Sunday, October 23, 2016

फिल्म समीक्षा

          संवेदनशील मुदद्े का औसत फिल्मांकन 31 अक्टूबर
यूं तो 84 के सिख विरोधी दंगों और उससे उपजे हालात से प्रभावित लोगों पर गाहे-बगाहे कई फिल्मकारों की नजरें गयी. कई ने उन्हें कहानी में पिरोकर फिल्में भी बनायी, पर उन फिल्मों को जिस संवेदनशीलता और गहन शोध की जरूरत रही उससे वो हमेशा अछुता रहा. धग जैसी राष्ट्रीय पुरस्कार विजेता मराठी फिल्म के निर्देशक शिवजी लोटन पाटिल की नयी फिल्म 31 अक्टूबर भी इसी उदासीनता की अगली कड़ी है. कम बजट और कमजोर पटकथा की वजह से फिल्म भी सिख विरोधी दंगे पीड़ितों की तरह ही न्याय की आस लगाये रह जाती है. सब जानते हैं कि तत्कालीन दंगे की वजह से लगभग 2200 लोग मारे गये थे. उस हालात से पीड़ित सैकड़ों लोग आज भी अपराधियों के सजा की उम्मीद में तरस रहे हैं. ऐसे विषयों के फि ल्मांकन की सबसे बड़ी मांग शोधकार्य के साथ किरदारों और घटनाओं का बेहतर संयोजन होता है. और इन्हीं मोचोर्ं पर शिवजी पिछड़ जाते हैं. केवल एक परिवार के जरीये कहानी कहने की उनकी कोशिश में फिल्म प्रभावहीन हो जाता है.
कहानी दिल्ली के एक सिख परिवार की है. परिवार में देवेन्द्र सिंह(वीर दास) }ी तेजिन्दर क ौर(सोहा अली खान) दो बेटे और एक छोटी बेटी के साथ रहता है. जिंदगी खुशहाल चल रही होती है तभी 31 अक्टूबर को तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या हो जाती है. हत्या में उनके सिख अंगरक्षकों का हाथ होने की वजह से सिख विरोधी दंगे भड़क जाते हैं. अंगरक्षकों के किये की सजा पूरी सिख क ौम पर कहर के रूप में गिरती है. जगह-जगह सिखों की हत्या कर दी जाती है. फिल्म इसी दंगे के बाद देवेन्द्र के परिवार के सभी सदस्यों के सामने उत्पन्न परिस्थितियों की कहानी बयां करती है. निर्देशक इन दंगों की वजह से उत्पन्न हालातों के साथ-साथ कहानी में मानवीय संवेदनाओं को भी शुमार करने की कोशिश करती है. कुछ हिंदू परिवारों की मदद से तेजिन्दर और उसकी फैमिली इस मुसीबत से बाहर निकलने की जद्दोजहद करती है. और इसकी परिणिती क्या होती है इसका मुजायरा बेशक आप थियेटर में करें तो बेहतर होगा.
कहानी क ागजी स्तर पर जितनी मजबूत दिखती है, फिल्म देखते वक्त उतनी सशक्तता और संवेदनशीलता की कमी आपको निश्चित ही खलेगी. ऐसे विस्तृत परिप्रेक्ष्य वाले मुद्दे को एक परिवार के कहानी में समेटने की निर्देशक की कोशिश ही उनकी सबसे बड़ी कमजोरी बन जाती है. किरदारों के लिहाज से वीर दास और सोहा अली खान ने इस कमजोरी को पाटने की भरसक कोशिश की, पर यहां भी पटकथा का ढीलापन उनके आड़े आ जाता है. कुल मिलाकर फिल्म उस वक्त के परिवेश, घटनाओं और दंगों से उत्पन्न परिस्थितयों के बारे में तो कई ऐसी जानकारियां दे जाती हैं जिनसे हम अबतक अछूते थे, पर संवेदनशीलता के स्तर पर हमें अंदर तक झकझोरने में नाकामयाब हो जाती है.
क्यों देखें- सोहा अली खान और वीरदास की अभिनय के प्रशंसक हैं तो फिल्म का रूख कर सकते हैं.
क्यों न देखें- कहानी के माध्यम से दंगे के दर्द और उससे पीड़ितों के हालात का विस्तृत विेशन चाहते हों तो.



No comments: