Sunday, October 29, 2017

फिल्म समीक्षा

कंपलीट पैकेज है सीक्रेट सुपरस्टार

आजकल हिंदी सिनेमा का ट्रीटमेंट ऐसा हो चला है कि पूरी फैमिली के साथ थियेटर का रूख करना दूर की क8ौड़ी हो गयी है. ऐसे में कोई ये कहे कि फलां फिल्म पूरी फैमिली के साथ देखें तो मजा दोगूना हो जाएगा, बेमानी सा लगता है. पर बात अगर सीक्रेट सुपरस्टार की हो तो ये लाइन शत्-प्रतिशत सही बैठती है. जायरा वसीम और आमिर खान अभिनित सीक्रे ट सुपरस्टार आज के दौर में बनी ऐसी ही फिल्म है जिसे आप अकेले देखें तो वाकई मजा आयेगा पर अगर फैमिली के साथ देखें तो वही मजा दोगुना हो जाएगा. यहां स्टारकास्ट की बात करते वक्त आमिर से पहले जायरा का नाम लेना भी इसलिए यथोचित है कि फिल्म की असल स्टार वही है जिसे आमिर ने अपने क ांधे का सहारा भर दिया है. सीकेट्र सुपरस्टार हर उस यंगस्टर के लिए है जो कुछ कर गृुजरने का ख्वाब देखते हैं, पर रास्ते की बाधाओं से घबड़ाकर उस ख्वाब का गला घोंट देते हैं, यह फिल्म हर उस पैरेंट्स के लिए भी है जो अपने बच्चों के उन ख्वाबों को अपने अहं की भेंट चढ़ा देते हैं और यह फिल्म है हर उस समाज के लिए जहां आज भी लड़कियों का मतलब किसी और घर की बहू बना देने की जिम्मेदारी भी तक है.
बड़ौदा की इंसिया मलिक (जायरा वसीम) है तो स्कूल गर्ल पर उसके ख्वाब उसकी फैमिली के कद के हिसाब से काफी बड़े हैं. ख्वाब एक क ामयाब सिंगर बनने का, खुद की पहचान तय करने का. जिसकी राह का सबसे बड़ा रोड़ा उसके पिता(राज अजरुन) की रूढ़िवादी सोच है. सपोर्ट में मां नजमा (मेहर विज) है पर वो भी पिता की प्रताड़ना की बेड़ियों में जकड़ी हुई है. इंसिया की लड़ाई दो मोचरे पर है. खुद के सपनों को साकार करने के साथ ही वो मां को भी पिता के साये से मुक्त करना चाहती है. ऐसे में वो खुद को बुर्के में लपेट छद्म नाम से अपना एक सिंगिंग वीडियो तैयार करती है और उसे सोशल मीडिया पर अपलोड कर देती है. कुछ समय में ही उसका वीडियो वायरल हो जाता है जिसपर नजर पड़ती है स्ट्रगलर म्यूजिक डायरेक्टर शक्ति कुमार (आमिर खान) की. वो किसी तरह से उसकी तलाश कर उसे मुंबई लाना चाहता है. अब इंसिया के साथ उसके सपनों की दुनिया है, और चुनौतियों से लड़कर वहां तक पहुंचने का जज्बा भी. 
दंगल के बादा इंशिया के किरदार में जायरा को देखना दंगल से दो कदम आगे निकल जाने वाला अहसास देता है. इमोशनल के साथ-साथ जोश भरते दृश्यों में भी जायरा के चेहरे का भाव संप्रेशन और बॉडी लैंगवेज उसे कम उम्र में ही उम्दा अभिनेत्रियों की श्रेणी में ला खड़ा करता है. रही बात आमिर की तो उनकी अभिनय क्षमता और किरदार की डिटेलिंग पर की गयी उनकी मेहनत परदे पर ही काफी कुछ कह देती है. हर बार एक नये प्रयोग के साथ परदे पर आते आमिर ने इस बार इमोशनल कहानी वाली रेसिपी में जो ह्यूमर का तड़का लगाया है वो लाजवाब है. सहकलाकारों में राज अजरुन, मेहर के साथ-साथ बाल कलाकार तीर्थ शर्मा भी कमाल कर गये हैं. तो अगर आप आमिर की फिल्म होने के साथ-साथ सचमुच एक इंस्पायरिंग फैमिली फिल्म देखने के इच्छुक हों तो एक बार थियेटर का रूख जरूर करें.
कहानी गोल, मस्ती मालामाल
अगर आपने गोलमाल सीरिज की पिछली फिल्में देखी हैं तो ठीक, नहीं देखी हैं तो और भी ठीक. गोलमाल अगेन देखने के लिए ऐसी कोई बंदिश है भी नहीं. ठीक वैसे ही अगर आप गोलमाल अगेन को शुरू से देखें तो ठीक, अगर टुकड़ों-टुकड़ों में देखें तो भी बहुत ज्यादा फर्क नहीं पड़ेगा. इंज्वाय आप उतना ही करेंगे. अमूमन रोहित शेट्टी की हास्य फिल्मों के साथ ऐसा ही होता है. ढेर सारे चूटकूले, वन लाइनर्स, सिचुएशनल क ॉमिक और अनूभवी कलाकारों की भाव-भंगिमाएं पूरे वक्त आपको कुर्सी से उछालते रहेंगे. और गोलमाल अगेन में तो कलाकारों की फौज से वो मजा ओवरडोज में मिल जाता है. बस ख्याल रहे थियेटर में इंट्री के साथ आप दिमाग को स्लीपिंग मोड में डाल दें.
कहानी आपके चिरपरिचित गोपाल(अजय देवगन), माधव(अरशद वारसी), लकी(तुषार कपुर), लक्ष्मण 1(श्रेयस तलपड़े) और लक्ष्मण 2(कुणाल खेमु) की है.  पांचों दोस्त ऊंटी के सेठ जमनादास अनाथालय में पल-बढ़ कर शहर पहुंचे हैं. अचानक हुए सेठ जमनादास की मौत के बाद उनकी तेरहवीं में शामिल होने पांचो वापस ऊं टी जाते हैं. वहां जाने पर उन्हें पता चलता है बिल्डर वासू रेड्डी(प्रकाश राज) और उसके साथी अनाथालय और उसके आसपास की जमीन हथियाना चाहते हैं. अनाथालय के पास वाली जमीन का मालिक कर्नल चौहान (सचिन केलकर) है जिसकी बेटी की मौत भी कुछ ही दिनों पहले हुई थी. पांचों के वहां पहुंचने पर उनका सामना वहां कब्जा जमाये कुछ भूतों से भी होता है. भूतों से निबटने के लिए वो अन्ना मैथ्यू (तब्बू) का सहारा लेते हैं, जो भूत-प्रेत से बात करने में माहिर है. पांचों किस तरह बिल्डर के साथ-साथ इन भूतों वाली स्थिति का सामना करते हैं इसका मुजायरा अगर आप थियेटर में करें तो बेहतर होगा.
फिल्म अपने लंबाई की वजह से थोड़ी खलती है, जिसे एडिटिंग के जरिये दुरूस्त किया जा सकता था. कुछ गाने भी हास्य के फ्लो में खलल पैदा करते हैं. फिल्म का  हॉरर एंगल भी इतना फनी है कि आपके चेहरे पर मुस्कान ला देगा. अभिनय के लिहाज से हर कलाकार अपनी अलग पहचान का महारथी है. बात चाहे अजय, अरशद, तुषार, श्रेयस और कुणाल की हो या अन्य भुमिकाओं में प्रकाश राज, नील नितिन मुकेश, मुकेश तिवारी, जॉनी लीवर या फिर स्पेशल भूमिका में तब्बू की हो. सबकी क ॉमिक टाइमिंग और डॉयलॉग डिलीवरी का अंदाज मजेदार है. तो उम्दा कहानी वाली शर्त को परे रखकर किरदारों की बेवकुफियों, मस्ती भरी उटपटांग हरकतों और चुटीले संवादों के जरिये एक रिफ्रेशमेंट चाहते हों तो एक बार थियेटर जाने में कोई बुराई नहीं है.  

फिल्म समीक्षा

भूख को पूरी तरह मिटा नहीं पाता शेफ

पिछले काफी समय से एक हिट की बाट जोह रहे सैफ अली खान ने इस अलहदा कहानी के जरिये निर्देशक राजा कृष्णा मेनन का हाथ थामा. बारह आना और एयरलिफ्ट के बाद राजा कृष्णा ने भी अपनी तीसरी फिल्म के लिए 2014 में आयी हॉलीवूड की फिल्म शेफ से प्रेरित कहानी चुनी. पर रिश्तों के ताने-बाने बुनती फिल्म रेसिपी तो अच्छी चुनती है पर डिश बनाते वक्त मसालों का उचित मात्र नहीं मिलने से स्वाद की तृप्तता खो बैठती है. लिहाजा फिल्म पारंपरिक सिनेमा से अलग होते हुए भी संतुष्टि का पूर्ण अहसास नहीं दिला पाती. बहरहाल क8मियों के बावजूद शेफ सिरे से नकार दी जाने वाली फिल्म नहीं है. पिता-पुत्र और पति-प}ी के खूबसूरत अहसासों से सजे रिश्ते की बुनावट इसे आम फिल्म से जरूर अलग करती है.
बचपन से ही कूकिंग का शौकीन रोशन कालरा (सैफ अली खान) अपने पसंद के ही करियर का चुनाव करता है. न्यूयार्क के एक बड़े होटल में शेफ का काम करता है, और इस चक्कर में अपनी प}ी राधा (पद्मप्रिया जानकीरमण) और बेटे अरमान (स्वर) से अलग भी हो चुका है. तलाक के बाद प}ी बेटे को ले वापस केरल जा बसती है और रोशन अपनी जिंदगी में व्यस्त हो जाता है. कहानी तब मोड़ लेती है जब एक दिन एक कस्टमर को पंच मारने के आरोप में रोशन नौकरी से बाहर कर दिया जाता है. इस दौरान अकेला पड़ चुका रोशन अपनी बिखरी जिंदगी संवारने के गरज से वापस प}ी और बेटे की जिंदगी में दाखिल होता है. दोनों के साथ वक्त बिताकर रोशन को रिश्ते और भावनाओं की नयी परिभाषा समझ आती है. इस दौरान प}ी उसे मजबूती के साथ भावनात्मक सहारा देती हुई जिंदगी नये सिरे से शुरू करने की सलाह देती है. फैमिली का साथ पा रौशन एक बार फिर उठ खड़ा होता है और खुद का फूड ट्रक का बिजनेस शुरू करता है.
क ागजों पर प्रभावशाली और हृदयस्पर्शी दिख रही कहानी परदे की बुनावट में भटकती जान पड़ती है. कलाकारों के उम्दा अभिनय के बावजूद रिश्तों की गर्माहट अपील तो करती है पर दिल तक नहीं पहुंच पाती. क्लाइमैक्स की कमजोरी भी सिनेमा को उम्दा बनाने की राह में आड़े आती है. दूसरी ओर आम सिनेमा के लटकों-झटकों से इतर कई बार एकरसता का अहसास भी कराती है. अभिनय के लिहाज से सैफ ऐसी फिल्मों के माहिर बन चुके हैं. पहले भी सलाम नमस्ते और हम-तुम जैसी फिल्मों में वो ऐसी कोशिश कर चुके हैं. राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित पद्मप्रिया भी अपने किरदार में आकर्षित करती हैं. पर आश्चर्यचकित करते हैं तो बेटे के किरदार में स्वर क ांबले. कम उम्र में ही चेहरे का उम्दा भावसंप्रेषण सूखद अहसास देता है. सहयोगी भुमिकाओं में चंदन रॉय सान्याल, मिलिंद सोमण और दानिश क ार्तिक भी सराहनीय हैं. 
क्यों देखें- भागदौड़ भरी जिंदगी में पीछे छूट चुके रिश्तों की गर्माहट महसूस करना चाहते हों तो एक बार देख सकते हैं
क्यों न देखें- किसी उम्दा कहानी की उम्मीद में हों तो निराशा होगी.

