Sunday, November 27, 2016

फिल्म समीक्षा

   दर्द भरे रिश्तों की भूलभूलैया में खुशियों के दरवाजे दिखाती डियर जिंदगी

करीब चार साल पहले गौरी शिंदे इंगलिश-विंगलिश के साथ आयी थी. एक सिंपल सब्जेक्ट और बड़े इम्पैक्ट वाली कहानी के साथ उन्होंने खुद के लिए एक अलग राह बना ली थी. डियर जिंदगी उसी रास्ते पर बनायी गयी एक और माइलस्टोन है. रिश्तों की उलझी गांठ के बीच फंसी दम तोड़ती खुशियों को जिस खूबसूरती से गौरी ने गांठ खोलकर खूले आसमान की सैर करायी वो वाकई तारीफ के क ाबिल है. डियर जिंदगी के किरदार और उनकी उलझनें बनावटी नहीं हैं. गौरी हमारे और आपके अंदर की अकुलाहट से हमारा ही परिचय कराती हैं. साफगोई से बता जाती हैं कि हमारे अंतस के छटपटाहट की जड़ भी हमारे ही अंदर है. वो जड़ जिसने हमारी खुशियों को अमरलत्ते की भांति जकड़ रखा है. फिर क ायरा(आलिया भट्ट) के जरीये धीरे-धीरे क ोमलता से उन जकड़न से मुक्ति की राह भी दिखा देती है. आज हर शख्स के अंदर कहीं न कहीं एक कायरा है, जिसे तलाश है बंद दरवाजे के पार की खुशियों की. गौरी वही दरवाजा खोलकर दर्शकों की जिंदगी खूशगवार बना देती है.
कायरा एक इंडिपेंडेंट लड़की है. सिनेमेटोग्राफर के रूप में अपना एक मुकाम बनाना चाहती है. जिंदगी की राह में उसे कई लड़कों का साथ मिलता है. पर हर बार एक अनजाने डर में वो खूद ही उस रिश्ते से दूरी बना लेती है. उसकी उलझनें अपने परिवार को लेकर भी हैं. पारिवारिक रिश्तों की परछाईं से भी वो दूर भागती है. रिश्तों के इन कशमकश के जुझती कायरा अनिद्रा की शिकार हो जाती है. ऐसे में उसकी मुलाकात एक साइकियाट्रिस्ट जग उर्फ जहांगीर खान (शाहरूख खान) से होती है. चेकअप सेशन और बातचीत के दौरान जग को कायरा की उन उलझनों का पता चलता है जो उसकी बीती जिंदगी से जुडें़ थे. बचपन से रिश्तों में चोट खायी कायरा के जख्मों की परत खुलती है. जग क ोमलता से उन जख्मों पर रिश्तों की नयी गर्माहट के मरहम लगाता है. धीरे-धीरे कायरा सूकून महसूस करती है. बाहरी दुनिया को खुद के दर्द की वजह मानती कायरा खुद ही उस दर्द से छुटकारे की राह बना लेती है. फिल्म कायरा के जरीये उन पैरेंट्स को सवालों के दायरे में ला खड़ा करती है जिनकी कमियों का दंश उनकी संतानों को ङोलना पड़ता है.
फिल्म कई वजहों से बार-बार देखे जाने लायक है. बेहतरीन क ांसेप्ट के अलावा इसके संवाद भी रह-रहकर आपको कुरेदते हैं. साथ ही खुद के अंदर की गुत्थियां सुलझाने को झकझोरते भी हैं. और इन वजहों को और विश्वसनीय बनाती है आलिया भट्ट और शाहरूख खान की अदाकारी. आलिया फिल्म दर फिल्म आज के जेनरेशन की सबसे समर्थ अभिनेत्री बनती जा रही हैं. डियर जिंदगी आलिया के लिए हाइवे(इम्तियाज अली) का एक्सटेंशन मानी जा सकती है.
जहांगीर के किरदार में शाहरूख की सादगी भाती है. ऐसे किरदार उन्हें खुद की बनी बनायी छवि तोड़ने का मौका देते हैं. सहयोगी किरदार में अंगद बेदी, कुणाल कपूर और अली जफर भी जंचते हैं. फिल्म की एक और खास बात इसका संगीत है. अमित त्रिवेदी ने कहानी के हिसाब से जिंदगी के उतार-चढ़ाव व खुशियों को बखूबी धूनों में उतारा है.
क्यों देखें- रूटीन फिल्मों से हटकर जिंदगी को करीब से जानने की चाहत हो तो जरूर देखें.
क्यों न देखें- मसाला फिल्म की चाहत झुंझलाहट दे सकती है.



दिल की बात: डियर जिंदगी


दर्द के पलों में रोते, सिसकते और गमगीन भावों से हम बस यही चाहते हैं कि दर्द देने वाले को ये दिखा सकें कि उसने हमें कितना दर्द दिया. पर ये देखने के लिए दर्द देनेवाला रूकता कहां है. और तकलीफ हम बस खुद को ही देते जाते हैं. पढ़ने में भले ही यह क ोरी फिलॉसफी लगे पर अगर आप शाहरूख और आलिया को परदे पर यही फिलॉसफी जीते देखेंगे तो यकीन मानिये फिल्म के आखिर में खुद के दर्द को थियेटर की सीट पर ही छोड़ आयेंगे.
बीते कुछ महीनों में कई फिल्में आयी. कुछ अच्छी, कुछ बुरी. पर पिंक के महीनों बाद आज एक ऐसी फिल्म देखी जिसने अंदर खलबली मचा दी. गहरे तक झकझोर दिया. बरसों से मन के अंदर कैद खुशियों को आजादी की ओर खुलते दरवाजे की टोह दे दी. दिखा दी मन के झंझावातों, रिश्तों की गुत्थियों और डर बनकर खुशियों को अमरबेल की माफिक जकड़े बुरी यादों से निकलने की राह. राह जो कतई मुश्किल नहीं. फिल्म के कुछ सींस और संवाद यकीनन काफी वक्त तक पीछा नहीं छोड़ने वाले. दोस्ती, प्यार और ब्रेकअप जैसे सिंपल क ांसेप्ट के साथ शुरू हुआ फिल्म का सफर कब लड़कियों की समस्याओं, फैमिली और पैरेंटिंग इथिक्स जैसे गंभीर मुद्दों के गलियारे ले गया पता ही नहीं चला. पर फिल्म के खात्में के साथ ही उस दोराहे पर खड़ा था जहां एक ओर मन की व्याकुलता थी, अनसुलङो रिश्तों की कड़वाहट थी, दर्द था, डर था तो दूसरी ओर बाहें पसारे जिंदगी थी, अपनी गोद में समेटने को आतुर खुशियां थी और हाथ में था गौरी शिंदे की डियर जिंदगी का वो फलसफा और आत्म विश्वास जो बार-बार मन को खुशियों की दिशा दिखा रहा था. और यकीन था कि अब खुशियों की तलाश में दिशाभ्रमित शायद ना हो पाऊं. अब भी जेहन में रह-रहकर गुंज रहा है जहांगीर (शाहरूख) का वो संवाद कि जिंदगी में गिरने के डर से खुशियों का दामन मत छोड़ो , क्योंकि जबतक गिरकर गलतियां नहीं करोगे बेस्ट का चुनाव कैसे करोगे. कायरा(आलिया )और जहांगीर के बीच की बातचीत का एक दृश्य भी रह-रहकर कचोट रहा है जहां दो ब्वायफ्रेंड्स से ब्रेकअप के बाद कायरा चैन की नींद सोना चाहती है और नये रिश्ते में फिर से धोखे का डर उसे रातों को सोने नहीं देता. जहांगीर उसे समझाता है कि जब तुम कुर्सियां खरीदने जाती हो तो जरूरी नहीं कि दुकान की पहली कुर्सी ही तुम्हें पसंद आये. तुम उसका चुनाव करती हो जो तुम्हें कंफर्ट फ ील कराता है. तब सूकून का अहसास करती कायरा का ये पुछना कि हर लड़की कुर्सी क्यों नहीं खरीदती? उफ्फ! बात छोटी सी पर असर गहरे. पर हम क्यूं फिक्र करें उस दर्द का, क्यूंकि ऐसी चुनाव करने वाली लड़कियां तो हमारे लिए चालू टाइप होती हैं ना! या फिर लड़कों की मानसिकता पर तंज कसता कायरा का वो संवाद कि बेड तक ले जाते वक्त लड़कों को हर लड़की मेच्योर दिखती है पर क ामयाबी की ओर लड़कों से कदम मिलाती उसी लड़की में उन्हें इमेच्योरिटी के लक्षण दिखने लगते हैं. क्यूं हैं हम ऐसे? या फिर क्यूं ऐसे हैं वो पैरेंट्स जो जन्म के बाद बच्चों को पालते तो अपनी मर्जी अपने तरीके से हैं, पर बच्चों की हर असफलता का ठीकरा फ ोड़ते उनके ही सिर हैं. पर यकीन मानिये, डियर जिंदगी की खूबसूरती इसमें नहीं कि वो तमाम रिश्तों की क मियां निकालती है, फिल्म खूबसूरत तब बन जाती है जब अलग-अलग रिश्तों में क मियों के बावजूद आपके खुशियों की चाबी खुद के अंदर छुपी दिखाती है.
और हां, आलिया की बात न क रूं तो फिल्म के साथ ज्यादती होगी. क्यूंकि थियेटर में गुजारे हर पल के साथ मन के किसी क ोने में अभिनय को ले आलिया के लिए विश्वसनीयता बढ़ती जा रही थी. उनके हर एक्सप्रेशन के साथ हिंदी सिनेमा के उज्जव भविष्य का विश्वास पुख्ता होता जा रहा था. आखिर में थैंक्स गौरी शिंदे, समूंदर की लहरों से कबड्डी खेलते शाहरूख के जरीये जिंदगी के नये फलसफे समझाने के लिए, मानवीय संवेदनाओं के ताने -बाने को निहायत खूबसूरती से बूनकर हमें उसके आगोश में लपेटने के लिए. खुशियों की तलाश में मृग मरीचिका सरीखे भटकते मन को अंदर की कस्तूरी से रूबरू कराने के लिए. और यकीनन फिल्म की दिल चुरा ले जाती खूबसूरत अंत के लिए.


