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हंसते-हंसाते टीस दे जाती है गुटरुं गुटरगूं
दर्द में उपजी हंसी और हंसी में छुपा दर्द, दोनों ही गहरे भेदते हैं. और जिस कहानी में इन दोनों का मिश्रण हो वो आपके जेहन में लंबे समय के लिए जगह बनाने के साथ-साथ सोचने को भी विवश कर देती है. गुटरुं गुटरगूं ऐसी ही विधा की सशक्त फिल्म है. टेलीविजन की दुनिया में नाम बनाने के बाद अभिनेत्री अस्मिता शर्मा ने एक ऐसी फिल्म के जरीये निर्माण के क्षेत्र में कदम रखा जिसमें निश्छल प्रेम है, रिश्तों की खूबसूरत बूनावट व गर्माहट है, सामाजिक वजर्नाएं हैं और इन सबके बीच एक मुलभूत इंसानी जरूरत का अभाव है जो बार-बार इन रिश्तों के आड़े आता है. फिल्म महिला सशक्तिकरण का दंभ भरने वाले समाज पर हंसते-हंसाते एक ऐसा करारा चोट करती है जिसका दर्द थियेटर से बाहर आने पर भी बना रहता है. घर में शौचालय जैसे गंभीर मुद्दे को बिना फुहड़ता की सीमा पार किये कहानी में ढाल देने की चुनौती को अस्मिता व फिल्म निर्देशक प्रतीक शर्मा ने बखूबी स्वीकारा, और तारीफ करनी होगी कि फिल्म इस क ोशिश में शत-प्रतिशत खरी उतरती है. सब जानते हैं कि आज भी हमारे गांवों का अधिकतर घर खुले में शौच करने को मजबूर हैं. और महिलाओं के लिए तो ये किसी अभिशाप से कम नहीं. हर ओर से उठती निगाहों के बीच रास्ता तलाशना उन्हें किसी गहरे घाव से ज्यादा दर्द दे जाता है. औरतें इसे अपनी नियति मान लेती हैं. पर जो इस नियति से लड़ जाने का दंभ रखती हैं वही कहानी की नायिका उगन्ति बन जाती हैं.
कहानी उगन्ति(अस्मिता शर्मा) की है जो शंभू (बूल्लू कुमार) से ब्याह कर उसके गांव जाती है. शादी के दूसरे दिन से ही दोनों के बीच घर में शौचालय न होने को लेकर तकरार होती है. पर इस तकरार के पीछे छिपा एक निश्छल प्यार भी है. पूरे गांव में एक ही शौचालय है जिसे सरपंच ने बनवाया है. उगन्ति की सबसे बड़ी समस्या ये है कि उसे बचपन से शौचालय में जाने की आदत थी. पर इस गांव में सरपंच के फरमान के अनुसार महिलायें शौचालय या तो सूर्याेदय के पहले जा सकती थीं या सूर्यास्त के बाद. उगन्ति के कहने पर शंभू सरपंच से दिन में भी उसे शौचालय जाने देने की इजाजत मांगता है, पर सरपंच इस बात पर सबके सामने उसका मजाक उड़ाता है. समस्या से जुझती उगन्ति एक बीच का रास्ता निकालती है. वो रोज शंभू के क ाम पर जाने के बाद मर्दो का वेश धारण कर शौचालय जाने लगती है. पर एक दिन बात अचानक खूल जाती है. फिर..अर्र्र रूकिये..आखिर के दृश्यों का मुजायरा आप थियेटर में करें तो यकीनन आनन्द दोगुना हो जाएगा.
बिहार में शूट की गयी व बिहारी थियेटर आर्टिस्टों के साथ बनी ये फिल्म निश्चित ही उन तमाम निर्देशकों के लिए एक सबक है जो बिहारी सिनेमा और फूहड़ता को एक-दूसरे का पर्याय बना चुके हैं. उगन्ति के किरदार में अस्मिता का सशक्त अभिनय उनकी क्षमता खूद ब खूद बता देता है. गंवई लाज के दायरे में प्रेम दृश्यों के वक्त चेहरे पर उपजे भाव हों या भावूकता के क्षणों में बोलती आंखें, हर दृश्य में अस्मिता गहरे उतरती हैं. शंभू बने बुल्लू कुमार का किरदार अपनी हर उपस्थिति के साथ आपके चेहरे पर मुस्कान लाता है. फिल्म के गाने भी फ ोक टच के साथ गांव की मिट्टी की खुशबू का अहसास देते हैं.
खास बात ये कि गंभीर मुद्दे पर बनी इस फिल्म को बिहार और झारखंड सरकार ने पहले ही टैक्स फ्र ी कर दिया है. तो अगर आप ठेठ गंवई लहजे में बूने प्रेम के खूबसूरत ताने-बाने संग खुद भी लिपटना चाहते हैं तो गुटरूं गुटरगूं जरूर करें..मेरा मतलब जरूर देखें. सामाजिक मुद्दे की चाशनी तो खुद ब खुद आपके संग लिपट जाएगी.
क्यों देखें- महिला मुद्दे पर जागरूक करती व रिश्तों की एक अलग मिठास जगाती फिल्म देखनी हो तो.
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