फिल्म समीक्षा

संजय की कमबैक फिल्म भर है भूमि

मैरीकॉम और सरबजीत जैसी बायोपिक बनाने के बाद निर्देशक ओमंग कुमार इस बार पिता-पुत्री की कहानी भूमि लेकर आये हैं. लेकिन बायोपिक ट्रैक से हटकर बनी को ओमंग की फिल्म न कहकर संजय दत्त की कमबैक फिल्म कहें तो गलत नहीं होगा. जेल से बाहर आने के बाद संजय दत्त ने तमाम निर्देशकों के ऑफर को दरकिनार कर ओमंग की भूमि से वापसी की राह चुनी. और प्रेडिक्टेबल कहानी को दरकिनार कर दें तो अभिनय के लिहाज से संजय की पसंद को बूरा नहीं कहा जा सकता. पिता-पुत्री के रिश्ते और पुत्री के साथ हुए अन्याय का बदला लेने की यह कहानी भले कुछ हटकर न हो पर इसमें संजय के किरदार से उनके फैंस निश्चित रूप से निराश नहीं होंगे. वैसे इस तरह की थीम पर इसी साल श्रीदेवी की मॉम और रवीना की मातृ आ चुकी है, और संजय भी इसी थीम से मिलती-जुलती फिल्म पिता में पहले भी काम कर चुके हैं.
बहरहाल कहानी अरूण सचदेव (संजय दत्त) और उसकी बेटी भूमि(अदिति राव हैदरी) की है. अरूण की अपनी हैंडमेड जूतों की फैक्ट्री है. पिता-पुत्री के रिश्ते भावनात्मकता के साथ-साथ काफी दोस्ताना भी हैं. भूमि नीरज (सिद्धांत गुप्ता) से प्यार करती है. दोनों की शादी भी तय हो जाती है. पर उनकी जिंदगी में भुचाल तब आता है जब शादी से ठीक एक रोज पहले धौली और उसके गुंडे मिलकर भूमि का रेप कर देते हैं. बारात दरवाजे से लौट जाती है. न्याय की उम्मीद में अरूण और भूमि पुलिस स्टेशन से क ोर्ट तक के चक्कर लगा आते हैं, पर निराशा हाथ लगती है. और तब अरूण खुद अपनी बेटी के साथ हुए अन्याय का बदला लेने निकल पड़ता है.
कहानी काफी प्रेडिक्टेबल होने के बावजूद संजय दत्त और अदिति के लिए देखी जा सकती है. उम्र के लिहाज से मिले किरदार को आत्मसात करने में संजय की मेहनत साफ झलकती है. असल जिंदगी में खुद एक फिक्रमंद पिता होने की वजह से भी उन्हें इस किरदार के दर्द और वेदना का अहसास बखूबी हुआ होगा. बेटी की भुमिका में अदित और उनकी बांडिंग भी तारीफ योग्य है. स्क्रीन पर अपनी हर प्रेजेंस से सशक्तता जाहिर करने वाले संजय को अदिति की ओर से भी अच्छी चुनौती मिली है. कमाल तो शरद केलकर भी कर जाते हैं. धौली के नकारात्मक किरदार में शरद मजबूत उपस्थिति दर्शाते हैं. संजय दत्त के दोस्त की भुमिका में शेखर सुमन की भुमिका बस ठीकठाक ही रही. गीत-संगीत की बात करें तो वह औसत से आगे नहीं जा पाती. सनी लियोनी का आयटम नंबर भी कहानी के बीच में ब्रेकर का ही काम करता है.
क्यों देखें- संजय दत्त की दीवानगी ही आपको थियेटर में बांधे रह सकती है.
क्यों न देखें- पूर्वानुमानित कहानी से निराशा ही हाथ लगने वाली है.
न्यूटन से बदलेगी पारंपरिक सिनेमा की धारा
परदे पर राजकुमार राव की उपस्थिति भी कमोबेश नवाजुद्दीन सिद्दिकी सरीखी हो चली है. मतलब उनकी हर उपस्थिति आपको अंदर तक मंत्रमुग्ध कर देने वाली. और सबसे खास बात उनकी हर आने वाली फिल्म में अलग कहानी और उस कहानी में उनका अलहदा किरदार. ट्रैप्ड, बहन होगी तेरी और बरेली की बरफी के बाद राजकुमार राव की यह इस साल आने वाली चौथी फिल्म है. दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र भारत के सबसे बड़े महोत्सव आम चुनाव को केंद्र में रखकर गढ़ी गयी यह फिल्म राजनैतिक और सामाजिक खामियों की परतें उधेड़ती है. फिल्म पहले ही देश-विदेश के कई फिल्म फेस्टिवल्स में झंडे गाढ़ने के साथ बर्लिन फिल्म महोत्सव में अवार्ड भी जीत चुकी है. श्याम बेनेगल, गोविंद निहलानी सरीखे फिल्मकारों की कम सक्रियता और प्रकाश झा के कमर्शियल सिनेमा की ओर झुकाव की वजह से समांतर सिनेमा का जो दौर थम सा गया था, न्यूटन उस दौर को आगे ले जाने वाली फिल्म सरीखी है.
न्यूटन (राजकुमार राव) आज के दौर में भी आदर्शवादिता के लिबास में लिपटा युवा है. बचपन में अपने नाम नूतन से परेशान होकर उसने खुद अपना नाम बदल लिया. नू को न्यू और तन को टन करके खुद को न्यूटन बना लिया. उसके लिए किताब की बातें ब्रह्मा की लकीर सरीखी हैं. सरकारी नौकरी में रहते हुए आदर्श का ऐसा पक्का कि शादी से सिर्फ इस बात से इनकार कर देता है कि लड़की की उम्र 18 से कम है. ऐसे ही एक बार न्यूटन को चुनावी डय़ूटी में छत्तीसगढ़ के एक इलाके में जाना पड़ता है जिसकी कुल आबादी महज 76 है. वहां के आदिवासियों को चुनाव से कोई सरोकार नहीं है. उसपर नक्सलियों का दबाव पुलिस बल को भी निष्क्रिय कर चुका है. ऐसे में न्यूटन इस इलाके में चुनाव कराने की जिम्मेदारी अपने ऊपर ओढ़ लेता है. उसकी चुनावी टीम में टीचर माल्को (अंजलि पाटिल) भी शामिल है. न्यूटन चुनावी उदासीनता के शिकार पुलिस अधिकारी आत्मा सिंह (पंकज त्रिपाठी) को भी बहस के जरिये साध लेता है. फिर शुरू होता है एक जद्दोजहद भरा सफर जिसमें चुनाव प्रणाली, सरकारी तंत्र और सुरक्षा बलों की खामियां परत दर परत उधेड़ती जाती हैं.
फिल्म सुलेमानी क ीड़ा के बाद निर्देशक अमित मसुरकर ने एक बार फिर लीक से हटकर कहानी का चुनाव करते हुए खुद को साबित किया है. राजकुमार राव, पंकज त्रिपाठी, रघुवीर यादव और अंजलि के उम्दा अभिनय के दम पर अमित हिंदी सिनेमा के प्रति एक खास उम्मीद जगाते हैं. उम्मीद भेड़चाल से हटकर नयी सोच में सनी सिनेमा बनाने की, उम्मीद यथार्थवादी सिनेमा को मनोरंजक तरीके से परोस दर्शकों को एक अलग स्वाद चखाने की.