फिल्म समीक्षा

                    एक्शन के शौकीनों को भाएगी फ ोर्स 2

पहली फ ोर्स से तुलना छोड़ दें तो फ ोर्स 2 का साथ आपको निश्चित ही भायेगा. पहली फिल्म में मुंबइ पुलिस एसीपी यशवर्धन और उसके काम के तौर-तरीकों से वाकिफ हो चुके दर्शकों के लिए ये जिज्ञासा बनी थी कि नयी फिल्म में नया क्या होगा. और यकीनन फिल्म उन दर्शकों की जिज्ञासा को खूबसूरती से शांत करने में सफल होती है. निर्देशक अभिनय देव ने फ ोर्स 2 के जरीये देश के लिए काम कर रहे उन रॉ एंजेंट्स की कहानी कही है जो पूरी उम्र तो देश सेवा में लगा देते हैं, पर पकड़े जाने पर वही देश उनसे मुंह मोड़ लेता है. उसके इंडियन होने पर ही सवालिया निशान लगा देता है और कभी-कभी तो उसे गद्दार तक बना दिया जाता है.
फ ोर्स 2 की कहानी पिछली फिल्म के खात्में के साथ ही शुरू होती है. माया(जेनेलिया देशमुख) की मौत के बाद एoीपी यशवर्धन उसकी यादों और अपने काम के सहारे जिंदगी गुजार रहा होता है. तभी खबर आती है कि चीन में काम कर रहे तीन रॉ के एंजेंट्स की हत्या हो जाती है. उनकी मौत पर भारत सरकार उन्हें रॉ का एजेंट मानने से इनकार कर देती है. मरने वालों में एक यश का दोस्त हरीश भी होता है जो मरने से पहले वो यश के लिए कुछ क्लू छोड़कर जाता है. उसके दिये सुराग से यश को पता चलता है कि ये हत्याएं करवाने वाला भी एक रॉ एजेंट है जो बुडापेस्ट अम्बेसी में काम करता है. यश के पिछले रिकार्ड को देखते हुए उसे इस केस की तहकीकात करने बुडापेस्ट भेजा जाता है जहां उसके साथ रॉ की एजेंट केके(सोनाक्षी सिन्हा) भी जाती है. वहां पहुंचकर दोनों साजिश के मुख्य आरोपी शिव शर्मा (ताहिर राज भसीन) तक भी पहुंच जाते हैं. पर इसके साथ ही एक के बाद एक रॉ एजेंट्स की हत्या शुरू हो जाती है. केके इस केस को रॉ के तरीके से हैंडल करती है जबकि यश की सोच मुंबई पुलिस की तरह चलती है. केस की तह तक जाते यश के हाथ एक दिन ऐसा सुराग लगता है जो इस केस की पूरी दिशा ही बदल देता है.
बीजिंग, संघाई और बुडापेस्ट के नयनाभिराम लोके शंस के साथ चलती कहानी जॉन की चुस्ती-फुर्ती की वजह से भी मोहती है. एक्शन और चेजिंग सींस में जॉन अब विश्वसनीय हो चले है, कमी रह जाती है तो बस उनके फेसियल एक्सप्रेशंस की. शायद यही वजह रही कि निर्देशक ने जॉन के क्लोज शार्ट्स से भरसक बचने का प्रयास किया है. अकीरा के बाद एक बार फिर सोनाक्षी की मेहनत सराहनीय है. ताहिर के अलावे छोटी भुमिकाओं में नरेन्द्र झा और आदिल हुसैन भी फबते हैं. गानों में क ाटे नहीं कटती का यंगर वजर्न लुभाता तो है पर बीजिंग के क्लब में हिंदी गाने बजना समझ से परे है.
क्यों देखें- अगर आप जॉन के तेजतर्रार एक्शन और चपलता के दीवाने हैं तो बेशक फिल्म आपके लिए है.
क्यों न देखें- पिछली फिल्म से तुलना थोड़ी निराश करेगी.



