवन की तरह ही धौनी की लव लाइफ भी उतार-चढ़ाव से भरी रही. नीरज ने उन पलों को जज्बातों के आवरण में खूबसूरती से लपेटा है.
फिल्म का सबसे मजबूत पक्ष तकनीकी इस्तेमाल के साथ क्रिकेट मैच के ओरिजिनल फूटेज और शूट किये गये दृश्यों का मिश्रण है. कई दृश्यों में तो आप सुशांत को धौनी के ओरिजिनल फूटेज के साथ मिला हुआ पाते हैं. निश्चित ही किरदारों के उचित चयन के लिए भी याद रहेगी. चाहे वो पान सिंह बने अनुपम खेर हो , क ोच बने राजेश शर्मा या दोस्त संतोष की भुमिका में क्रांति प्रकाश. प्रेमिका और प}ी के किरदार में दिशा पटानी और कियारा अडवाणी भी सुशांत के किरदार को अपेक्षित मजबूती प्रदान करती हैं. आखिर में संघर्ष, जिद और जज्बे की ये कहानी थियेटर से बाहर आने के बाद भी क ाफी समय तक आपके साथ रहेगी. थियेटर के अंदर कहानी के साथ आपके अंदर उपजा जोश यकीनन आपको चुनौतियों के मुकाबले के लिए प्रेरित करेगा.
क्यो देखें- लिविंग लीजेंड बन चुके धौनी के अनछुए पहलुओं को जानने के साथ-साथ खुद में हौसले का संचार करना हो तो जरूर देखें.