फिल्म समीक्षा

टाइमपास से ज्यादा नहीं पोस्टर ब्वायज

अपनी ही सूपरहिट मराठी फिल्म के हिंदी रीमेक के साथ श्रेयस तलपड़े ने बॉलीवूड में अपने निर्देशकीय पारी की शुरुआत की है. नये विषय पर बनी फिल्म के हिंदी रीमेक के लिए श्रेयस ने सन्नी देओल और बॉबी देओल को फिल्म में लिया है. लंबे अरसे के बाद फिल्मों में वापसी कर रहे सन्नी और बॉबी के साथ श्रेयस अभिनय के लिहाज से तो पूरे फ ार्म में दिखे हैं पर कहानी की कमजोरी की वजह से टूकड़ों-टूकड़ों में हंसाती फिल्म औसत होकर रह गयी है.
कहानी जमघेटी गांव में रहने वाले रिटायर्ड अफसर जगावर चौधरी (सन्नी देओल), हिंदी विषय के स्कूल मास्टर विनय शर्मा (बॉबी देओल) और क्रेडिट कार्ड कंपनी की वसूली करने वाले अर्जून सिंह (श्रेयस तलपड़े) की है. कहानी में मजेदार मोड़ तब आता है जब सरकार के नसबंदी वाले अभियान के पोस्टर में गलती से इन तीनों की तस्वीर छप जाती है. पोस्टर पर तस्वीर छपने की वजह से तीनों गांव वालों के लिए हंसी का पात्र बन जाते हैं. गांव वालों की नजर में तीनों मर्दाना कमजोरियों के शिकार बन जाते हैं. सोशल लाइफ के साथ-साथ तीनों की पर्सनल लाइफ में भी उथल-पुथल मच जाता है. इस घटना के बाद जहां जगावर की वाइफ उसे छोड़ कर चली जाती है, वहीं विनय की तय शादी टूट जाती है. इन घटनाओं से तंग आकर तीनों इस बात की तफ्तीश में जूट जाते हैं कि आखिर उनकी तस्वीर पोस्टर पर किसकी गलती से आयी और साथ ही सरकार के खिलाफ केस करने की ठान लेते हैं. इस कोशिश में प्रशासन, समाज के साथ-साथ कई सरकारी विसंगतियों का भी खुलासा होता है.
फिल्म क ी कमजोर कहानी के बावजूद संवादों का चुटीलापन, कई सारे वन लाइनर्स और कई घटनाक्रम हैं जो आपको रह-रहकर हंसाते हैं. फिल्म के एक किरदार बलवंत को बार-बार पीछे से किसी का बलवंत राय के कुत्ते कहकर पुकारने का दृश्य हो या बॉबी देओल के किरदार के मोबाइल रिंग टोन में बार-बार सोल्जर-सोल्जर गाने का बजना जैसे कई दृश्य आपके चेहरे पर मुस्कान ला देंगे.
अभिनय की बात करें तो लंबे गैप के बाद परदे पर दिखे सन्नी एक्शन वाले अपने कंफर्ट जोन से बाहर निकलकर एक नये आयाम के साथ सामने आते हैं. इस अंदाज में वो खासे सफल भी रहे हैं, पर उम्र अब उनकी शारीरिक बनावट पर हावी होती दिखने लगी है. बॉबी देओल और श्रेयस तलपड़े तो पहले भी क ॉमिक अंदाज में नजर आ चुके हैं. गाने और बैकग्राउंड स्कोर औसत ही हैं जो प्रभाव छोड़ पाने में असफल रहे हैं. कुल मिलाकर कहें तो अगर आप फ्री हैं और सन्नी-बॉबी के फैन हैं तो कमजोर कहानी के बावजूद नये विषय को क ॉमिक अंदाज में परोसती पोस्टर ब्वॉयज के लिए एक बार थियेटर का रूख कर सकते हैं. वरना कुछ महीनों बाद टीवी पर आने का इंतजार भी बूरा नहीं रहेगा.


बातचीत: टीवी एक्ट्रेस नेहिका सिंह राजपूत

जज्बे से कामयाबी की राह गढ़ती बिहारी अभिनेत्री

कहते हैं प्रतिभा किसी सुविधा या क्षेत्र की मूंहताज नहीं होती. छोटे शहरों की प्रतिभाएं भी देर-सवेर अपना रास्ता तलाश ही लेती है. ऐसी ही प्रतिभा की धनी हैं बिहार के मोतिहारी जैसी छोटी शहर में पली बढ़ी टीवी एक्ट्रेस नेहिका सिंह राजपूत. बहू हमारी रजनीकांत, देवांशी, उड़ान और ये हैं मोहब्बते जैसी दर्जनों सीरियल कर चुकी नेहिका एमबीबीएस में सेलेक्शन नहीं हो पाने की वजह से एमबीए की पढ़ाई की. और फिर कुछ साल जॉब करने के बाद नौकरी छोड़ राह पकड़ ली बचपन के ख्वाब पूरा करने के लिए सपनों की नगरी मुंबई की. प्रभात खबर के गौरव से खास बातचीत में नेहिका ने अपने इसी सघर्ष और कामयाबी के सफर को बेबाकी से साझा किया.

ग्यारह महीने के सफर में लगभग दर्जनभर से ज्यादा टीवी शोज, एक मराठी फिल्म और राजकुमार हिरानी की आने वाली संजय दत्त की बायोपिक फिल्म का हिस्सा. इस कामयाबी की बात चलने पर नेहिका की आवाज में एक स्वाभाविक खनक उभर आती है. राइटिंग, सिंगिंग, कुकिंग और एक्टिंग जैसी बहुमुखी प्रतिभा की धनी नेहिका अपनी सफलता का श्रेय खुद की मेहनत और आत्मविश्वास के साथ-साथ अपने माता-पिता को भी देती हैं जिनके भरोसे की वजह से आज वो इस मुकाम पर हैं.

