Saturday, September 24, 2016

फिल्म समीक्षा

      झिझक की बेड़ियां तोड़ खुशियों की तलाश करती पार्च्ड


पिछले हफ्ते पिंक देखी थी, इस हफ्ते पार्च्ड. दोनों में ही औरतों की जर्नी. एक में दुनिया की भीड़ में अपनी जगह तय करती औरतों की जर्नी, तो दूसरे में मुरझाई-कुम्हलाई अपनी जिंदगी में खुद के अंदर जज्ब अपनी खुशियां तलाशती औरतों की जर्नी. खूशी की बात ये है कि हिंदी सिनेमा अब ऐसी अपारंपरिक कहानियां गढ़ने की हिम्मत दिखाने लगा है. है तो ये भले ही तीन औरतों की कहानी , पर गौर से देखें तो आज हर ओर भीड़ में कई ऐसी महिलाएं दिखेंगी जो पुरूषों की जिंदगी सींचते-सींचते कब खुद ठूंठ बन गयी उन्हें खुद पता नहीं चला. पार्च्ड दैहिक और मानसिक स्तर पर सूख चुकी उन्हीं औरतों द्वारा अपने सूखेपन को सींच खुद को हरा-भरा कर लेने की कहानी है. निर्देशक लीना यादव ने बड़ी ही खूबसूरती से तीन लड़कियों के जरीये भीड़ में गूम उन सारे चेहरों को झिझक और बेड़ियों सरीखी वजर्नाएं तोड़कर खुशियां चुनने की एक राह दिखा दी है.
कहानी रानी(तनिष्ठा चटर्जी), लाजो(राधिका आप्टे) और बिजली(सुरवीन चावला) की है. यात्र में जानकी और गुलाब जैसे सहयात्री भी हैं. रानी कम उम्र में ही शादी के बाद मां बन चुकी है. शादी के साल भर बाद ही उसके पति की मौत हो गयी थी. अपने बेटे को पालने से लेकर उसके शादी तक वो खुद को दुनियादारी की आग में झोंकती रहती है. उसकी जिंदगी में खुशियों के कुछ पल आते हैं तो बस उसके मोबाइल की वजह से. एक अनजानी क ॉल बार-बार उसकी अतृप्त इच्छाओं पर खुशियों की बौछार कर जाती है. लाजो मां नहीं बन पाने की कमजोरी की वजह से पति द्वारा शारीरिक प्रताड़ना की शिकार है. और बिजली, इन सबसे अलग अपनी खुशियां हासिल करने के लिए शरीर का इस्तेमाल करती है. वो गांव के मर्दों की जरूरतें पूरी कर बदले में अपनी चाहत हासिल करती है. गुलाब रानी का बेटा है. जानकी से शादी के बाद भी वो अपनी जरूरतें घर के बाहर ही पूरी करता है. बिजली उन तीनों के अंदर कैद खुशियों के दरवाजे खोलने का क ाम करती है. वो लाजो को मां बनने की खुशी हासिल करने के लिए अपने पति से इतर जाने की राह चुनने को कहती है और रानी अपने बेटे की जकड़न से मुक्त कर जानकी को उसके प्रेमी संग आजाद कर देती है.
लीना की ये फिल्म बौद्धिक स्तर पर कईयों को नागवार गुजरेगी. पर औरतों की वही जकड़न और घुटन जब वो खुद के अंदर जज्ब कर देखेंगे तो वो लीना के इस यात्रा से सहमत हुए बिना नहीं रह सकेंगे. लीना की इस यात्रा को उनकी अभिनेत्रियों का भरपूर साथ मिला है. राधिका ने कहानी की जरूरत के लिहाज से खुद को आवश्यक विस्तार दे दिया है. उनकी तोड़ी लकीरों ने लीना का क ाम निश्चित ही आसान कर दिया ह ोगा. तनिष्ठा के भाव संप्रेशनऔर सुरवीन की स्वछंदता भी कहानी को खुलकर खिलने का मौका देती है. पर आखिर में ये बात बतानी जरूरी हो जाती है कि फिल्म केवल व्यस्कों के लिए है सो थियेटर के रूख में परिपक्वता जरूरी है.
क्यों देखें- वषों से चली आ रही ट्रेडिशनल माइंडसेट बदलने के लिए ऐसी कहानियां निहायत जरूरी हैं.
क्यों न देखें- बेशक फिल्म नाबालिकों के लिए नहीं है.


फिल्म समीक्षा

                              सपनों को जीना सिखाती है बैंजो
http://epaper.prabhatkhabar.com/945980/PATNA-City/CITY#page/10/1
जिंदगी आपको हमेशा दो च्वाइस देती है, या तो आप अपन गरीबी और मुफलिसी को अपनी नियति मानकर उसके साथ जीना सीख लो या उसे अपने पंख बनाकर अपने सपनों को उड़ान दे दो. बैंजो दूसरा रास्ता अख्तियार करती है. पेट की भूख मिटाने को क ाम करने के साथ-साथ अपनी ख्वाहिशों को जीने का तरीका बताती है. मराठी फिल्मों के जाने-माने निर्देशक रवि जाधव ने अपनी पहली हिंदी फिल्म के जरीये इसी जज्बे और हौसले की कहानी कही है. फिल्म शायद कुछ ज्यादा खूबसूरत बन पड़ती अगर निर्देशक मुख्य कहानी में सिनेमाई तड़का डालने के चक्कर में कुछ मसाला मिश्रण से बच पाते तो. पर इसके बावजूद रवि ने जिस खूबसूरती से मुंबई के चॉल की जिंदगी और उसमें बसे लोगों के सपनों को फिल्माया है वो क ाबिल ए तारीफ है. और इस कोशिश में उनका भरपूर साथ दिया है रितेश देशमुख ने.
कहानी चॉल में रहने वाले चार लड़कों तराट(रितेश देशमुख), ग्रीस(धर्मेश), पेपर(आदित्य कुमार) और वाजा(राम मेनन) की है. क ाम करने के साथ-साथ चारों बैंजो बजाते हैं. एक दिन गणपति महोत्सव में बैंजो बजाते उनका ऑडियो क्लीप न्यूयार्क की कृष(नरगिस फाखरी) के हाथ लग जाता है. कृष खुद म्यूजिक की दूनिया में अपना नाम बनाना चाहती है. एक म्यूजिक कंसर्ट में अपनी बनायी म्यूजिक भेजने के लिए वो उन चारों को तलाशती मुंबई आ जाती है. यहां वो चारों को मिल तो जाती है पर चारों का अनप्रोफेशनल रवैया उनके आड़े आ जाता है. काफी मुश्किल से वो इन सब बातों को हैंडल कर ही रही होती है कि इसी बीच राजनेता पाटिल के लिए वसूली करने वाला तराट एक केस में पुलिस के चंगूल में फंस जाता है. अपने सपने के टूटने से बिखरी कृष वापस न्यूयार्क चली जाती है. पर इन सबके बीच पीछे छोड़ जाती है वो सपना जिसे अब उन चारों लड़क ों को पूरा करना था. 
कहानी और बैकड्रॉप के लिहाज से कलाकारों का चयन बिलकुल वाजिब लगता है. तराट के किरदार में रितेश ने इसे मराठी परिवेश के काफी आस-पास रखा है. अबतक उपयुक्त भुमिकाओं से वंचित रहे रितेश ने किरदार की मनोदशा और जरूरी उर्जा को काफी संयमित तरीके से समावेशित किया है. धर्मेश व अन्य किरदार भी परिवेश की जरूरतों के साथ पूरा न्याय करते हैं. फिल्म की खास बात ये कि बैंजो जिनसे शायद अधिकांश भारतीय अबतक अंजाने हैं, अपनी मधूर धून के साथ आपको बार-बार थिरकने का पूरा मौका देती है. 

