पिंक देखिये और तय क ीजिये, आप कहां खड़े हैं
http://epaper.prabhatkhabar.com/938802/PATNA-City/CITY#page/12/1
अभी
कुछ दिनों पहले अमिताभ बच्चन
ने एक भावनात्मक पत्र लिखा
था,
अपनी
नातिन नव्या और पोती आराध्या
के नाम.
तब
शायद समझ नहीं पाया था कि अचानक
अमिताभ के अंदर ऐसे किस वैचारिक
दर्द ने उथल-पुथल
मचाया जिसने उन्हें ऐसा लिखने
पर विवश किया.
पर
पिंक देख समझ में आया कि वो
आंतरिक हलचल अचानक नहीं था,
निश्चित
ही फिल्म निर्माण की प्रक्रिया
और उसकी किरदार में समाये
अमिताभ ने उसकी वेदना को अपने
कलम की स्याही बना डाली होगी.
पिंक
महज एक सिनेमा नहीं है,
सोच
है उस पुरूषवादी समाज की,
जिसकी
भेदती निगाहों के बीच हर रोज
किसी लड़की को अपना रास्ता
तलाशना पड़ता है.
निर्देशक
अनिरूद्ध राय चौधरी की सोच
थियेटर में आपके अंदर पल भर
भी निश्चिंतता का भाव नहीं
पनपने देगी.
आप
हर दृश्य के साथ अपने आस-पास
की देखी घटना का मिलान करेंगे,
हर
किरदार में आपको कोई जाना-पहचाना
चेहरा नजर आयेगा और हर संवाद
आपको गहरे कचोटेगा.
पिंक
हर उस पुरूषवादी सोच को कटघरे
में खींचती है जिनके लिए
लड़कियों के कपड़े,
उसके
उठने-बैठने,
बोल-चाल
के तरीके और उसके खान-पान
उसका कैरेक्टर तय करते हों.
अफसोस
ऐसी सोच के लोग गलत के खिलाफ
महिलाओं के हक में थियेटर में
तालियां तो बजाते हैं,
पर
बाहर आते ही फिर उसी कुंठित
आवरण में खुद को समेट लेते
हैं.
कहानी
दिल्ली में जॉब करने वाली तीन
लड़कियों मीनल अरोड़ा(तापसी
पन्नू),
फलक
अली(कृति
कुल्हारी)
और
एंड्रिया (एंड्रिया
तरियांग)
की
है.
आजाद
ख्यालों वाली तीनों लड़कियां
एक रॉक कंसर्ट के दौरान राजवीर
(अंगद
बेदी)
व
उसके दोस्तों डिंपी (राहुल
टंडन)
और
विश्वा (तुषार
पांडे)
से
मिलती हैं.
डिंपी
और मीनल के क्लासमेट होने की
वजह से सब आपस में कंफर्ट फ ील
करती हैं.
सब
खाते-पीते
और मौज-मस्ती
करते हैं.
घटना
उस वक्त मोड़ लेती है जब तीनों
लड़कियों की मोडेस्टी को लड़के
खुद के लिए मौका मान बैठते
हैं.
मीनल
के इनकार के बावजूद राजवीर
उससे जबरदस्ती की क ोशिश करता
है.
और
इस क ोशिश में हुई हाथापाई में
मीनल के हाथों राजवीर के सिर
पर गहरी चोट आती है.
घटना
से घबरायी लड़कियां इस हादसे
को भूलना चाहती हैं पर बदले
की आग में राजवीर और उसके दोस्त
ऊंची रसूख का इस्तेमाल कर
उन्हें झूठे केस में फंसा देते
हैं.
सामाजिक
तौर पर भी उन्हें तिरस्कृ त
किया जाता है.
पुलिस
मीनल को अरेस्ट कर लेती है.
तब
उसी की सोसायटी में रहने वाले
बुजूर्ग वकील दीपक सहगल(अमिताभ
बच्चन)
उसका
केस अपने हाथ में लेते हैं.
क
ोर्ट रूम में लड़कों के वकील
प्रशांत(पीयुष
मिश्र)
मीनल
और उसकी सहेलियों को प्रोफेशनल
सेक्स वर्कर साबित करने की क
ोशिश करते हैं.
झूठे
गवाह और सबूतों के दम पर जीत
की उसकी इस क ोशिश से दीपक सहगल
का तजूर्बा किस हद तक लड़ाई
लड़ पाता है इसका मुजायरा आप
खुद थियेटर में करें तो बेहतर
होगा.
फिल्म
भले अपने धीमेपन या मसालों
के कम तड़का की वजह से थोड़ी
खींज दे,
पर
कहानी के पीछे की सोच थियेटर
के बाहर भी आपका पीछा नहीं
छोड़ने वाली.
तापसी
और कृति स्थिति की भयावहता
से जुझती लड़कियों के किरदार
में समा सी जाती हैं.
आश्चर्य
होता है क ाफी समय से बॉलीवूड
में होने के बावजूद हिंदी
फिल्मकार तापसी की योग्यता
का भरपूर उपयोग क्यों नहीं
कर पाये.
पीयुष
और एंड्रिया भी सराहनीय हैं.
पर
अमिताभ,
उम्र
के इस पड़ाव में अपने हर अगले
कदम से आश्चर्यचकित करते
अमिताभ वाकई शोध के विषय हैं.
उम्र
व बीमारियों से जुझने के बावजूद
लड़कियों के हक में लड़ते वकील
सहगल के किरदार की मनोदशा उनसे
बेहतर शायद ही कोई समझ पाता.
क्यों
देखें-
वाकई
अगर अपनी सोच को सकारात्मक
दिशा में बदलने की ओर कदम उठाना
चाहते हों तो एक बार जरूर देखें.
क्यों
न देखें-
पुरूषवादी
सोच की जंजीरों में गहरे जकड़ें
हों तो फिल्म आपको विचलित
करेगी.
No comments:
Post a Comment