फिल्म समीक्षा

                   रिश्तों की गिरह खोलता है तुम बिन 2

बर्फबारी से भरे स्कॉटलैंड के मनमोहक दृश्य, कहानी के ट्विस्ट्स और पंद्रह साल पहले आई तुम बिन की खुमारी. तुम बिन 2 देखे जाने के ये तीन मुख्य वजहें हो सकती है. बेशक फिल्म अभिनय, गीत-संगीत और कहानी के मोर्चे पर पिछली फिल्म से उन्नीस ही बैठती है पर अनुभव सिन्हा की तुम बिन 2 को केवल तुलनात्मक वजहों से सिरे से खारिज कर देना बेमानी होगा.
कहानी शुरू होती है स्कॉटलैंड के बर्फीले इलाके से, जहां वेकेशन पर आयी तरण (नेहा शर्मा) अपने मंगेतर अमर (आशिम गुलाटी) के साथ फ्यूचर के सपने बूनती है. बर्फीले पहाड़ों के शौकीन अमर अचानक एक दिन स्कीइंग के दौरान दुघर्टना का शिकार हो जाता है. काफी खोज बीन के बाद पुलिस उसे मरा घोषित कर देती है. इस घटना से टूट चुकी तरण धीरे-धीरे जिंदगी में आगे तो बढ़ती है पर अमर को भूल नहीं पाती. तभी उसकी जिंदगी में आना होता है शेखर(आदित्य शील) का, जो अमर के पिता(कंवलजीत) के दोस्त का लड़का है. शेखर तरण की लाइफ में फिर से पुरानी खुशियां लौटाने की कोशिश करता है. इस कोशिश में दोनों के बीच प्यार पनपता है. पर कहानी उस वक्त मोड़ लेती है जब अमर आठ महीने बाद वापस लौट आता है. उसे भूलने की क ोशिश कर रही तरण के लिए एक अजीब स्थिति पैदा होती है. वो अमर का ख्याल दिल से निकाल नहीं पाती है पर साथ जीने के लिए शेखर का चुनाव करती है. कहानी एक अजीब मोड़ पर पहुंचती है तभी..रुकिये, इस आखिरी ट्विस्ट के लिए आप थियेटर का रूख करें तो ज्यादा बेहतर होगा.
तुम बिन 2 की सबसे बड़ी कमजोरी एक्टर्स का चुनाव है. नेहा की खूबसूरती लुभाती है पर इमोशनल दृश्यों में वो दिल तक नहीं उतर पाती. आदित्य और आशिम के किरदार भी अधगढ़े से लगते हैं. पर तारीफ करनी होगी कंवलजीत की जिन्होंने अपने इमोशन से फिल्म के काफी हिस्से को अपने क ांधे का सहारा दे दिया. गीत संगीत से भी काफी हद तक निराशा होती है. रिपीट गीत कोई फ रियाद को छोड़ दें तो किसी गानें में पूराना फ्लेवर नहीं मिलता जो आपकी जुबां पर चढ़ सके. बावजूद इन क मियों के आकर्षक फिल्मांकन और मनोरंजन के लिए एक बार फिल्म का रूख करना बुरा नहीं रहेगा.


