Saturday, October 15, 2016

फिल्म समीक्षा

                                                   प्रेम की अपूर्ण यात्रा है मिर्ज़्या

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मिर्ज़्या कहानी है सदियों से चली आ रही प्रेम के परिणिति की. सदियां बीत जाती है, युग बदल जाते हैं पर प्रेम की यात्रा और नियति एक सी रहती है. नदी के दो किनारों सी अतीत और वर्तमान के बीच से बहती गुलजार की मिर्ज़्या दो युगों की कहानी कहती है. जहां दोनों युगों में उसकी प्रेम धारा अनवरत बहती है पर आखिर में समाज रूपी सागर में समा जाती है. गुलजार के क ाव्यात्मक लहजे वाली प्रेमकथा को राकेश ओमप्रकाश मेहरा ने अपने शिल्प कला से ऊंचाई तो भरपूर दी पर दोनों इस भव्यता को जरूरी कहानी का मजबूत आधार नहीं दे पाये. मिर्ज़्या आकर्षित करती है लहरों की माफिक अठखेलियां करते गुलजार के उन्मुक्त संवादों से, उनकी परिकल्पना को मनोहारी दृश्यों में उकेरते राकेश मेहरा के शिल्प से, गीतों और लोकधूनों के साथ जुगलबंदी करते प्रेमपूर्ण भावों से. पर कमी नजर आती है तो इन सब मोतियों को एक साथ पिरोकर गूंथने वाले धागे की. जैसे राकेश ने रंग दे बसंती में दो कहानियों को बड़ी बारिकी से एक धागे में पिरोया था, वो बारीकी इस बार उनकी पकड़ से छूट जाती है. और यही वजह है कि तमाम र}ों के बावजूद फिल्म एक मुकम्मल आभुषण में तब्दील नहीं हो पाती और दर्शकों को अपने मोहपाश में बांध नहीं पाती.
कहानी शुरू होती है राजस्थान के बस्ती से. लोहारों की इस बस्ती में आदिल(हर्षवर्धन कपुर) है, जो बचपन से सूची (सैयामी खेर) से प्रेम करता है. प्रेम की पराकाष्ठा ये कि वो स्कूल के एक टीचर की हत्या केवल इसलिए कर देता है कि उसने सूची की क्लास में पिटाई कर दी थी. उसे रिमांड होम भेज दिया जाता है और सूची को ले उसके पिता शहर चले जाते हैं. बड़े होने पर सूची की शादी उस राजघराने में तय होती है जहां आदिल एक मुलाजिम का क ाम करता है. इसी कहानी के समानांतर एक और कहानी चलती है जहां पंजाब की वादियों में मिर्जा और साहिबा का प्रेम आंख मिचौली खेल रहा है. आदिल और सूची की प्रेम यात्र भी पंजाबी लोककथाओं में बसे मिर्जा और साहिबा सरीखी ही है. दो अलग-अलग क ालखंडों और पृष्ठभुमि पर संग-संग चलती दोनों कहानियों का अंत इस बात को तय करता है कि कालखंड चाहे कोई भी हो प्रेम की यात्र, उसकी नियति और परिवार व समाज का उसके प्रति नजरिया एक सा ही होता है.
भले कहानी दर्शकों को बांध पाने में असफल रही हो, पर दोहरे किरदार की मनोदशा और भावों को आत्मसात करने में दोनों मुख्य कलाकार पूर्णता का अहसास देते हैं. पहली फिल्म होने के बावजूद हर्षवर्धन व सैयामी की मेहनत और नेचुरलिटी ध्यान आकर्षित करती है. शंकर अहसान लॉय का पंजाबी मिठास लिए संगीत और गुलजार के गीत माहौल में एक अलग ही मिठास घोलते हैं. पर तमाम खूबसूरती के बावजूद फिल्म अलग-अलग हिस्सों में बंटकर रिझाती है, पर एक साथ गुंथने की कोशिश में टकराकर बिखर जाती है.
क्यों देखें- राकेश ओमप्रकाश मेहरा के शिल्प व गुलजार के क ाव्यलहरों में गोते लगाना चाहते हों तो.
क्यों न देखें- बांधकर रखने लायक कहानी की कमजोरी बार-बार आपके धैर्य की परीक्षा लेगी.

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