Wednesday, September 21, 2016

फिल्म समीक्षा: राज र ीबूट

     नये पैकेट में पूराने सामान की तरह है राज र ीबूट

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विक्रम भट्ट ने खुद को एक ऐसे खांचे में ढाल लिया है कि दर्शक अब उनसे कुछ अलग की उम्मीद भी नहीं करते. और वो भी दर्शकों को एक अंतराल के बाद अपनी उसी दुनिया में ले जाते हैं, जहां कुछ छिपे राज होते हैं, बदले की आग होती है और परालौकिक शक्तियों का बसेरा होता है. उन्होंने ऐसे मायाजाल रचने में खुद को पारंगत कर लिया है पर अफसोस एकरसता के भंवर से खुद को बचा नहीं पाये.  कुछ नया नहीं होने की वजह से सबकुछ देखा-देखा सा लगता है. थ्रिल के स्तर पर भी दिमाग कुछ और, कुछ और की मांग करता रह जाता है और फिल्म खत्म हो जाती है. पर ऐसा नहीं कि फिल्म में देखे जाने लायक कुछ भी नहीं. कहानी, सस्पेंस, फिल्मांकन और नयनाभिराम लोकेशंस के लिए फिल्म एक बार तो देखी ही जा सकती है.
सायना(कृति खरबंदा) और रेहान (गौरव अरोड़ा) रोमानिया में एक-दूसरे से मिलते हैं. दोनों में प्यार होता है और दोनों शादी करके इंडिया में सेटल हो जाते हैं. कुछ सालों बाद रेहान को फिर से र ोमानिया की एक अच्छी कंपनी में जॉब ऑफर होता है. वो वापस वहां नहीं जाना चाहता पर सायना की जिद की वजह से प्रपोजल एक्सेप्ट कर लेता है. वहां उन्हें रहने को जो घर मिलता है उसके बारे में ये धारणा थी कि वो हान्टेड है. वहां शिफ्ट होने के दिन से ही सायना के साथ अजीब-अजीब घटनाएं होने लगती हैं. वो रेहान को ये बताती है पर वो उसपर विश्वास नहीं करता. फिर सायना की मुलाकात आदित्य(इमरान हाशमी) से होती है. आदित्य उसका पूर्व प्रेमी था पर उसकी हरकतों से तंग आकर सायना ने उसे छोड़ दिया था. वो सायना को बताता है कि उसके साथ होने वाली हर घटना को वो सपने में पहले ही देख लेता है. सायना उसका विश्वास नहीं करती पर पर वो उसके साथ घटने वाली हर घटना के बारे में उसे बताता है. आदित्य उसकी मदद करना चाहता है. वो बताता है कि रेहान ने उससे एक राज छुपाया है और वो ये कि रोमानिया छोड़ने से पहले उसके हाथों किसी का खून हुआ था. पर इससे पहले कि वो रेहान से ये सब पुछ पाती एक बूरी आत्मा उसके शरीर पर कब्जा कर लेती है. उसे बचाने के लिए रेहान तांत्रिक का सहारा लेता है. फिर उन सबके सामने खुलता है ऐसा राज जिसकी वजह से ये सारी घटनाएं हो रही हैं.
भट्ट कैंप के चहेते बन चुके इमरान हाशमी अभिनय के स्तर पर सालों से एक ही परिधि के चारो ओर घुमते नजर आते हैं. ऐसा लगता है उन्होंने भी अब अपनी प्रचलित सीरियल किसर की भुमिका से बाहर आने की जद्दोजहद छोड़ दी है. गौरव अरोड़ा व कृति खरबंदा ने अपने हिस्से की भुमिका सहजता के साथ निभाया है. गाने सूनने योग्य तो हैं पर देर तक असर नहीं छोड़ पाते. हां रोमानिया के प्राकृतिक दृश्य जरूर एक ठंडक का अहसास देते हैं. कुल मिलाकर टाइम पास के लिए फिल्म एक बार देखी जा सकती है.
      

Sunday, September 18, 2016

फिल्म समीक्षा:


 पिंक देखिये और तय क ीजिये, आप कहां खड़े हैं
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अभी कुछ दिनों पहले अमिताभ बच्चन ने एक भावनात्मक पत्र लिखा था, अपनी नातिन नव्या और पोती आराध्या के नाम. तब शायद समझ नहीं पाया था कि अचानक अमिताभ के अंदर ऐसे किस वैचारिक दर्द ने उथल-पुथल मचाया जिसने उन्हें ऐसा लिखने पर विवश किया. पर पिंक देख समझ में आया कि वो आंतरिक हलचल अचानक नहीं था, निश्चित ही फिल्म निर्माण की प्रक्रिया और उसकी किरदार में समाये अमिताभ ने उसकी वेदना को अपने कलम की स्याही बना डाली होगी. पिंक महज एक सिनेमा नहीं है, सोच है उस पुरूषवादी समाज की, जिसकी भेदती निगाहों के बीच हर रोज किसी लड़की को अपना रास्ता तलाशना पड़ता है. निर्देशक अनिरूद्ध राय चौधरी की सोच थियेटर में आपके अंदर पल भर भी निश्चिंतता का भाव नहीं पनपने देगी. आप हर दृश्य के साथ अपने आस-पास की देखी घटना का मिलान करेंगे, हर किरदार में आपको कोई जाना-पहचाना चेहरा नजर आयेगा और हर संवाद आपको गहरे कचोटेगा. पिंक हर उस पुरूषवादी सोच को कटघरे में खींचती है जिनके लिए लड़कियों के कपड़े, उसके उठने-बैठने, बोल-चाल के तरीके और उसके खान-पान उसका कैरेक्टर तय करते हों. अफसोस ऐसी सोच के लोग गलत के खिलाफ महिलाओं के हक में थियेटर में तालियां तो बजाते हैं, पर बाहर आते ही फिर उसी कुंठित आवरण में खुद को समेट लेते हैं.
कहानी दिल्ली में जॉब करने वाली तीन लड़कियों मीनल अरोड़ा(तापसी पन्नू), फलक अली(कृति कुल्हारी) और एंड्रिया (एंड्रिया तरियांग) की है. आजाद ख्यालों वाली तीनों लड़कियां एक रॉक कंसर्ट के दौरान राजवीर (अंगद बेदी) व उसके दोस्तों डिंपी (राहुल टंडन) और विश्वा (तुषार पांडे) से मिलती हैं. डिंपी और मीनल के क्लासमेट होने की वजह से सब आपस में कंफर्ट फ ील करती हैं. सब खाते-पीते और मौज-मस्ती करते हैं. घटना उस वक्त मोड़ लेती है जब तीनों लड़कियों की मोडेस्टी को लड़के खुद के लिए मौका मान बैठते हैं. मीनल के इनकार के बावजूद राजवीर उससे जबरदस्ती की क ोशिश करता है. और इस क ोशिश में हुई हाथापाई में मीनल के हाथों राजवीर के सिर पर गहरी चोट आती है. घटना से घबरायी लड़कियां इस हादसे को भूलना चाहती हैं पर बदले की आग में राजवीर और उसके दोस्त ऊंची रसूख का इस्तेमाल कर उन्हें झूठे केस में फंसा देते हैं. सामाजिक तौर पर भी उन्हें तिरस्कृ त किया जाता है. पुलिस मीनल को अरेस्ट कर लेती है. तब उसी की सोसायटी में रहने वाले बुजूर्ग वकील दीपक सहगल(अमिताभ बच्चन) उसका केस अपने हाथ में लेते हैं. क ोर्ट रूम में लड़कों के वकील प्रशांत(पीयुष मिश्र) मीनल और उसकी सहेलियों को प्रोफेशनल सेक्स वर्कर साबित करने की क ोशिश करते हैं. झूठे गवाह और सबूतों के दम पर जीत की उसकी इस क ोशिश से दीपक सहगल का तजूर्बा किस हद तक लड़ाई लड़ पाता है इसका मुजायरा आप खुद थियेटर में करें तो बेहतर होगा.
फिल्म भले अपने धीमेपन या मसालों के कम तड़का की वजह से थोड़ी खींज दे, पर कहानी के पीछे की सोच थियेटर के बाहर भी आपका पीछा नहीं छोड़ने वाली. तापसी और कृति स्थिति की भयावहता से जुझती लड़कियों के किरदार में समा सी जाती हैं. आश्चर्य होता है क ाफी समय से बॉलीवूड में होने के बावजूद हिंदी फिल्मकार तापसी की योग्यता का भरपूर उपयोग क्यों नहीं कर पाये. पीयुष और एंड्रिया भी सराहनीय हैं. पर अमिताभ, उम्र के इस पड़ाव में अपने हर अगले कदम से आश्चर्यचकित करते अमिताभ वाकई शोध के विषय हैं. उम्र व बीमारियों से जुझने के बावजूद लड़कियों के हक में लड़ते वकील सहगल के किरदार की मनोदशा उनसे बेहतर शायद ही कोई समझ पाता.
क्यों देखें- वाकई अगर अपनी सोच को सकारात्मक दिशा में बदलने की ओर कदम उठाना चाहते हों तो एक बार जरूर देखें.
क्यों न देखें- पुरूषवादी सोच की जंजीरों में गहरे जकड़ें हों तो फिल्म आपको विचलित करेगी.

Friday, September 16, 2016

फिल्म समीक्षा

      पिंक देखिये और तय क ीजिये, आप कहां खड़े हैं


अभी कुछ दिनों पहले अमिताभ बच्चन ने एक भावनात्मक पत्र लिखा था, अपनी नातिन नव्या और पोती आराध्या के नाम. तब शायद समझ नहीं पाया था कि अचानक अमिताभ के अंदर ऐसे किस वैचारिक दर्द ने उथल-पुथल मचाया जिसने उन्हें ऐसा लिखने पर विवश किया. पर पिंक देख समझ में आया कि वो आंतरिक हलचल अचानक नहीं था, निश्चित ही फिल्म निर्माण की प्रक्रिया और उसकी किरदार में समाये अमिताभ ने उसकी वेदना को अपने कलम की स्याही बना डाली होगी. पिंक महज एक सिनेमा नहीं है, सोच है उस पुरूषवादी समाज की, जिसकी भेदती निगाहों के बीच हर रोज किसी लड़की को अपना रास्ता तलाशना पड़ता है. निर्देशक अनिरूद्ध राय चौधरी की सोच  थियेटर में आपके अंदर पल भर भी निश्चिंतता का भाव नहीं पनपने देगी. आप हर दृश्य के साथ अपने आस-पास की देखी घटना का मिलान करेंगे, हर किरदार में आपको कोई जाना-पहचाना चेहरा नजर आयेगा और हर संवाद आपको गहरे कचोटेगा. पिंक हर उस पुरूषवादी सोच को कटघरे में खींचती है जिनके लिए लड़कियों के कपड़े, उसके उठने-बैठने, बोल-चाल के तरीके और उसके खान-पान उसका कैरेक्टर तय करते हों. अफसोस ऐसी सोच के लोग गलत के खिलाफ महिलाओं के हक में थियेटर में तालियां तो बजाते हैं, पर बाहर आते ही फिर उसी कुंठित आवरण में खुद को समेट लेते हैं.
कहानी दिल्ली में जॉब करने वाली तीन लड़कियों मीनल अरोड़ा(तापसी पन्नू), फलक अली(कृति कुल्हारी) और एंड्रिया (एंड्रिया तरियांग) की है. आजाद ख्यालों वाली तीनों लड़कियां एक रॉक कंसर्ट के दौरान राजवीर (अंगद बेदी) व उसके दोस्तों डिंपी (राहुल टंडन) और विश्वा (तुषार पांडे) से मिलती हैं. डिंपी और मीनल के क्लासमेट होने की वजह से सब आपस में कंफर्ट फ ील करती हैं. सब खाते-पीते और मौज-मस्ती करते हैं. घटना उस वक्त मोड़ लेती है जब तीनों लड़कियों की मोडेस्टी को लड़के खुद के लिए मौका मान बैठते हैं. मीनल के इनकार के बावजूद राजवीर उससे जबरदस्ती की क ोशिश करता है. और इस क ोशिश में हुई हाथापाई में मीनल के हाथों राजवीर के सिर पर गहरी चोट आती है. घटना से घबरायी लड़कियां इस हादसे को भूलना चाहती हैं पर बदले की आग में राजवीर और उसके दोस्त ऊंची रसूख का इस्तेमाल कर उन्हें झूठे केस में फंसा देते हैं. सामाजिक तौर पर भी उन्हें तिरस्कृ त किया जाता है. पुलिस मीनल को अरेस्ट कर लेती है. तब उसी की सोसायटी में रहने वाले बुजूर्ग वकील दीपक सहगल(अमिताभ बच्चन) उसका केस अपने हाथ में लेते हैं. क ोर्ट रूम में लड़कों के वकील प्रशांत(पीयुष मिश्र) मीनल और उसकी सहेलियों को प्रोफेशनल सेक्स वर्कर साबित करने की क ोशिश करते हैं. झूठे गवाह और सबूतों के दम पर जीत की उसकी इस क ोशिश से दीपक सहगल का तजूर्बा किस हद तक लड़ाई लड़ पाता है इसका मुजायरा आप खुद थियेटर में करें तो बेहतर होगा. 
फिल्म भले अपने धीमेपन या मसालों के कम तड़का की वजह से थोड़ी खींज दे, पर कहानी के पीछे की सोच थियेटर के बाहर भी आपका पीछा नहीं छोड़ने वाली. तापसी और कृति स्थिति की भयावहता से जुझती लड़कियों के किरदार में समा सी जाती हैं. आश्चर्य होता है क ाफी समय से बॉलीवूड में होने के बावजूद हिंदी फिल्मकार तापसी की योग्यता का भरपूर उपयोग क्यों नहीं कर पाये. पीयुष और एंड्रिया भी सराहनीय हैं. पर अमिताभ, उम्र के इस पड़ाव में अपने हर अगले कदम से आश्चर्यचकित करते अमिताभ वाकई शोध के विषय हैं. उम्र व बीमारियों से जुझने के बावजूद लड़कियों के हक में लड़ते वकील सहगल के किरदार की मनोदशा उनसे बेहतर शायद ही कोई समझ पाता. 
क्यों देखें- वाकई अगर अपनी सोच को सकारात्मक दिशा में बदलने की ओर कदम उठाना चाहते हों तो एक बार जरूर देखें. 
क्यों न देखें- पुरूषवादी सोच की जंजीरों में गहरे जकड़ें हों तो फिल्म आपको विचलित करेगी.

दिल की बात..

सच कहा आपने बच्चन साहब, ना का मतलब ना ही होता है..

सिनेमाई समझ आने से क ाफी पहले..हां.. याद नहीं कबसे, पर क ाफी पहले से ये सुनता आ रहा हूं, मर्द को दर्द नहीं होता.. थोड़ी समझ बढ़ी तो जाना कि अमिताभ बच्चन के कहे ये डायलॉग केवल शब्द भर नहीं बल्कि पुरूषों की मजबूत पौरूषता दर्शाने की एक सोच थी. तबसे दिल यही मान बैठा था कि जिसे दर्द नहीं होता असल में मर्द वही होता है.
पर आज ये मिथक टूट गया. गहरे अवचेतन में जड़ें जमा चुका ये भ्रम तब चूर-चूर हो गया जब उसी अमिताभ बच्चन को थियेटर में(पिंक) आंखों से बह पड़ने को आतुर दर्द को खुद के अंदर जज्ब करते देखा. हर एक दृश्य के बाद मर्द की अमिट छवि मानवीय संवेदना के दर्द की आंच में पिघलती दिखी. बात केवल फिल्म की होती तो शायद दिल का ये भ्रम यथावत ही रहता, पर हफ्ते भर पहले की घटना याद आ गयी जिसने इस भ्रम पर एक करारा प्रहार किया.
 वो घटना जिसमें अमिताभ बच्चन ने एक भावनात्मक पत्र लिखा था, अपनी नातिन नव्या और पोती आराध्या के नाम. तब शायद समझ नहीं पाया था कि अचानक अमिताभ के अंदर ऐसे किस वैचारिक दर्द ने उथल-पुथल मचाया जिसने उन्हें ऐसा लिखने पर विवश किया. पर पिंक देख समझ आया कि वो आंतरिक हलचल अचानक नहीं थी, निश्चित ही फिल्म निर्माण की प्रक्रिया और उसकी किरदार में समाये अमिताभ ने उसकी वेदना को अपने कलम की स्याही बना डाली होगी.
भले ही अमिताभ ने पत्र में नव्या या आराध्या को संबोधित किया हो पर आज उस पत्र को दोबारा पढ़ने के बाद मुङो अपने आस-पास की हर लड़की नव्या और आराध्या ही दिख रही है. हर रोज संकीर्ण पुरूषवादी मानसिकता के सोच की चक्रव्यूह भेदने की क ोशिश करती आम लड़की, जिसे अमिताभ संबोधित करना चाह रहे हों.
फिल्म देखने के घंटों बाद बार-बार मन को क ोर्टरूम का वो दृश्य कचोट रहा है जहां वकील बने अमिताभ रह-रहकर दर्दभरा व्यंग्यात्मक प्रहार करते हैं उन सोचों पर, जो लड़कियों के कपड़े, उसके उठने-बैठने, बोल-चाल के तरीके और उसके खान-पान से उसका कैरेक्टर तय करते है. वो सोच जो एक जगह, एक सी मस्ती, एक से खान-पान वाले
दो लोगों में एक को सही और दूसरे को गलत सिर्फ इसलिए ठहराती है कि उनमें एक लड़का और दूसरी लड़की है. वही मस्ती, वही शराब लड़के के गले उतरते उसका स्टेटस सिंबल बताती है, पर लड़की के गले उतर जाए तो उसे ‘सहज उपलब्ध ’ भर बना डालती है. जो लड़कियों के कपड़े (जींस, स्कर्ट, टीशर्ट) की लंबाई से उसके कैरेक्टर के पैमाने का अंदाजा लगाती है.
वो सोच जिसने पूरी दुनिया को बस अपने घर की दहलीज के जरीये दो हिस्सों में बांट रखा है. दहलीज के अंदर की हर लड़की या महिला पाक-पवित्र पर उस दहलीज के बाहर की हर लड़की बस इस्तेमाल की चीज.
वो सोच जो लड़कियों के हंस-बोल कर बात करने या किसी लड़के को छूकर बात करने को ‘इनविटेशन का इंडिकेशन’ मानती है. लड़कियां भले ना-ना करती रहे पर उनपर हावी होने की वो सोच जो उन्हें ऐसा कर पूर्ण पुरूषस्व का अहसास दिलाती हो.
पर सच कहा आपने बच्चन साहब, ना का मतलब बस.. ना होता है. पर ये बात उन पुरूषवादी मानसिकता वाले को कौन समझाए जिनके आदर्श-स्त्री वाली सोच के खांचे में उनकी मां-बहन के अलावे कोई फिट ही नहीं बैठती. उन्हें कौन समझाए जो महिलाओं के हक में थियेटर में तालियां तो बजाते हैं, पर बाहर आते ही फिर उसी कुंठित आवरण में खुद को समेट लेते हैं. उन्हें उस दर्द का मतलब कौन समझाए जो किसी लड़की को उसकी मर्जी के खिलाफ छूने पर उसे हजारों-लाखों घावों से भी गहरे छलनी कर डालता है.
पर यकीन मानिये बच्चन साहब, मर्द की छवि वाले उस भ्रम के टूटने का आज कोई मलाल नहीं. शुक्रिया आपको, अपनी बनायी उस मिथक को हकीकत के उस हथौड़े से खुद ही तोड़ने का जो ये बात क ायदे से समझा गयी कि जिसे दर्द हो वही असली मर्द होता है.
मेरी तरह हर मर्द को दर्द हो, अभी तो बस इन्हीं उम्मीदों के साथ..
-गौरव