Friday, November 18, 2016

बातचीत: पवन मल्होत्रा


        बिहार की मिट्टी में प्रतिभा भरपूर, जरूरत बस उन्हें सींचने की





नुक्कड़ व सर्कस जैसे दर्जनों टीवी सीरियल्स और सलीम लंगड़े पे मत रो, बाग बहादुर व भाग मिल्खा भाग जैसी फिल्मों के संजीदा अभिनय ही पवन मल्होत्रा की छवि बयां कर देते हंै. अपने अलग-अलग किरदारों से दर्शकों के दिल मे खास पहचान बनाने वाले पवन आज पटना की जमीन पर थे. क्षेत्रिय फिल्म महोत्सव में शिरकर करने आये पवन ने प्रभात खबर से खास बातचीत में सिनेमा से राजनीति तक हर मुद्दे पर बेबाकी से अपनी राय रखी.
हमेशा नये किरदार की तलाश ने लोगों का चहेता बनाया-
खुद के अबतक के सफर की बात चलने पर वो बरबस उस दौर की याद में चले जाते हैं जब उन्हें पहली फिल्म सलीम लंगड़े पर मत रो ऑफर हुई थी. बताया कि 79 में जब पहले फिल्म की शुटिंग चल ही रही थी कि दूसरी फिल्म बाग बहादुर मिल गयी. और ऊपर वाले को करम देखिये कि पहली दोनों फिल्मों को नेशनल अवार्ड हासिल हुआ. तबसे सफर जारी है. दर्शकों की पसंद भी मैं इसलिये बन पाया कि हरबार कुछ नया करने की कोशिश की. भले इसके इंतजार में कई ब्रेक लेने पड़े पर चुना वही जो पहले से हटकर था. क्योंकि कोई भी एक्टर कंपलीट तभी होता है जब उसके गुलदस्ते (काम) में अलग-अलग वेरायटी के फूल हों.
ऑफबीट और कमर्शियल की कभी फिक्र नहीं की-
ऑफबीट और कमर्शियल के बीच के गैप की बात चलते ही पवन बेबाकी से कहते हैं कि फिल्मों के जॉनर की कभी परवाह ही नहीं की. कंटेंट हमेशा से मेरी प्रायोरिटी रही. चाहे वो किसी जॉनर की फिल्म हो. आज हर महीने दर्जनों कमर्शियल फिल्में आती हैं जिनका नाम तक आपको याद नहीं रहता. पर आपको मेरी ब्लैक फ्राइडे और भिंडी बाजार याद रह जाती है तो केवल कंटेंट की वजह से. फिल्मों से पैसा आना जरूरी है, पर केवल पैसों के लिए फिल्में कर लूं ये मेरा दिल गवारा नहीं करता. स्टार बनने से ज्यादा अहमियत मेरे लिए किरदार बनकर किसी के जेहन में याद रह जाना है.
भोजपूरी सिनेमा इंडस्ट्री में बस उचित अवसरों का अभाव-
भोजपूरी सिनेमा के दुर्दशा की बात छिड़ते ही कहते हैं, भोजपूरी इंडस्ट्री को आप छोटा मत समङिाये. क्षेत्रियता के आधार पर देखें तो यह बहुत बड़ी इंडस्ट्री है. पर कहते हैं न, बिकता वही है जो लोग देखना चाहते हैं. सबसे पहले हमें यहां के लोगों का टेस्ट बदलना होगा. उन्हें आदत लगानी होगी यहां के कल्चर और प्रगतिशील सिनेमा के टेस्ट की. कुछ क मियां दर्शकों की है तो कुछ सिस्टम की. अच्छी कहानियों से आपकी जमीन भरी पड़ी है, पर बनाने वाले बने बनाये र्ढे को तोड़ना नहीं चाहते. ये हमारी बदकिस्मती है कि इतने पोटेंशियल होने के बावजूद हम इसका लाभ नहीं उठा पा रहे.
बिहार जो है उससे कहीं ज्यादा का हकदार-
बिहार का ना होने के बावजूद यहां की बात चलने पर पवन के चेहरे पर कुछ दर्द की लकीरें उभर आती है. अंदर का दर्द जुबां पर आ जाता है कि ये धरती जो अभी है इससे बहुत ज्यादा की हकदार है. अगर आप मुझसे ये सुनना चाहते हैं कि मै कहूं पटना या बिहार बहुत कमाल की जगह है तो मै बाकियों की तरह ये बिलकुल नहीं कहुंगा. आप खुद यहां का इतिहास देखिये. यहां की उर्वरता और शैक्षणिक इतिहास विश्व प्रसिद्ध है. पर डेमोक्रेसी में सबसे बड़ी विडंबना है कि हम केवल ब्लेम करना जानते हैं. राजनीतिक महत्वकांक्षाएं इसके विकास की सबसे बड़ी रुकावट हैं. वरना ऐसी ऊपजाऊ धरती को आज देश ही नहीं दुनिया के शिखर पर होना चाहिये था.
नोटबंदी अगर देशहित में है तो स्वीकार है-
नोटबंदी का मुद्दा उठते ही पवन कहते है कि मुङो हर वो बात स्वीकार्य है जो देशहित में हो. राजनीति की टेक्नीकल  बातें मै बहुत गहराई से नहीं जानता पर अगर इससे क ाले धन की जमाखोरी खत्म होती है, आतंकियों की फंडिंग रूकती है तो तहेदिल से इस फैसले का स्वागत करता हूं. बेशक लोगों को शुरूआत में थोड़ी तकलीफ हो रही है, पर इस देश के लोगों में तकलीफ सहने का काफी माद्दा है.