-सबसे पहले तो अपने बारे में बताएं?
- मेरे पुश्तैनी गांव विक्रमगंज हैं. पर अब वहां कोई भी नहीं रहता. मेरी पैदाइश पटना की है. पर मेरे जन्म के बाद पिताजी का ट्रांसफर मोतिहारी शहर में हो गया. मां-पिताजी दोनों प्रोफेसर हैं. मेरी परवरिश और शिक्षा-दीक्षा मोतिहारी में ही हुई. आगे चलकर मेडिकल की तैयारी के लिए दिल्ली आ गयी. मेडिकल के लिए सेलेक्शन नहीं होने की वजह से मैंने देहरादून से एमबीए की पढ़ाई की. फिर दिल्ली एचडीएफसी में बतौर एचआर मैनेजर ज्वाइन किया. पर कुछ समय बाद ही मेरे बचपन के ख्वाब (अभिनय) ने मुङो मुंबई की राह पकड़ा दी.
- मेडिकल, एमबीए के बाद एक्टिंग की फील्ड में रुझान. इसके पीछे की कहानी क्या है?
- ये रुझान बचपन से था. नर्सरी क्लास से ही मैंने स्टेज डांसिंग और सिंगिंग में पार्टिसिपेट करना शुरू कर दिया था. पर हमारी ओर अमूमन पैरेंट्स इस तरह की एक्टिविटीज को लेकर हमेशा सशंकित रहते हैं वैसे ही मेरी मां भी थोड़ा इनसिक्योर फ ील करती थी. पर पापा को पूरा भरोसा था. सो पढ़ाई के साथ-साथ ये सब एक्टिविटीज भी जारी रही. आगे जाकर जैसे ही मौका लगा मैंने अपने सपने के पीछे यहां चली आयी.
- दिल्ली से मुंबई तक का सफर कैसा रहा?
- दिल्ली रहने के दौरान ही महुआ चैनल के रियल्टिी शोज, मास्टर शेफ के सीजन थ्री एंड फ ोर और जी सिने स्टार की खोज में पार्टिसिपेट किया था. उसी दौरान मैं ऑल इंडिया ोगन क ॉन्टेस्ट की विनर भी रही. फिर मुंबई आने के बाद चार महीने के अंदर ही मुङो एक मराठी फिल्म मिल गयी. पर हिंदी फिल्म मिलने में मुङो एक साल लग गये. इस दौरान संघर्ष जारी रहा और लगभग दर्जन से ज्यादा टीवी शोज में छोटे-बड़े रोल मिलते रहे. इस बीच कई शोज के लिए राइटिंग का काम भी किया. पर इतने क ामयाब शोज के बाद आज भी वो संघर्ष और यात्र अनवरत जारी है.
- करियर के लिहाज से टीवी और सिनेमा में किसे प्राथमिकता देना चाहेंगी?
- देखिये मैं सोचकर तो यही आयी थी कि बस टीवी और एड फिल्में ही क रूंगी. क्योंकि सिनेमा के खांचे में मैं खुद को कहीं न कहीं अनफिट मानती हूं. अभिनय के लिहाज से नहीं, बल्कि आज के सिनेमा के समझौते, अंग प्रदर्शन और गुम हो जाने वाली भुमिकाओं के बजाय मैं टीवी में काम कर घर-घर देखा जाना पसंद क रूंगी. हां अगर फिल्मों में मुङो जहां कंफर्टटेबिलीटी और बगैर कंप्रोमाइज वाले किरदार मिलेंगे तो जरूर क रूंगी.
- अभिनय के अलावा और क्या पसंद है?
- अभिनय के अलावा राइटिंग पसंद है. मैंने टीवी शोज के अलावा जिमा अवार्ड्स के लिए राइटिंग की है. कुकिंग इंज्वाय करती हूं. मास्टर शेफ के दो सीजन में भाग भी लिया है. डांसिंग और म्यूजिकल इंस्ट्रूमेंट्स की भी ट्रेनिंग ली है. स्पोर्स में भी इंटरेस्ट है. एक तरह से कह सकते हैं क्रियेटिविटी के कई सारे फ ील्ड्स को मैं न केवल इंज्वाय करती हूं बल्कि उन्हें प्रोफेशनली एडॉप्ट भी कर रखा है. और इन सब का श्रेय मैं अपने पैरेंट्स को देती हूं जो खुद इन एक्टिविटीज में निपूण रहे हैं.
- अभिनय के संघर्ष में काफी सारी चीजें पीछे छूट जाती हैं. क्या कुछ मिस करती हैं आप?
- सही कहा आपने कि एज एन एक्टर आपको कई सारे समझौते करने पड़ते हैं. दूर से यह काफी आकर्षित करता है पर इस फील्ड में आने के बाद मुङो भी अपनी पसंद की कई चीजें छोड़नी पड़ी. पहले जहां मैं फास्ट फूड की दीवानी थी अब हेल्थ कांसस और फिगर मेंटेनेंस के लिए उन सब चीजों को भूलना पड़ा. पहले कभी एक्सरसाइज की सोच भी नहीं पाती थी, वहीं जिम जाना अब पेशे की मांग हो गयी है. आलू-चावल जो मेरा फेवरेट था, महीनों से उसे चखा तक नहीं. ऐसी कई सारी चीजें हैं जो काम की वजह से छोड़नी पड़ी.
- आखिर में इस फील्ड में संघर्ष करने वालों को क्या एडवाइस देना चाहेंगी?
- खुद को कम मत आंकिए. क्योंकि हर इंसान के लिए यहां कोई न कोई किरदार तय है. बस आपमें वो डेडिकेशन होना चाहिए. इसे मैं अपनी लिखी चंद लाइनों से समझाना चाहूंगी.
- थी मेरी एक कल्पना मैं मुंबई आऊं/ था मेरा एक सपना कुछ कर दिखाऊं
मैं मुंबई आयी/ मैंने शुरू की परफार्मेंस की लड़ाई
कुछ लोगों ने अपना बनाया/ आसमां की बुलंदी पर चढ़ाया
कुछ ऐसे भी मिले जिन्होंने मजाक उड़ाया
मैंने भी सोच लिया/ चाहे जितनी हो खिंचाई/पूरी करूंगी परफामेर्ंस की लड़ाई/ यही है मेरी जिंदगी की सच्चई.