Saturday, September 10, 2016

फिल्म समीक्षा: फ्रीकी अली


कमजोर फिल्म को नवाज के क ांधे का सहारा
फिल्म इंडस्ट्री की ये विडंबना है कि यहां लोग क ामयाबी की सीढ़ी चढ़ते स्टार की इमेज भूनाने में लग जाते हैं. नवाजुद्दीन सिद्दीकी निर्विवादित रूप से आज के दौर के पसंदीदा स्टार हैं. अभिनय में उनकी स्वीकार्यता हर वर्ग में तेजी से बढ़ी है. ऐसे में सोहेल खान की फ्रीकी अली जैसी फिल्म उन्हें एक कदम पीछे ही खींचती है. नवाज ने सहज और आकर्षक अभिनय के दम पर फिल्म को उठाने की भरसक क ोशिश की है, पर सोहैल की कमजोर कहानी उनकी इस क ोशिश में बार-बार खलल पैदा करती है. सोहैल ने नवाज की असल जिंदगी से रिफरेंस लेते हुए फिल्म की कहानी बूनी जिसके केंद्र में गोल्फ रखा. पर अत्यधिक फिल्मी नाटकीयता और बाकी कलाकारों के उदासीन अभिनय की वजह से नवाज का प्रभाव भी कम हो जाता है.
कहानी लावारिस लड़के अली (नवाजुद्दीन सिद्दीकी) की है जिसे एक हिंदू औरत (सीमा विश्वास)अपने बच्चे की तरह पालती है. बचपन से गलियों में चड्डियों की दुकान लगाने वाला अली क्रिकेट में क ाफी हुनरमंद है. पर पैसे कमाने की लालसा में वो मकसूद(अरबाज खान) के साथ मिल हफ्ता वसूली का धंधा करता है. एक दिन एक गोल्फर से पैसा वसूली करते हुए उसे गोल्फ खेलने की चुनौती मिलती है. उसके ये हुनर उसी के गांव के एक व्यक्ति किशनलाल (आसिफ बसरा)की नजर में आ जाता है. वो उसे अपनी जिंदगी सुधारने के लिए गोल्फ की ट्रेनिंग लेने को कहता है. इसमें मकसूद भी उसकी मदद करता है. टूर्नामेंट के दौरान उसका सामना गोल्फ के दिग्गज पीटर(जस अरोड़ा) से होता है. पर हुनर और मेहनत के दम पर गली का लड़का आखिर में गोल्फ चैंपियन बनता है.
सोहैल निर्देशन के स्तर पर फिल्म को एक साथ नहीं समेट पाए हैं. टूकड़ों-टूकड़ों में बंटी सी फिल्म कई मौकों पर उनके हाथ से छूटती नजर आती है. क ॉमिक सींस में भी आवश्यक पंच की कमी की वजह से दृश्य हल्के हो गये हैं. नवाज को फिल्म में किसी का आवश्यक सहयोग मिल पाता है तो वो हैं सीमा विश्वास. एमी जैक्शन और बाकी किरदार भी बस भरपायी के लिए गढ़े गए लगते हैं. गानों के बोल शायद ही याद रह पाएं पर संगीत थियेटर में सूनने लायक है. तो अगर ये फिल्म देखने की कहीं कोई गुंजाइश दिखती है तो वो बस नवाज के हिस्से जाता है.
क्यों देखें- चेहरे पर मुस्कान लाने वाली नवाज की नैसर्गिक अभिनय की खातिर एक बार देख सकते हैं.
क्यों न देखें- उम्दा कहानी से सजी किसी सशक्त फिल्म की उम्मीद में हों तो.


फिल्म समीक्षा: बार-बार देखो


बार बार नहीं एक बार ही क ाफी है
एक बात आपको पहले ही बता दूं अगर आप सिद्धार्थ-कैटरीना के दीवाने हैं और किसी उम्दा फिल्म की उम्मीद में बार-बार देखो देखने जा रहे हैं तो संभल जाइए, फिल्म बड़े प्यार से आपकी जेब साफ कर देगी और आखिर में आप खुद को ठगा सा लेकर थियेटर के बाहर पाएंगे. ट्रेलर से क ाफी उम्मीद जगाती बड़े बैनर और बड़े नामों से सजी ये फिल्म थियेटर से निकलते वक्त बिलकुल खोदा पहाड़ निकली चुहिया वाली कहावत साबित होती है. फिल्म की कहानी (माफ क ीजिएगा कहानी बोलनी पड़ रही है) ही इसकी सबसे कमजोर कड़ी है. और रही सही कसर इसकी उलझाऊ नाटकीयता और कैटरीना के बार्बी टाइप अभिनय ने पूरी कर दी. पूरी फिल्म में उपजे सिरदर्द में अगर कोई राहत का बाम देता है तो वो हैं दिल्ली, थाइलैंड और इंगलैंड के नयनाभिराम लोकेशंस और सिद्धार्थ मल्होत्र का अभिनय.
जय वर्मा (सिद्धार्थ मल्होत्र) और दीया(कैटरीना कैफ) बचपन के दोस्त हैं. वक्त और उम्र बढ़ने के साथ-साथ दोनों में प्यार बढ़ता है. मैथेमैटिक्स का स्टूडेंट जय क ाफी एंबिसस है और वो लाइफ के हर क ाम कैलकुलेशन के साथ करता है. जब दीया जय को शादी के लिए प्रपोज करती है उस वक्त वो कैंब्रिज यूनिवर्सिटी से आए ऑफर की वजह से इस शादी से इनकार कर देता है. दीया को हर्ट करने के बाद उस रात वो टेंशन में क ाफी शराब पी लेता है, पर जब सूबह उसकी नींद खुलती है तो वो खुद को दीया के साथ थाइलैंड में हनीमून मनाता हुआ पाता है. वो समझ नहीं पाता उसके साथ क्या हो रहा है. फिर हर रात की नींद के बाद वो अपनी लाइफ में दस या पंद्रह साल आगे चला जाता है. जहां वो अपनी व दीया के लाइफ की कई सारी घटनाओं को जीता है. पर जय के साथ आखिर ये क्यूं हो रहा और इसका अंत क्या है? यही फिल्म का क्लाइमैक्स है.
कहानी क ागजी स्तर पर जितनी उत्सुकता पैदा करती है परदे पर उतनी ही बोरियत देती है. पहले हाफ में शुरूआत के साथ बनी उत्सुकता इंटरवल आते-आते बार-बार थियेटर छोड़ने को उकसाने लगती है. बस खाली जेब का ख्याल आते ही पांव रूक जाते हैं. गानों की बात करें तो थोड़ा सुकून मिलता है. कुल मिलाकर फिल्म को एक बार पचा पाएं तो आपकी क ाबिलियत, बार-बार देखना अपच के अलावा कुछ नहीं देगा.