Sunday, November 13, 2016

फिल्म समीक्षा

              खौफ और प्यार की कहानी डोंगरी का राजा

भले रामगोपाल वर्मा आजकल लाइमलाइट से बाहर हों पर एक वक्त उन्होंने सिनेमा इंडस्ट्री को ऐसी राह दिखा दी थी जिस ओर आजतक गाहे-बगाहे निर्माता-निर्देशक खींचे चले जाते हैं. अंडरवर्ल्ड और उसके आसपास की दुनिया. ये अलग बात है कि कम ही निर्देशक उनकी तरह परदे पर इस दुनिया के साथ न्याय कर पाये. हादी अली अबरार ने डोंगरी की गलियों में पैर पसारे अंडरवर्ल्ड और उसमें पनपते एक प्रेम कहानी को केंद्र में रखकर एक बार फिर वही कोशिश की है. डोंगरी मुंबई की एक बस्ती है जहां अस्सी-नब्बे के दशक में हाजी मस्तान व करीम लाला जैसे कई माफिया सरगनाओं का राज चलता था. डोंगरी का राजा उसी अंडरवर्ल्ड के बैकड्रॉप पर बनी एक प्रेमकथा है.
मंसूर अली (रोनित राय) डोंगरी का मशहुर डॉन है. राजा (गशमीर महाजन)उसका शार्प शुटर है जिसे मंसूर और उसकी प}(अश्विनी कलसेकर) अपने बेटे की तरह मानते है. प्रतिद्वंद्वी गैंग के साथ-साथ पुलिस अफसर सिद्धांत(अस्मित पटेल) भी राजा को खत्म करना चाहता है. पर तमाम क ोशिशों के बाद भी उसे मंसूर और राजा के खिलाफ क ोई सबूत नहीं मिलता. एक दिन अचानक राजा की नजर श्रुति (रिचा सिन्हा) पर पड़ती है. और वो पहली नजर में ही उसे दिल दे बैठता है. इस बीच सिद्धांत को एक सुराग हाथ लगता है. वो राजा के ही एक विश्वस्थ की मदद से उसके खिलाफ जाल बुनता है. अब राजा के सामने एक ओर बदला और बचाव है तो दूसरी ओर उसका प्यार.
ऐसी परिस्थितियों के बीच एक खूबसूरत प्रेमकथा की बूनावट भी जोखिम भरा क ाम रहता है, और अबरार इसी मोर्चे पर ढीले पड़ जाते हैं. दर्शक राम गोपाल वर्मा वाली दुनिया की तलाश में बेचैन रह जाते हैं और फिल्म किसी साउथ इंडियन फिल्म की तरह आगे निकल जाती है.
रोनित राय पिछले कुछ सालों में इस तरह की भुमिका के आदी हो चले हैं. बॉस और गुड्डू रंगीला वाला सफर यहां भी जारी रहता है. पहली फिल्म होने के बावजूद गशमीर और रिचा की मेहनत झलकती है. पर वाहवाही लूट ले जाती हैं अश्विनी कलसेकर. भावनात्मक दृश्यों में अश्विनी प्रभावित करती हैं. कुल मिलाकर डोंगरी का राजा अंडरवर्ल्ड बैकड्रॉप पर बनी एक औसत फिल्म बनकर रह जाती है जो दर्शकों पर शायद ही प्रभाव छोड़ पाये.



