सशक्त
सोच की कहानी है अकीरा
बुराई
को मिटाना है तो पहले खुद को
उसके मुकाबले के क ाबिल बनाना
ह ोगा.
और
बात जब बेटियों को आगे बढ़ाने
की हो तो आपको खुद के हौसले को
दोगुना करना पड़ेगा.
निर्देशक
ए आर मुरूगूदास की फिल्म अकीरा
ये बात अच्छे से बता जाती है.
बताने
की क ोशिश में कई जगहों पर वो
भटकी भी,
पर
अच्छी सोच से समाज का रंग र
ोगन में करने में एकाध दाग
धब्बे रह भी जाएं तो ऐसे दाग
अच्छे ही होते हैं.
आज
जब बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ की
लहर समाज में चल पड़ी हो ऐसे
में बेटियों को शारीरिक व
मानसिक स्तर पर मजबूत करने
की सोच भी क ाबिले तारीफ है.
अकीरा
कहानी है हर उस लड़की की जिसके
हाथ समाज की बूरी नजरों और
वजर्नाओं के खिलाफ बरबस उठ
जाते हैं.
और
उन लड़कियों के लिए एक मैसेज
है जो डर की जंजीरों में खुद
के हाथ बांध उन्हें उठने से
र ोक लेती हैं.
गजनी
और हॉलीडे के बाद मुरूगूदास
ने अकीरा के जरीये महिला
सशक्तिकरण के जिस मुद्दे को
छूने की क ोशिश की है उसे सोनाक्षी
सिन्हा का भरपूर साथ मिला है.
कहानी
अकीरा(सोनाक्षी
सिन्हा)
की
है जिसे बचपन में ही उसके पिता
लड़कियों के खिलाफ हो रहे
जुल्म से निबटने के लिए मार्शल
आर्ट की ट्रेनिंग दिलवाते
हैं.
बचपन
में ही एक बदमाश को मारने के
जूर्म में उसे तीन साल के लिए
रिमांड होम में भेज दिया जाता
है.
बड़े
होने पर पढ़ाई के लिए उसका शहर
जाना होता है.
शहर
पहुंचने पर उसका सामना एसीपी
राणो(अनुराग
कश्यप)
से
होता है,
जिसके
हाथों एक बिजनेसमैन का खून
हो चुका है.
राणो
तीन पुलिसवालों के साथ मिलकर
उसका मर्डर कर देता है और उसकी
गाड़ी से करोड़ों रुपये से
भरा बैग गायब कर उसे एक्सीडेंट
का रूप दे देता है.
संयोग
से उसके इस क ारनामें का सबूत
उसी क ॉलेज की एक लड़की के पास
पहुंच जाता है जहां अकीरा
पढ़ती है.
सबूत
मिटाने के चक्कर में उस लड़की
के बजाय पुलिसवाले अकीरा को
उठा लेते हैं.
राणो
अकीरा को पागल साबित कर मेंटल
होम भिजवा देता है.
फिर
शुरू होती है अकीरा और भ्रष्ट
पुलिसवालों के बीच जंग.
फिल्म
पहले हाफ में क ाफी कसी हुई और
मनोरंजक दिखती है,
पर
दूसरे हाफ की संदेशात्मक और
अति नाटकीय घटनाओं की वजह से
पकड़ छोड़ देती है.
कहानी
को कई सिरे से पकड़ने की क ोशिश
में निर्देशक के हाथ से लगाम
छूटती नजर आती है.
पर
तारीफ करनी होगी सोनाक्षी
की,
जिन्होंने
किरदार के मनोदशा के साथ-साथ
एक्शन दृश्यों में भी विश्वसनीयता
दिखायी है.
अनुराग
कश्यप भी निगेटिव किरदार में
असरदार साबित होते हैं.
छोटी
भुमिकाओं में कोंकणा सेन शर्मा
व अमित साध सराहनीय हैं.
हां
सेकेंड हाफ में थोड़ी कसावट
के साथ अगर कोई बेहतर क्लाइमैक्स
होता तो सिनेमाई स्तर पर फिल्म
शायद औसत से ऊपर होती.
क्यों
देखें-
वूमन
इंपावरमेंट की बात कहती
एक्शन-मसालेदार
फिल्म देखनी हो तो.
ैक्यों
न देखें-
निर्देशक
की पिछली फिल्म वाली जादू
देखने की उम्मीद में हो तो.
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