फिल्म समीक्षा

औसत से आगे नहीं जा पाती बादशाहो

डायरेक्टर मिलन लुथरिया और अजय देवगन का साथ कच्चे धागे(1999) से चला आ रहा है. दोनों ने मिलकर सिंगल स्क्रीन थियेटर के दर्शकों का जमकर मनोरंजन किया है. चोरी-चोरी, वंस अपॉन अ टाइम इन मुंबई के बाद बादशाहो इस जोड़ी की चौथी फिल्म है. पर इस बार मिलन पटकथा और कहानी की बुनावट के स्तर पर पटरी से फिसलते नजर आते हैं. बादशाहो इमरजेंसी के दौर की कहानी पर आधारित ऐसी फिल्म है जो आज के वक्त में भी सिंगल स्क्रीन थियेटर वाली फ ीलिंग्स पिरोकर ही बनायी गयी लगती है. फिल्म भले छोटे सेंटरों पर दर्शकों को लुभा दे पर मल्टीप्लेक्स दर्शकों को खींच पाने के लिए इसे खासी मशक्कत करनी पड़ेगी. खासकर आज के युवा वर्ग को. मिलन लुथरिया की ढीली कहानी अजय देवगन के साथ-साथ एक बड़ी स्टारकास्ट की भीड़ के बावजूद फिल्म को औसत से आगे नहीं जाने देती.
कहानी इमरजेंसी के उस दौर की है जब सरकार ने देश के तमाम राजवाड़ाओं की संपत्ति की रेकी शुरू कर दी थी. सरकार के पास जिन राजवाड़ों के संपत्तियों का ब्यौरा नहीं होता वो उन्हें जब्त कर सरकारी खजाने में जमा करवा ले रही थी. ऐसे वक्त में एक पॉलिटिशियन की नजर जयपुर की महारानी गीतांजली (इलियाना डिक्रुज) पर पड़ती है. वो उसे पाना चाहता है, पर गीतांजली उसे बिलकुल पसंद नहीं करती. ऐसे में पॉलिटिशियन इमरजेंसी का फायदा उठाकर गीतांजली को फंसाने के ख्याल से महारानी के खजाने को जप्त करवाने का षड्य़ंत्र करता है. क्योंकि महारानी ने सरकार की जानकारी के बिना खजाना महल में रखा था. खजाने को दिल्ली तक ले जाने का जिम्मा पुलिस अधिकारी सहर(विद्युत जामवाल) को दिया जाता है. उधर अपने खजाने को बचाने के लिए महारानी अपने खास भवानी सिंह (अजय देवगन) की मदद लेती है. भवानी और गीतांजली एक दूसरे को पसंद करते हैं. ऐसे में भवानी अपने साथियों दलिया (इमरान हाशमी), तिकला (संजय मिश्र)और संजना (ईशा गुप्ता) के साथ रास्ते में ही खजाना लूटने का प्लान बनाता है. प्यार, नफरत, षड्यंत्र और बदले की भावना पर बनी इस फिल्म का क्लाइमैक्स जरूरत से ज्यादा फिल्मी होने की वजह से थोड़ी खींज भी देता है.
पिछले महीने ही मधुर भंडारकर की इमरजेंसी पर बनी फिल्म इंदू सरकार के बूरे हश्र के बाद इस फिल्म से दर्शकों और समीक्षकों की उम्मीदे कुछ ज्यादा बढ़ गयी थी. फिल्म के ट्रेलर ने उन उम्मीदों को और बढ़ाने का ही काम किया था. पर कहानी का झोल और किरदारों की आधी-अधूरी डिटेलिंग की वजह से थियेटर में दर्शक उन सारी उम्मीदों पर पानी फिरा पाते हैं. फिल्म शुरूआत में इमरजेंसी के वक्त इंदिरा के दृश्यों के साथ एक संजीदे विषय का भान देती है जो हाफ टाइम तक कुछ हद तक बना रहता है. पर इंटरवल के बाद एक बार जब फिल्म पटरी से उतरती है तो फिर संभल नहीं पाती. हालांकि अभिनय के स्तर पर अजय देवगन, इमरान हाशमी, संजय मिश्र और ईशा गुप्ता ने संजीदगी के साथ पटकथा की इस कमी को पाटने का भरसक प्रयास किया पर अंत में उनका उम्दा अभिनय भी इस कमजोरी की भेंट चढ़ जाता है. फिल्म के गाने जरूर सूनने लायक बन पड़े हैं. रश्के कमर गाना तो पहले ही दर्शकों की पसंद बन चुका है. हां फिल्म की एक खासियत सुनीता राडिया क ी सिनेमेटोग्राफी है. दृश्यों का संयोजन और फिल्मांकन क ाबिले तारीफ है.
क्यों देखें- अगर आप अजय देवगन, इमरान हाशमी या इलियाना के डाय हार्ड फैन हैं तो फिल्म देख सकते हैं.
क्यों न देखें- इमरजेंसी जैसे संजीदा विषय को सोचकर उम्दा कहानी तलाशेंगे तो निराशा हाथ लगेगी.
वजिर्त मुद्दे को खूबसूरत अंदाज में परोसती है शुभ मंगल सावधान
2013 में आर. एस. प्रसन्ना की तमिल फिल्म कल्याण समायल साधम् आयी थी. अपने अनूठे विषय के कारण फिल्म खासी सफल रही थी. आनंद एल रॉय ने जब इसके हिंदी रिमेक की बात सोची तो उन्होंने इसके निर्देशन की जिम्मेदारी भी प्रसन्ना को ही सौंप दी. प्रसन्ना ने भी मुल कहानी से छेड़छाड़ न करते हुए इसे हिंदी पट्टी के लिहाज से मनोरंजक बना दिया. विक्की डोनर के साथ हिंदी सिनेमा की सबसे बड़ी उपलब्धि ये रही कि अब हिंदी सिनेमा अपनी वजर्नाएं तोड़ने लगा है. बनी-बनायी लकीरों से बाहर निकल यह अब उन मुद्दों को भी कहानी में पिरोने लगा है जो सदियों से समाज में वजिर्त रही है. घर-परिवार-दोस्तों में ऐसे मुदद्े कभी चर्चा में भी शामिल नहीं हो पाये. शुभ मंगल सावधान भी ऐसे ही एक वजिर्त विषय को क ॉमिक अंदाज में खूबसूरती के साथ बयां करती फिल्म है. मर्दाना कमजोरी (मेल सेक्सूअल प्राब्लम) को केंद्र में रखकर आयुष्मान खुराना और भूमि पेडनेकर के अभिनय से सजी छोटे बजट की यह फिल्म कहानी और ट्रीटमेंट की वजह से आने वाले वक्त में निश्चय ही समाज में ऐसे विषय पर खुलकर बात करने का मौका देगी. विक्की डोनर जैसी फिल्म पहले ही इसका संकेत दे चुकी है.
दिल्ली की पृष्ठभूमि पर आधारित कहानी मुदित (आयुष्मान खुराना) और सुगंधा (भूमि पेडनेकर) की सगाई से शुरू होती है. सगाई और शादी के बीच के वक्त में ही मुदित को यह अहसास हो जाता है कि फिजीकली वो सुगंधा को खुश नहीं रख पायेगा. इस वजह से वो सुगंधा को खुद से दूर करने की कोशिश भी करता है. पर सुगंधा इसके लिए तैयार नहीं होती. पर जब इस बात का पता सुगंधा के पैरेंट्स को चलता है वो इस शादी के विरोध में उठ खड़े होते हैं. ऐसे वक्त में मुदित को सुगंधा का साथ मिलता है और फिर शुरू होता है इस समस्या के समाधान में घटते नाटकीय घटनाक्रमों का दौर.
शुभ मंगल सावधान अपने ठेठ मिजाज और उम्दा अभिनय की वजह से भी देखे जाने लायक है. आयुष्मान अपनी हर फिल्म से एक नयी उम्मीद जगा जाते हैं. देसी मिजाज की ऐसी फिल्मों के वो एक्सपर्ट बन चुके हैं. टॉयलेट एक प्रेमकथा के बाद भूमि पेडनेकर का अंदाज भी भाता है. दिल्ली की लड़की के किरदार में बॉडी लैंग्वेज और संवाद अदायगी को उन्होंने बखूबी पकड़ा है. दम लगा के हईशा के बाद आयुष्मान-भूमि की जोड़ी आकर्षित करती है. अन्य भुमिकाओं में बृजेन्द्र क ाला और सीमा पाहवा उल्लेखनीय हैं.
फिल्म फस्र्ट हाफ तक गुदगुदाते संवादों और हास्यात्मक घटनाओं की वजह से खूब हंसाती है, वहीं दूसरे हाफ में मुद्दे को गंभीरता के साथ ट्रीट करती नजर आती है. गाने भी कहानी को जरूरी गति देते हैं. कुल मिलाकर कहें तो एक जरूरी मुद्दे को हल्के-फुल्के अंदाज में बहस लायक मुद्दा बनाती फिल्म एक बार थियेटर में जरूर देखे जाने लायक है.