Monday, September 5, 2016

जिद और जज्बे के दम पर बनायी पहली फिल्म: KAASH: think before you act



बिहार की मिट्टी हमेशा से कला और कलाकारों के लिए मुफीद रही है. इस मिट्टी ने हर क्षेत्र में कई प्रतिभाओं को जन्म दिया. और बात अगर फिल्मों की करें तो इस क्षेत्र में भी सफलता के झंडे गाड़ने वालों की फेहरिस्त काफी लंबी है. ऐसे ही एक युवा की शार्ट फिल्म इन दिनों यूट्यूब पर काफी धूम मचा रही है. काश: थिंक बिफोर यू एक्ट के नाम से बनी इस शार्ट फिल्म के निर्देशक मोतिहारी शहर के गौरव हैं. गौरव ने निर्देशन के साथ-साथ फिल्म की कहानी भी लिखी और मुख्य भूमिका में भी है. पेश है आज के युवाओं को झकझोरती इस फिल्म के निर्देशक गौरव से खास बातचीत :-
प्रश्न : काश ! थिंक बिफोर यू एक्ट की कहानी क्या है, और इसका आइडिया कैसे आया?
-यह कहानी है एक युवक की जो गांव से शहर पढ़ने आता है. उसके साथ उसके माता-पिता के ख़्वाब भी होते हैं, पर शहरी चकाचौंध और प्यार के जाल में फंस कर वो खुद को इतना असहाय महसूस करता है कि आत्महत्या जैसा आत्मघाती कदम उठाने को मजबूर हो जाता है. उसके इस कदम का क्या असर होता है यही फिल्म की थीम है.
जहां तक आइडिया की बात है, तो सच कहूं अभिनेत्री प्रत्यूषा बनर्जी के सुसाइड ने मुझे काफी झकझोरा था. काफी दिनों तक मैं उस वाकये पर सोचता रहा. और उसी घटना ने मुझे मजबूर कर दिया यह फिल्म बनाने को.
प्रश्न : किसी और प्रोफेशन में होते हुए फिल्म बनाने की बात सोचना भी टेढ़ी खीर है. ऐसे में फिल्म बनने की कहानी भी जरूर दिलचस्प रही होगी?
- बात तो आपकी सही है, पर फिल्मों से मेरा लगाव बचपन से रहा है. कई बार देर रात तक पड़ोसी के घर फिल्में देखने की वजह से घर में मार भी पड़ी, पर सही प्लेटफॉर्म न मिलने की वजह से निर्माण की सोच भी नहीं पा रहा था. कई साल परेशानियां झेलने के बाद मैंने ऐसी फिल्म बनाने की सोची, जिसमें कहानी हीरो हो. कम कैरेक्टर और कम खर्च में कुछ दोस्तों की मदद से पहली शार्ट फिल्म बनायी, जिसे लोग कटेंट की वजह से काफी पसंद कर रहे हैं. और बात रही अन्य प्रोफेशन में होने की तो जहां चाह वहां राह निकल ही जाती है, बस जज्बा होने होना चाहिए.  
प्रश्न : पटना जैसे शहर में फिल्म बनाने में किन-किन कठिनाइयों का सामना करना पड़ा?
-परेशानियां तो काफी होती है. क्योंकि अनुभवहीन लोगों के साथ मिल ऐसे काम करने का हौसला करना भी काफी कठिन है. खुद मैं भी टेक्नीकली इमेच्योर ही था, पर काफी सारी फिल्में देखने की वजह से काफी कुछ समझने लगा था. फिर प्रयास करता रहा. तीन-चार असफलताओं के बाद आखिरकार यह फिल्म बनाने में सफल रहा.
प्रश्न : काश को यूट्यूब पर काफी व्यूज और अच्छे-अच्छे रिव्यूज मिले हैं. आगे की क्या योजना है?
-इसके लिए मैं व्यूअर्स का शुक्रिया अदा करता हूं और उन सबों का भी, जिन्होंने अपने-अपने माध्यम से इसे लोगों तक पहुंचाया. जहां तक आगे की योजना की बात है, तो कई शार्ट फिल्मों के स्क्रिप्ट तैयार हैं और मैं यकीन दिलाता हूं कि मेरी हर फिल्म मनोरंजन के साथ-साथ एक स्ट्रांग मैसेज भी देगी.
प्रश्न : आपने इस फिल्म की कहानी, निर्देशन के अलावे मुख्य भूमिका भी निभायी है, आगे खुद को किस रूप में देखते हैं?
-देखिये अभिनय मेरा पैशन है, पर मैं निर्देशन का लुत्फ भी उसी शिद्दत से उठाता हूं. अपनी सोच में प्रभावी तरीके से कहने के लिए जरूरी है कि कमान खुद के हाथ हो.
प्रश्न : आप खुद एक फिल्म क्रिटीक हैं, अगर मैं आपसे अपनी फिल्म की रिव्यू के लिए कहूं तो आपकी क्या टिप्पणी होगी?
-एक बात बता दूं, कोई कितनी भी फिल्मों की समीक्षा कर ले, पर आखिर में सबसे बड़े समीक्षक दर्शक ही होते हैं. इसलिए इसका फैसला दर्शकों पर ही छोड़ दें तो बेहतर होगा.
भविष्य के लिए आपको ढेरों शुभकामनाएं बहुत-बहुत आभार आपका.