फिल्म समीक्षा

        पिछली फिल्म की क ामयाबी भूनाने की कोशिश है रॉक ऑन 2

सुजात सौदागर के रॉक ऑन 2 की कहानी वहीं से शुरू होती है जहां 2008 में अभिषेक कपुर की रॉक ऑन खत्म हुई थी. निर्देशक के बदलने से फिल्म का मिजाज भी बदल गया. जाहिर है कहानी गढ़ते वक्त रॉक ऑन की क ामयाबी का अतिरिक्त दबाव भी फिल्म की टीम पर रहा होगा. इंडिविजुअली देखें तो रॉक ऑन 2 आकर्षित करती है, पर पिछली फिल्म से आगे कुछ नया पाने की उम्मीद कर रहे दर्शकों को निराशा हाथ लगेगी. एक्टर्स के सहज अभिनय, संगीत के नये प्रयोग और मेघालय के नयनाभिराम लोकेशंस के बावजूद काफी कुछ मिसिंग सा लगता है. फिल्म की कहानी को सुजात थोड़ी और कसावट व बुनावट के साथ परोसते तो प्रभाव उम्दा हो सकता था.
रॉब(ल्यूक केनी) की मौत के बाद बैंड मैजिक बिखर सा जाता है. जॉय(अजरून रामपाल) जहां अपनी पब चलाने के साथ एक म्यूजिकल रियल्टी शो होस्ट करने लगता है वहीं आदि (फरहान अख्तर) इन सब से दूर मेघालय के एक छोटे से गांव में अपनी नयी दुनिया बसा लेता है. कुछ दर्द भरी यादों से पीछा छुड़ाने के लिए वो किसानी के साथ-साथ स्कूल में बच्चों को पढ़ाकर अपना वक्त गुजारता है. बस केडी (पूरब कोहली) ही एक ऐसा शख्स है जो बैंड से दूर होने के बावजूद संगीत से दूर नहीं हो पाता. वो बार-बार दोनों को बैंड फिर से शुरू करने के लिए उकसाता है. इसी बीच उनके पास दो नये लोग अपनी म्यूजिक लेकर आते हैं. उदय (शशांक अरोड़ा)और जिया (श्रद्धा कपुर). उदय सरोद में निपूण है तो मशहुर संगीतकार विभुति(कुमुद मिश्र) की बेटी जिया को जिंगल बनाने में महारथ है. दोनों जॉय के पास लाइव परफॉर्म का एक मौका मांगने आते हैं. जॉय उन्हें एक मौका देता है पर पब में परफार्म के वक्त जिया शो छोड़कर भाग जाती है. वजह जानने की कोशिश में सबका सामना एक ऐसे कड़वे सच से होता है जिससे आदि वर्षो से पीछा छुड़ाने की कोशिश कर रहा था.
रॉक ऑन 2 अभिनय के लिहाज से भी औसत से आगे नहीं जा पाती. अजरून रामपाल और पूरब कोहली ने किरदार की जरूरत के हिसाब से सहज लगे हैं. सिंगिंग और अभिनय के बीच सामंजस्य साधने की कोशिश में श्रद्धा दोनों मोचरे पर पटरी से उतर जाती हैं. बेहतर होता वो अभिनय में ही खुद को साधने की कोशिश करती. हां, फरहान जरूर किरदार में समाये नजर आते हैं. एकाध गाने को छोड़ दें तो गीत-संगीत भी साधारण स्तर के बन पड़ें हैं.
क्यों देखें- फरहान और श्रद्धा के जबरा फैन हों तो फिल्म का रूख कर सकते हैं.
क्यों न देखें- रॉक ऑन की तरह उम्दा कहानी की चाहत हो तो.