फिल्म समीक्षा

पटकथा की कमजोरी का शिकार हुई फिल्म

निर्देशक कुशान नंदी की फिल्म बाबूमोशाय बंदूकबाज पिछले कुछ महीनों से अपने ट्रेलर की वजह से खासी चर्चा बटोर रही थी. फिल्म उस वक्त भी लाइमलाइट में आ गयी जब सेंसर बोर्ड ने इसमें अड़तालीस कट्स लगाने का निर्देश जारी किया था. पर ये सारी क्यूरिसिटी थियेटर के अंदर फिल्म के कमजोर पटकथा की भेंट चढ़ गयी. नवाजुद्दीन सिद्दीकी और बिदिता बाग जैसे उम्दा कलाकारों की अदाकारी भी फिल्म को औसत से आगे नहीं ले जा पाती. फिल्म कई जगहों पर आपको अनुराग कश्यप स्टाइल के सिनेमा की फ ीलिंग भी देती है. 
कहानी कांन्ट्रेक्ट किलर बाबू (नवाजुद्दीन सिद्दीकी) की है जो दस साल की उम्र से ही मर्डर करता आ रहा है. पैसों के लिए वो पोलिटिकल किलिंग से भी परहेज नहीं करता. ऐसे ही एक क ांट्रेक्ट के दौरान उसकी मुलाकात फुलवा (बिदिता बाग) से होती है और बाबू उसे दिल दे बैठता है. कहानी में ट्विस्ट तब आता है जब क ांट्रेक्ट किलिंग के इस धंधे में इंट्री होती है बांके (जतिन गोस्वामी) की. बांके बचपन से बाबू का फैन रहा है और उसे ही गुरू मानकर इस धंधे में उतरा है. कुछ दिन तक सब ठीक चलता है पर एक दिन दोनों को एक ही आदमी को मारने का क ान्ट्रेक्ट मिल जाता है. दोनों के बीच ठन जाती है. दोनों शर्त लगाते हैं जो भी उसके ज्यादा आदमी को मारेगा वही सबसे बड़ा किलर होगा. इस खेल में बाबू को आगे बढ़ता देख बांके आखिर में उसे ही गोली मार देता है और खुद शहर को सबसे बड़ा सुपारी किलर बन बैठता है. पर कहानी में एक और दिलचस्प मोड़ तब आता है जब कुछ सालों बाद बाबू फिर जिंदा लौट आता है. अपना प्यार और दौलत सबकुछ खो चुका बाबू बदले की राह पर चल पड़ता है. पर इस राह में उसका सामना कुछ ऐसी सच्चइयों से होता है कि वो खुद अचंभित रह जाता है.
प्यार और बदले की इस घिसी-पिटी कहानी के बीच अगर कुछ अच्छा है तो वो है बाबू के किरदार में नवाजुद्दीन को देखना. किरदार की बारिकियां पकड़ उसे अलहदा तरीके से उकेरने में नवाज का कोई सानी नहीं. फुलवा के किरदार में बिदिता की क ाबिलियत भी हिंदी सिनेमा में बेहतर भविष्य का इशारा करती है. सह कलाकारों में जतिन गोस्वामी, दिव्या दत्ता और मुरली शर्मा भी सराहनीय हैं. हां फिल्म में कुछ और बात जो ज्यादा खलती है तो वो है हिंसा और क ामूक दृश्यों का अतिरेक. फिल्म इनके बगैर भी पूरे प्रभाव से अपनी बात कह सकती थी. 
क्यों देखें- नवाजुद्दीन सिद्दीकी की बेहतरीन अदाकारी की एक और बानगी देखनी हो तो देख सकते हैं.
क्यों न देखें- बेहतर कहानी से सजी फिल्म देखने की चाहत हो तो थियेटर से दूर ही रहना बेहतर है.

फिल्म समीक्षा

बरेली की बरफी: नहीं खाएंगे तो पछताएंगे

शहरी भागदौड़ में भूल चुके छोटे-छोटे खुशियों के पल फिर से इंज्वाय करना चाहते हों तो बरेली की बरफी आपके लिए है. कहानी खास भले न हो पर कहानी कहने का अंदाज और परिवेश के लिहाज से चुटीले संवाद आपको थियेटर में उछलने पर मजबूर कर देंगे. नील बटे सन्नाटा से अपनी अच्छी फिल्म का रसास्वादन कराने वाली निर्देशक अश्विनी अय्यर तिवारी ने बरेली की बरफी के जरिये उस स्वाद को दोगुना मीठा बना दिया है. यूपी की बरेली के छोटे जगह पर आधारित कहानी में आंचलिकता के वो सारे पूट हैं जो किसी कहानी को मुकम्मल सिनेमा बनाने के लिए जरूरी होते हैं. और साथ में पंकज त्रिपाठी, सीमा पाहवा, आयुष्मान खुराना, राजकुमार राव और कृति सेनन की दमदार अदाकारी इस बरफी पर चांदी के वर्क का काम करती है. इस कहानी में आपको छोटे शहर का वो लड़का दिखेगा जो प्यार पाने के लिए सही-गलत सारे हथकंडे अपनाता है. जुगत भिड़ाता है और जो दिल टूट जाने पर फूट-फूट कर रोता-चिल्लाता है. ऐसी लड़की दिखेगी जो जिसमें वो सारे लक्षण हैं जो सामाजिक ढांचों में उसे शादी के लिए अयोग्य करार देते हैं. पर खुद में मस्त वो लड़की इन सबसे बेफिक्र पिता के साथ सिगरेट पीती है, रात में बाहर घूमती है, शराब पीती है और इन सबके बावजूद खुद पर फक्र करती है. एक ऐसा बाप दिखेगा जिसे अपनी बेटी की इस आजादख्याली पर नाज है, एक ऐसी मां दिखेगी जिसे हर कुंवारे लड़के में अपना होने वाला दामाद दिखता है. और ये सारे किरदार आपको अपने आस-पास की जिंदगी से जुड़े लगेंगे.
कहानी बरेली के मिश्रा फैमिली (पंकज त्रिपाठी- सीमा पाहवा) के इर्द गिर्द घूमती है. बेटी बिट्टी मिश्रा (कृति सेनन) मस्त ख्यालात की लड़की है. उसे लड़के और लड़कियों के बीच समाज के बनाये फर्क से नफरत है. अपनी शादी की चिंता में मां को घुलता देख बिट्टी एक दिन घर छोड़ने का फैसला ले लेती है. पर स्टेशन पर उसके हाथ बरेली की बरफी नाम की ऐसी किताब लगती है जिससे उसे लगता है ये बिलकुल उसी की कहानी है. और कोई है जो उसे बेहद करीब से जानता है. वो वापस घर लौट आती है और किताब के लेखक प्रीतम विद्रोही (राजकुमार राव) की तलाश करने लगती है. इस कोशिश में वो प्रिटिंग प्रेस के मालिक चिराग दुबे (आयुष्मान खुराना) की मदद लेती है. पर कहानी में एक अन्य ट्विस्ट भी है. प्रेम में हारे चिराग ने प्रेमिका के गम में खुद ही बरेली की बरफी लिखी थी. पर प्रेमिका की बदनामी के डर से किताब प्रीतम विद्रोही के नाम से प्रकाशित करवा दी थी. अब उसके सामने दुविधा ये है कि बिट्टी को कैसे बताए कि वो ही किताब का राइटर है.
कहानी काफी प्रेडिक्टेबल होने के बावजूद पूरे समय रफ्तार में रहती है. फिल्म का सबसे मजबूत पक्ष इसके कलाकारों का अभिनय है. पंकज त्रिपाठी और सीमा पाहवा की केमिस्ट्री फिल्म की जान है. पंकज त्रिपाठी तो फिल्म दर फिल्म अभिनय के नये आयाम गढ़ते जा रहे हैं. यूपी के ठेठ लहजे में आयुष्मान खुराना और कृति सेनन भी उम्दा लगे हैं. पर कोई अभिनेता अगर पूरी फिल्म में सबसे आश्चर्यचकित करता है तो वो है राजकुमार राव. हर फ्रेम में एक अलग भाव साथ आते राजकुमार का अभिनय भाता है. श्रेयस जैन के साथ मिलकर दंगल फिल्म के निर्देशक नितेश तिवारी की लिखी संवाद-पटकथा भी फिल्म को देखने लायक बनाती है. गीत-संगीत की बात करें तो स्वीटी तेरा ड्रामा और ट्विस्ट कमरिया पहले से ही चार्ट बस्टर पर हैं.
क्यों देखें- आंचलिकता के चाशनी में डूबी छोटे शहरों की प्रेमकथा का रस लेना हो तो एक बार जरूर देखें.
क्यों न देखें- अलग हटके किसी उम्दा कहानी की उम्मीद निराश करेगी.