(गौरव एक सफल कार्टूनिस्ट व फिल्म समीक्षक भी हैं. इनकी फिल्म आप भी यू ट्यूब की इस लिंक पर जा कर देख सकते हैं)

Saturday, September 3, 2016

फिल्म समीक्षा: गुटरूं गुटरगूं


प्रभात खबर के पेज पर पढ़ें-
हंसते-हंसाते टीस दे जाती है गुटरुं गुटरगूं
दर्द में उपजी हंसी और हंसी में छुपा दर्द, दोनों ही गहरे भेदते हैं. और जिस कहानी में इन दोनों का मिश्रण हो वो आपके जेहन में लंबे समय के लिए जगह बनाने के साथ-साथ सोचने को भी विवश कर देती है. गुटरुं गुटरगूं  ऐसी ही विधा की सशक्त फिल्म है. टेलीविजन की दुनिया में नाम बनाने के बाद अभिनेत्री अस्मिता शर्मा ने एक ऐसी फिल्म के जरीये निर्माण के क्षेत्र में कदम रखा जिसमें निश्छल प्रेम है, रिश्तों की खूबसूरत बूनावट व गर्माहट है, सामाजिक वजर्नाएं हैं और इन सबके बीच एक मुलभूत इंसानी जरूरत का अभाव है जो बार-बार इन रिश्तों के आड़े आता है. फिल्म महिला सशक्तिकरण का दंभ भरने वाले समाज पर हंसते-हंसाते एक ऐसा करारा चोट करती है जिसका दर्द थियेटर से बाहर आने पर भी बना रहता है. घर में शौचालय जैसे गंभीर मुद्दे को बिना फुहड़ता की सीमा पार किये कहानी में ढाल देने की चुनौती को अस्मिता व फिल्म निर्देशक प्रतीक शर्मा ने बखूबी स्वीकारा, और तारीफ करनी होगी कि फिल्म इस क ोशिश में शत-प्रतिशत खरी उतरती है. सब जानते हैं कि आज भी हमारे गांवों का अधिकतर घर खुले में शौच करने को मजबूर हैं. और महिलाओं के लिए तो ये किसी अभिशाप से कम नहीं. हर ओर से उठती निगाहों के बीच रास्ता तलाशना उन्हें किसी गहरे घाव से ज्यादा दर्द दे जाता है. औरतें इसे अपनी नियति मान लेती हैं. पर जो इस नियति से लड़ जाने का दंभ रखती हैं वही कहानी की नायिका उगन्ति बन जाती हैं.
कहानी उगन्ति(अस्मिता शर्मा) की है जो शंभू (बूल्लू कुमार) से ब्याह कर उसके गांव जाती है. शादी के दूसरे दिन से ही दोनों के बीच घर में शौचालय न होने को लेकर तकरार होती है. पर इस तकरार के पीछे छिपा एक निश्छल प्यार भी है. पूरे गांव में एक ही शौचालय है जिसे सरपंच ने बनवाया है. उगन्ति की सबसे बड़ी समस्या ये है कि उसे बचपन से शौचालय में जाने की आदत थी. पर इस गांव में सरपंच के फरमान के अनुसार महिलायें शौचालय या तो सूर्याेदय के पहले जा सकती थीं या सूर्यास्त के बाद. उगन्ति के कहने पर शंभू सरपंच से दिन में भी उसे शौचालय जाने देने की इजाजत मांगता है, पर सरपंच इस बात पर सबके सामने उसका मजाक उड़ाता है. समस्या से जुझती उगन्ति एक बीच का रास्ता निकालती है. वो रोज शंभू के क ाम पर जाने के बाद मर्दो का वेश धारण कर शौचालय जाने लगती है. पर एक दिन बात अचानक खूल जाती है. फिर..अर्र्र रूकिये..आखिर के दृश्यों का मुजायरा आप थियेटर में करें तो यकीनन आनन्द दोगुना हो जाएगा.
बिहार में शूट की गयी व बिहारी थियेटर आर्टिस्टों के साथ बनी ये फिल्म निश्चित ही उन तमाम निर्देशकों के लिए एक सबक है जो बिहारी सिनेमा और फूहड़ता को एक-दूसरे का पर्याय बना चुके हैं. उगन्ति के किरदार में अस्मिता का सशक्त अभिनय उनकी क्षमता खूद ब खूद बता देता है. गंवई लाज के दायरे में प्रेम दृश्यों के वक्त चेहरे पर उपजे भाव हों या भावूकता के क्षणों में बोलती आंखें, हर दृश्य में अस्मिता गहरे उतरती हैं. शंभू बने बुल्लू कुमार का किरदार अपनी हर उपस्थिति के साथ आपके चेहरे पर मुस्कान लाता है. फिल्म के गाने भी फ ोक टच के साथ गांव की मिट्टी की खुशबू का अहसास देते हैं.
खास बात ये कि गंभीर मुद्दे पर बनी इस फिल्म को बिहार और झारखंड सरकार ने पहले ही टैक्स फ्र ी कर दिया है. तो अगर आप ठेठ गंवई लहजे में बूने प्रेम के खूबसूरत ताने-बाने संग खुद भी लिपटना चाहते हैं तो गुटरूं गुटरगूं जरूर करें..मेरा मतलब जरूर देखें. सामाजिक मुद्दे की चाशनी तो खुद ब खुद आपके संग लिपट जाएगी.
क्यों देखें- महिला मुद्दे पर जागरूक करती व रिश्तों की एक अलग मिठास जगाती फिल्म देखनी हो तो.