Wednesday, November 9, 2016

बातचीत: क्रांति प्रकाश झा

                         कहीं रहें, माटी से जुड़े रहें

प्रतिभाओं की धरती बिहार से यूं तो कई सितारे उभरे, पर क ामयाबी के बाद भी जमीन से जुड़े रहने की ललक कुछेक में ही दिखी. एमएस धौनी जैसी फिल्म में धौनी के करीबी दोस्त संतोष का किरदार निभाकर चर्चा में आये क्रांति प्रकाश झा की दास्तां भी कुछ ऐसी ही है. हाल में सोशल मीडिया पर वायरल हो रहे स्वर क ोकिला शारदा सिन्हा के छठ अलबम में मुख्य किरदार निभाकर क्रांति ने उसी जुड़ाव का परिचय दिया. चंद पलों के मुलाकात में क्रांति के अंदर बिहारी संस्कृति को जिंदा रखने की जीवटता ने बता दिया कि क ामयाबी का पहला मंत्र जड़ों से जुड़ाव ही है.
बेगुसराय के रूदौली गांव के रहने वाले क्रांति प्रकाश झा की पढ़ाई पटना के स्कूल से हुई. मन में डॉक्टर बनने का सपना पाले क्रांति सेंट एमजी हाईस्कूल के बाद आगे की पढ़ाई के लिए दिल्ली चले गये. हिंदू क ॉलेज से हिस्ट्री आनर्स किया. आम बिहारियों की तरह एक बारगी मन में आईपीएस बनने का ख्याल भी आया. पर नियति को तो जैसे कुछ और ही मंजूर था. मॉडलिंग के रास्ते शुरू हुआ सफर उन्हें हिंदी सिनेमा के रूपहले परदे तक ले गया. फिर राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित फिल्म मिथिला मखान, देसवा व एमएस धौनी जैसी फिल्मों ने नयी पहचान दी.
छठ पूजा में घाट छेंकना आज भी याद आता है-
छठ की बात चलने पर क्रांति अचानक बचपन की यादों में खो जाते हैं. बताते हैं कि घाट छेंकने के लिए जल्दी जाने की होड़ रहती थी. रंग-बिरंगे कपड़े व पटाखे देख आज भी मन मचल उठता है. मजा करने के लिए कभी-कभी तो हमलोग जान बुझकर रॉकेट ऊपर छोड़ने के बजाय आस-पास के खेत-खलिहानों में छोड़ देते थे. पहले छठ में पूरे परिवार और रिश्तेदारों के जमावड़े काफी होते थे. अब तो यूट्यूब और सोशल साइट्स पर ही घाटों को देखकर मन को समझाना पड़ता है. पर इस बार आठ-दस सालों बाद पटना का छठ करीब से देख पाऊंगा.
संतोष लाल का किरदार रहा चुनौती भरा-
एमएसधौनी में संतोष का किरदार निभाने की सबसे बड़ी चुनौती ये थी कि संतोष अब इस दुनिया में नहीं हैं. उनके किरदार को आत्मसात करने के लिए काफी एकाग्रता की जरूरत पड़ी. नीरज सर (नीरज पांडे) और धौनी से मिले रिफरेंस ने क ाम थोड़ा आसान किया. अंदर चुनौती ये थी कि किरदार भले ही छोटा है पर इम्पैक्ट कैसे बड़ा लाया जाए . पर शुक्रिया दर्शकों का जिन्होंने मेहनत को सराहते हुए मेरे किरदार को एक्सेप्ट किया.
आमिर खान के बांदनी जैकेट ने हीरोइज्म की ललक जगायी-
आज भी याद है जब फिल्म हम हैं राही प्यार के फिल्म देखने के बाद मै अपने भईया के साथ पटना कि सड़कों पर बांदनी जैकेट की खोज में भटक रहा था. घूंघट की आड़ गाने में आमिर के पहने इस जैकेट ने जैसे मुझमें हीरोइज्म का
खुमार भर दिया था. जैसे-तैसे जैकेट का जुगाड़ कर उसे पहन घर गया इस खुमारी में कि घर में सब खूश होंगे. पर घर पहुंचते मां का जो जोरदार तमाचा पड़ा कि हीरो बनने चले हो, पढ़ाई करो. पर मन के किसी क ोने में अभिनय के क ीड़े ने घर तो बना ही लिया था.
राजेश कुमार के बुलावे पर मुंबई गये-
यूपीएससी का एग्जाम कंपीट नहीं कर पाने की वजह से क्रांति प्रकाश थोड़ा अपसेट रहने लगे थे. ऐसे में टेलीविजन एक्टर राजेश कुमार ने कहा कि एग्जाम तो अब अगले साल होंगे, ऐसे में एक महीने के लिए मुंबई आ जाओ, मन बहल जाएगा. क्रांति के अनुसार उनके बुलावे पर मुंबई गया तो वहां के ग्लैमर ने मुङो एक नयी दिशा दे दी. फिर तो अभिनय का ही होकर रह गया. मेरे जीवन में मेरे बड़े भाई के अलावा राजेश कुमार का बड़ा योगदान है.
जब 500 रुपये मिला पहला मेहनताना-
मॉडलिंग से शुरूआत करने वाले क्रांति बताते हैं कि मुंबई में पहला क ाम एक सजिर्कल इंस्ट्रमेंट के ऐड का मिला. मन में काफी खूशी थी कि पहली बार टीवी पर दिखूंगा. पर पूरे ऐड के दौरान मुंह पर डॉक्टर्स की तरह मास्क ही बंधा रहा. पल भर में सारी हीरोगीरी क ाफूर हो गयी और मै हकीकत की धरातल पर आ खड़ा हुआ. पर उस ऐड के मेहनताने में मिले 500 रूपये की खूशी आज भी भूलाये नहीं भूलती.
भोजपूरी सिनेमा का हश्र दूखी करता है-
क्रांति भोजपूरी सिनेमा की बात चलने पर थोड़ा विचलित हो जाते हैं. कहते हैं आज के भोजपूरी सिनेमा ने ही बाहर में बिहारियों की निगेटिव छवि बना दी है. कितना अच्छा होता हम चलताऊ चीजें दिखाने के बजाय अपनी फिल्मों के जरीये बिहार की संस्कृति व भाषा को आगे बढ़ाने का क ाम करते. पर यहां के लोगों में अपनी सभ्यता-संस्कृति के प्रति उदासीनता ही इसकी राह में सबसे बड़ा रोड़ा है. कुछ उदासीनता सरकारी स्तर पर भी है. हरेक को अपनी जिम्मेदारी समझनी होगी तब जाके चीजें बदलेंगी. और मुङो उम्मीद है कि भले थोड़ा वक्त लगे, पर चीजें बदलेंगी.
मुंबई का सपना पाले यूथ्स के लिए सुझाव-
सभी बिहारियों को छठ की शुभकामनाएं देते हुए व छठ अलबम की सफलता से अभिभूत क्रांति सिनेमा की दुनिया में जाने का ख्वाब रखने वालों के लिए सबसे पहला सबक यही देते हैं कि कुछ भी करो पर अपनी जड़ों को कभी मत छोड़ो. माता-पिता के साथ अपनी माटी का सम्मान और अपनी मातृभाषा के लिए कृतज्ञता ही सफलता की राह आसान करेगी.