Friday, November 18, 2016

बातचीत: पवन मल्होत्रा


        बिहार की मिट्टी में प्रतिभा भरपूर, जरूरत बस उन्हें सींचने की





नुक्कड़ व सर्कस जैसे दर्जनों टीवी सीरियल्स और सलीम लंगड़े पे मत रो, बाग बहादुर व भाग मिल्खा भाग जैसी फिल्मों के संजीदा अभिनय ही पवन मल्होत्रा की छवि बयां कर देते हंै. अपने अलग-अलग किरदारों से दर्शकों के दिल मे खास पहचान बनाने वाले पवन आज पटना की जमीन पर थे. क्षेत्रिय फिल्म महोत्सव में शिरकर करने आये पवन ने प्रभात खबर से खास बातचीत में सिनेमा से राजनीति तक हर मुद्दे पर बेबाकी से अपनी राय रखी.
हमेशा नये किरदार की तलाश ने लोगों का चहेता बनाया-
खुद के अबतक के सफर की बात चलने पर वो बरबस उस दौर की याद में चले जाते हैं जब उन्हें पहली फिल्म सलीम लंगड़े पर मत रो ऑफर हुई थी. बताया कि 79 में जब पहले फिल्म की शुटिंग चल ही रही थी कि दूसरी फिल्म बाग बहादुर मिल गयी. और ऊपर वाले को करम देखिये कि पहली दोनों फिल्मों को नेशनल अवार्ड हासिल हुआ. तबसे सफर जारी है. दर्शकों की पसंद भी मैं इसलिये बन पाया कि हरबार कुछ नया करने की कोशिश की. भले इसके इंतजार में कई ब्रेक लेने पड़े पर चुना वही जो पहले से हटकर था. क्योंकि कोई भी एक्टर कंपलीट तभी होता है जब उसके गुलदस्ते (काम) में अलग-अलग वेरायटी के फूल हों.
ऑफबीट और कमर्शियल की कभी फिक्र नहीं की-
ऑफबीट और कमर्शियल के बीच के गैप की बात चलते ही पवन बेबाकी से कहते हैं कि फिल्मों के जॉनर की कभी परवाह ही नहीं की. कंटेंट हमेशा से मेरी प्रायोरिटी रही. चाहे वो किसी जॉनर की फिल्म हो. आज हर महीने दर्जनों कमर्शियल फिल्में आती हैं जिनका नाम तक आपको याद नहीं रहता. पर आपको मेरी ब्लैक फ्राइडे और भिंडी बाजार याद रह जाती है तो केवल कंटेंट की वजह से. फिल्मों से पैसा आना जरूरी है, पर केवल पैसों के लिए फिल्में कर लूं ये मेरा दिल गवारा नहीं करता. स्टार बनने से ज्यादा अहमियत मेरे लिए किरदार बनकर किसी के जेहन में याद रह जाना है.
भोजपूरी सिनेमा इंडस्ट्री में बस उचित अवसरों का अभाव-
भोजपूरी सिनेमा के दुर्दशा की बात छिड़ते ही कहते हैं, भोजपूरी इंडस्ट्री को आप छोटा मत समङिाये. क्षेत्रियता के आधार पर देखें तो यह बहुत बड़ी इंडस्ट्री है. पर कहते हैं न, बिकता वही है जो लोग देखना चाहते हैं. सबसे पहले हमें यहां के लोगों का टेस्ट बदलना होगा. उन्हें आदत लगानी होगी यहां के कल्चर और प्रगतिशील सिनेमा के टेस्ट की. कुछ क मियां दर्शकों की है तो कुछ सिस्टम की. अच्छी कहानियों से आपकी जमीन भरी पड़ी है, पर बनाने वाले बने बनाये र्ढे को तोड़ना नहीं चाहते. ये हमारी बदकिस्मती है कि इतने पोटेंशियल होने के बावजूद हम इसका लाभ नहीं उठा पा रहे.
बिहार जो है उससे कहीं ज्यादा का हकदार-
बिहार का ना होने के बावजूद यहां की बात चलने पर पवन के चेहरे पर कुछ दर्द की लकीरें उभर आती है. अंदर का दर्द जुबां पर आ जाता है कि ये धरती जो अभी है इससे बहुत ज्यादा की हकदार है. अगर आप मुझसे ये सुनना चाहते हैं कि मै कहूं पटना या बिहार बहुत कमाल की जगह है तो मै बाकियों की तरह ये बिलकुल नहीं कहुंगा. आप खुद यहां का इतिहास देखिये. यहां की उर्वरता और शैक्षणिक इतिहास विश्व प्रसिद्ध है. पर डेमोक्रेसी में सबसे बड़ी विडंबना है कि हम केवल ब्लेम करना जानते हैं. राजनीतिक महत्वकांक्षाएं इसके विकास की सबसे बड़ी रुकावट हैं. वरना ऐसी ऊपजाऊ धरती को आज देश ही नहीं दुनिया के शिखर पर होना चाहिये था.
नोटबंदी अगर देशहित में है तो स्वीकार है-
नोटबंदी का मुद्दा उठते ही पवन कहते है कि मुङो हर वो बात स्वीकार्य है जो देशहित में हो. राजनीति की टेक्नीकल  बातें मै बहुत गहराई से नहीं जानता पर अगर इससे क ाले धन की जमाखोरी खत्म होती है, आतंकियों की फंडिंग रूकती है तो तहेदिल से इस फैसले का स्वागत करता हूं. बेशक लोगों को शुरूआत में थोड़ी तकलीफ हो रही है, पर इस देश के लोगों में तकलीफ सहने का काफी माद्दा है.


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