फिल्म समीक्षा: अकीरा

सशक्त सोच की कहानी है अकीरा
बुराई को मिटाना है तो पहले खुद को उसके मुकाबले के क ाबिल बनाना ह ोगा. और बात जब बेटियों को आगे बढ़ाने की हो तो आपको खुद के हौसले को दोगुना करना पड़ेगा. निर्देशक ए आर मुरूगूदास की फिल्म अकीरा ये बात अच्छे से बता जाती है. बताने की क ोशिश में कई जगहों पर वो भटकी भी, पर अच्छी सोच से समाज का रंग र ोगन में करने में एकाध दाग धब्बे रह भी जाएं तो ऐसे दाग अच्छे ही होते हैं. आज जब बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ की लहर समाज में चल पड़ी हो ऐसे में बेटियों को शारीरिक व मानसिक स्तर पर मजबूत करने की सोच भी क ाबिले तारीफ है. अकीरा कहानी है हर उस लड़की की जिसके हाथ समाज की बूरी नजरों और वजर्नाओं के खिलाफ बरबस उठ जाते हैं. और उन लड़कियों के लिए एक मैसेज है जो डर की जंजीरों में खुद के हाथ बांध उन्हें उठने से र ोक लेती हैं. गजनी और हॉलीडे के बाद मुरूगूदास ने अकीरा के जरीये महिला सशक्तिकरण के जिस मुद्दे को छूने की क ोशिश की है उसे सोनाक्षी सिन्हा का भरपूर साथ मिला है.
कहानी अकीरा(सोनाक्षी सिन्हा) की है जिसे बचपन में ही उसके पिता लड़कियों के खिलाफ हो रहे जुल्म से निबटने के लिए मार्शल आर्ट की ट्रेनिंग दिलवाते हैं. बचपन में ही एक बदमाश को मारने के जूर्म में उसे तीन साल के लिए रिमांड होम में भेज दिया जाता है. बड़े होने पर पढ़ाई के लिए उसका शहर जाना होता है. शहर पहुंचने पर उसका सामना एसीपी राणो(अनुराग कश्यप) से होता है, जिसके हाथों एक बिजनेसमैन का खून हो चुका है. राणो तीन पुलिसवालों के साथ मिलकर उसका मर्डर कर देता है और उसकी गाड़ी से करोड़ों रुपये से भरा बैग गायब कर उसे एक्सीडेंट का रूप दे देता है. संयोग से उसके इस क ारनामें का सबूत उसी क ॉलेज की एक लड़की के पास पहुंच जाता है जहां अकीरा पढ़ती है. सबूत मिटाने के चक्कर में उस लड़की के बजाय पुलिसवाले अकीरा को उठा लेते हैं. राणो अकीरा को पागल साबित कर मेंटल होम भिजवा देता है. फिर शुरू होती है अकीरा और भ्रष्ट पुलिसवालों के बीच जंग.
फिल्म पहले हाफ में क ाफी कसी हुई और मनोरंजक दिखती है, पर दूसरे हाफ की संदेशात्मक और अति नाटकीय घटनाओं की वजह से पकड़ छोड़ देती है. कहानी को कई सिरे से पकड़ने की क ोशिश में निर्देशक के हाथ से लगाम छूटती नजर आती है. पर तारीफ करनी होगी सोनाक्षी की, जिन्होंने किरदार के मनोदशा के साथ-साथ एक्शन दृश्यों में भी विश्वसनीयता दिखायी है. अनुराग कश्यप भी निगेटिव किरदार में असरदार साबित होते हैं. छोटी भुमिकाओं में कोंकणा सेन शर्मा व अमित साध सराहनीय हैं. हां सेकेंड हाफ में थोड़ी कसावट के साथ अगर कोई बेहतर क्लाइमैक्स होता तो सिनेमाई स्तर पर फिल्म शायद औसत से ऊपर होती.
क्यों देखें- वूमन इंपावरमेंट की बात कहती एक्शन-मसालेदार फिल्म देखनी हो तो.
ैक्यों न देखें- निर्देशक की पिछली फिल्म वाली जादू देखने की उम्मीद में हो तो.


Friday, September 2, 2016

गुटरुं गुटरगूं


प्रमोशन करने प्रभात खबर ऑफिस पहुंची फिल्म की टीम
सामाजिक सरोकार पर बनी फिल्म गुटरुं गुटरगूं आज से सिनेमाघर में
क ामयाबी की शिखर चढ़ते ही अधिकतर इंसान अपनी जड़ों से मूंह मोड़ लेता है. पर कुछ ऐसे भी लोग होते हैं जिनके अंदर अपनी माटी के लिए कुछ करने की ललक उन्हें हमेशा उद्वेलित करती है. बिहार के जहानाबाद की अस्मिता शर्मा की कहानी भी कुछ ऐसी ही है. टेलीविजन पर बालिका वधू और प्रतिज्ञा जैसी सीरियल में अभिनय की छाप छोड़ने के बाद अस्मिता ने गुटरुं गुटरगूं के जरीये हिंदी फिल्म निर्माण के क्षेत्र में कदम रखा. फिल्म में मुख्य भुमिका निभा रही अस्मिता ने फिल्म के विषय के रूप में ऐसी समस्या को चुना जिससे आज का समाज सबसे ज्यादा जुझ रहा है. महिलाओं के लिए शौचालय जैसे गंभीर मुद्दे को अस्मिता और उनके पति (फिल्म के निर्देशक प्रतीक शर्मा) ने एक खूबसूरत प्रेम कहानी के धागे में पिरोकर ऐसी कहानी गढ़ी है जिसे देख बरबस ही आपके कदम जागरूकता की दिशा में बढ़ जाएंगे. अस्मिता के इसी सराहनीय प्रयास की वजह से बिहार और झारखंड की सरकार ने फिल्म को अपने राज्य में टैक्स फ्री कर दिया है.
फिल्म प्रमोशन के दौरान प्रभात खबर के दफ्तर पहुंची अस्मिता शर्मा, प्रतीक व मुख्य किरदार के पति की भुमिका निभा रहे बुल्लू कुमार ने खुलकर फिल्म के बारे में बातचीत की. फिल्म के मद्दे पर बातचीत के दौरान अस्मिता उन यादों में खो जाती है जब उन्होंने खुद की फैमिली के महिलाओं को इस समस्या से लड़ते देखा था. कैसे उनके परिवार व आस-पास की महिलायें शौच के लिए एक अनजाने डर का साया लपेट घर से बाहर निकलती थीं. उन्हीं यादों की वीभत्सता ने उन्हें इस विषय को चुनने के लिए प्रेरित किया. फिर प्रतीक के साथ ने उनकी सोच को बल दिया और दोनों ने इस विषय को लेकर फिल्म बनाने की ठान ली. असल समस्या फिल्म के विषय के साथ न्याय करते हुए उसे कमर्शियली विस्तार देने की थी. दोनों ने मिलकर एक साल तक कहानी पर क ाम किया. प्रतीक के अनुसार फिल्म सामाजिक सरोकार के मुद्दे के साथ-साथ पति-पत्नी के बीच के रिश्ते को भी खूबसूरती से बयां करती है. रिश्तों में ठेठ देसीपन लिए पति-प}ी के बीच के प्यार और नोंक-झोंक को ही कहानी की मुख्य यूएसपी बताते हैं. और यही से उन्हें फिल्म का नाम गुटरुं गुटरगूं रखने का भी ख्याल आया.
साई फिल्म्स के बैनर तले बनी फिल्म की कहानी गांव के उवन्ति(अस्मिता शर्मा) और उसके पति शंभू (बुल्लू कुमार) की है. ब्याह के बाद ससूराल पहूंची उगन्ति घर में शौचालय न होने की वजह से क ाफी परेशान हो जाती है. फिर इस बात को ले पति से विरोध करती है और बात समाज तक जाती है. फिल्म की सबसे खास बात ये है कि इसकी सारी शुटिंग अस्मिता के गांव पंडूई में हुई है और फिल्म के अधिकतर कलाकार उनके गांव के ही हैं जिन्हें उन्होंने खुद ट्रेंड किया. लोक गानों में भी बिहारी गायिका का ही योगदान है. फिल्म को फेस्टिवल्स और सेंसर प्रतिनिधियों से भी क ाफी सराहना मिल चुकी है.