Friday, September 16, 2016

दिल की बात..

सच कहा आपने बच्चन साहब, ना का मतलब ना ही होता है..

सिनेमाई समझ आने से क ाफी पहले..हां.. याद नहीं कबसे, पर क ाफी पहले से ये सुनता आ रहा हूं, मर्द को दर्द नहीं होता.. थोड़ी समझ बढ़ी तो जाना कि अमिताभ बच्चन के कहे ये डायलॉग केवल शब्द भर नहीं बल्कि पुरूषों की मजबूत पौरूषता दर्शाने की एक सोच थी. तबसे दिल यही मान बैठा था कि जिसे दर्द नहीं होता असल में मर्द वही होता है.
पर आज ये मिथक टूट गया. गहरे अवचेतन में जड़ें जमा चुका ये भ्रम तब चूर-चूर हो गया जब उसी अमिताभ बच्चन को थियेटर में(पिंक) आंखों से बह पड़ने को आतुर दर्द को खुद के अंदर जज्ब करते देखा. हर एक दृश्य के बाद मर्द की अमिट छवि मानवीय संवेदना के दर्द की आंच में पिघलती दिखी. बात केवल फिल्म की होती तो शायद दिल का ये भ्रम यथावत ही रहता, पर हफ्ते भर पहले की घटना याद आ गयी जिसने इस भ्रम पर एक करारा प्रहार किया.
 वो घटना जिसमें अमिताभ बच्चन ने एक भावनात्मक पत्र लिखा था, अपनी नातिन नव्या और पोती आराध्या के नाम. तब शायद समझ नहीं पाया था कि अचानक अमिताभ के अंदर ऐसे किस वैचारिक दर्द ने उथल-पुथल मचाया जिसने उन्हें ऐसा लिखने पर विवश किया. पर पिंक देख समझ आया कि वो आंतरिक हलचल अचानक नहीं थी, निश्चित ही फिल्म निर्माण की प्रक्रिया और उसकी किरदार में समाये अमिताभ ने उसकी वेदना को अपने कलम की स्याही बना डाली होगी.
भले ही अमिताभ ने पत्र में नव्या या आराध्या को संबोधित किया हो पर आज उस पत्र को दोबारा पढ़ने के बाद मुङो अपने आस-पास की हर लड़की नव्या और आराध्या ही दिख रही है. हर रोज संकीर्ण पुरूषवादी मानसिकता के सोच की चक्रव्यूह भेदने की क ोशिश करती आम लड़की, जिसे अमिताभ संबोधित करना चाह रहे हों.
फिल्म देखने के घंटों बाद बार-बार मन को क ोर्टरूम का वो दृश्य कचोट रहा है जहां वकील बने अमिताभ रह-रहकर दर्दभरा व्यंग्यात्मक प्रहार करते हैं उन सोचों पर, जो लड़कियों के कपड़े, उसके उठने-बैठने, बोल-चाल के तरीके और उसके खान-पान से उसका कैरेक्टर तय करते है. वो सोच जो एक जगह, एक सी मस्ती, एक से खान-पान वाले
दो लोगों में एक को सही और दूसरे को गलत सिर्फ इसलिए ठहराती है कि उनमें एक लड़का और दूसरी लड़की है. वही मस्ती, वही शराब लड़के के गले उतरते उसका स्टेटस सिंबल बताती है, पर लड़की के गले उतर जाए तो उसे ‘सहज उपलब्ध ’ भर बना डालती है. जो लड़कियों के कपड़े (जींस, स्कर्ट, टीशर्ट) की लंबाई से उसके कैरेक्टर के पैमाने का अंदाजा लगाती है.
वो सोच जिसने पूरी दुनिया को बस अपने घर की दहलीज के जरीये दो हिस्सों में बांट रखा है. दहलीज के अंदर की हर लड़की या महिला पाक-पवित्र पर उस दहलीज के बाहर की हर लड़की बस इस्तेमाल की चीज.
वो सोच जो लड़कियों के हंस-बोल कर बात करने या किसी लड़के को छूकर बात करने को ‘इनविटेशन का इंडिकेशन’ मानती है. लड़कियां भले ना-ना करती रहे पर उनपर हावी होने की वो सोच जो उन्हें ऐसा कर पूर्ण पुरूषस्व का अहसास दिलाती हो.
पर सच कहा आपने बच्चन साहब, ना का मतलब बस.. ना होता है. पर ये बात उन पुरूषवादी मानसिकता वाले को कौन समझाए जिनके आदर्श-स्त्री वाली सोच के खांचे में उनकी मां-बहन के अलावे कोई फिट ही नहीं बैठती. उन्हें कौन समझाए जो महिलाओं के हक में थियेटर में तालियां तो बजाते हैं, पर बाहर आते ही फिर उसी कुंठित आवरण में खुद को समेट लेते हैं. उन्हें उस दर्द का मतलब कौन समझाए जो किसी लड़की को उसकी मर्जी के खिलाफ छूने पर उसे हजारों-लाखों घावों से भी गहरे छलनी कर डालता है.
पर यकीन मानिये बच्चन साहब, मर्द की छवि वाले उस भ्रम के टूटने का आज कोई मलाल नहीं. शुक्रिया आपको, अपनी बनायी उस मिथक को हकीकत के उस हथौड़े से खुद ही तोड़ने का जो ये बात क ायदे से समझा गयी कि जिसे दर्द हो वही असली मर्द होता है.
मेरी तरह हर मर्द को दर्द हो, अभी तो बस इन्हीं उम्मीदों के साथ..
-गौरव




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