फिल्म समीक्षा

सिर्फ मनोरंजन नहीं, समाज की जरूरत है टॉयलेट: एक प्रेमकथा जैसी फिल्म
सिनेमा अगर मनोरंजन के साथ-साथ सामाजिक संदेश के चाशनी में लपेट दिया जाए तो स्वाद स्वाभाविक रू प से दोगुना हो जाता है. राजकुमार हिरानी की फिल्में इसका ज्वलंत प्रमाण रही हैं. निर्देशक श्री नारायण सिंह की फिल्म टॉयलेट एक प्रेमकथा कमोबेश ऐसी ही धारा की फिल्म है. स्वच्छ भारत अभियान से प्रेरित इस फिल्म का आधार देश में शौचालय की जरूरत और लोगों की सोच बदलने की जरूरत है. संदेशात्मक फिल्म के लिए सबसे बड़ा खतरा ये होता है कि अगर उसमें मनोरंजन का पूट ना मिलाया जाए तो फिल्म मास(भीड़) को खींच पाने में असफल रहती है. श्री नारायण की फिल्म इस मामले में लकी रही, जिसे अक्षय कुमार, भूमि पेडनेकर और दिव्येंदू शर्मा की बेहतरीन अदायगी के साथ-साथ सिद्धार्थ सिंह और गरिमा बहल की मनोरंजक और कसी हुई पटकथा का भरपूर साथ मिला. फिल्म अपने मनोरंजक तत्वों के साथ थियेटर में भरपूर हंसाती है पर हर बार उस हंसी के साथ-साथ एक टीस भी दे जाती है. टीस औरत के उस दर्द का जो इतनी तरक्की के बाद भी घर में एक अदद शौचालय को तरसती है. जो खुले में शौच करने को मजबूर है. जो अपने उस नंगेपन के दर्द को बस पल्लू से मूंह छुपाकर ढकने को विवश है.
बात छोटी है पर उसके पीछे का दर्द सदियों पुराना है. यूपी के छोटे से गांव में मर्दो की सोहबत और रीति-रिवाजों की जकड़न में पले केशव (अक्षय कुमार) की सोच भी वैसी ही हो चली है. पिता के दकियानूसी विचारों के चलते छत्तीस की उम्र में भी कुंवारा है. सोच पर धर्म-कर्म का ऐसा परदा कि मांगलिक दोष निवारण के लिए पिता के कहने पर भैंस से भी शादी कर लेता है. इसी बीच उसे एक लड़की जया(भूमि पेडनेकर) से प्रेम हो जाता है. थोड़ी परेशानियों के बाद दोनों की शादी भी हो जाती है. पर असल समस्या तब शुरू होती है जब जया को ससूराल आकर ये पता चलता है कि उसके घर में शौचालय की कोई व्यवस्था नहीं है. बचपन से शौचालय की आदी जया सूबह-सूबह गांव की महिलाओं संग खूले में जाने से इन्कार कर देती है. जया के कहने पर घर में शौचालय बनवाने की बात पर केशव के रुढ़िवादी पिता बवाल खड़ा कर देते हैं. कुछ दिनों तक तो केशव जुगत भिड़ाकर किसी तरह जया की समस्या सुलझाता है पर आखिरकार तंग आकर एक दिन जया घर छोड़कर चली जाती है. }ी के जाने के बाद केशव उसे वापस लाने के लिए घर और गांव में शौचालय बनवाने की ठान लेता है.
अपने पहले सीन से रौ में दिखी फिल्म आखिर में थोड़ी ड्रामेटिक जरूर हो गयी है, पर कहानी की सोच और बाकी मजबूत पक्षों के आगे इतनी लिबर्टी खलती नहीं है. फिल्म का सबसे मजबूत पक्ष कलाकारों का उम्दा अभिनय रहा. अक्षय कुमार और भूमि पेडनेकर ने किरदार की संजीदगी और यूपी के ठेठ मिजाज को बखूबी आत्मसात कर लिया. पर सबसे चकित करते हैं सह कलाकार की भुमिका में दिव्येंदू शर्मा. दोस्त की भुमिका में आये दिव्येंदू की हर उपस्थिति और संवाद आयगी का मिजाज अलग सुकून देता है. चरित्र किरदार में अनुपम खेर और सुधीर पांडेय भी सराहनीय हैं. गीत-संगीत की बात करें तो गाने पहले ही कई हफ्तों से चार्ट-बस्टर पर हैं. विक्की प्रसाद का संगीत कहानी और परिवेश के लिहाज से बिलकुल मुफीद लगता है. कुल मिलाकर मामला यह है कि बीवी (औरत) पास (घर में) चाहिए तो घर में संडास चाहिए. और इस जुमले को हंसी में मत टालिए, एक बार टॉयलेट (एक प्रेमकथा) हो आइए, सोचिए, औरतों के दर्द को महसूस क ीजिए और देश को खुले में शौच से मुक्त क ीजिए, यकीन मानिये काफी हलका महसूस करेंगे.
क्यों देखें- सामाजिक सरोकार वाले संदेशात्मक कहानी को मनोरंजन के भरपूर मसालों के साथ देखना चाहते हों तो.
क्यों न देखें- फिल्म देखिए, इसकी कोई खास वजह नजर नहीं आयेगी.