Sunday, October 29, 2017

फिल्म समीक्षा

भूख को पूरी तरह मिटा नहीं पाता शेफ

पिछले काफी समय से एक हिट की बाट जोह रहे सैफ अली खान ने इस अलहदा कहानी के जरिये निर्देशक राजा कृष्णा मेनन का हाथ थामा. बारह आना और एयरलिफ्ट के बाद राजा कृष्णा ने भी अपनी तीसरी फिल्म के लिए 2014 में आयी हॉलीवूड की फिल्म शेफ से प्रेरित कहानी चुनी. पर रिश्तों के ताने-बाने बुनती फिल्म रेसिपी तो अच्छी चुनती है पर डिश बनाते वक्त मसालों का उचित मात्र नहीं मिलने से स्वाद की तृप्तता खो बैठती है. लिहाजा फिल्म पारंपरिक सिनेमा से अलग होते हुए भी संतुष्टि का पूर्ण अहसास नहीं दिला पाती. बहरहाल क8मियों के बावजूद शेफ सिरे से नकार दी जाने वाली फिल्म नहीं है. पिता-पुत्र और पति-प}ी के खूबसूरत अहसासों से सजे रिश्ते की बुनावट इसे आम फिल्म से जरूर अलग करती है.
बचपन से ही कूकिंग का शौकीन रोशन कालरा (सैफ अली खान) अपने पसंद के ही करियर का चुनाव करता है. न्यूयार्क के एक बड़े होटल में शेफ का काम करता है, और इस चक्कर में अपनी प}ी राधा (पद्मप्रिया जानकीरमण) और बेटे अरमान (स्वर) से अलग भी हो चुका है. तलाक के बाद प}ी बेटे को ले वापस केरल जा बसती है और रोशन अपनी जिंदगी में व्यस्त हो जाता है. कहानी तब मोड़ लेती है जब एक दिन एक कस्टमर को पंच मारने के आरोप में रोशन नौकरी से बाहर कर दिया जाता है. इस दौरान अकेला पड़ चुका रोशन अपनी बिखरी जिंदगी संवारने के गरज से वापस प}ी और बेटे की जिंदगी में दाखिल होता है. दोनों के साथ वक्त बिताकर रोशन को रिश्ते और भावनाओं की नयी परिभाषा समझ आती है. इस दौरान प}ी उसे मजबूती के साथ भावनात्मक सहारा देती हुई जिंदगी नये सिरे से शुरू करने की सलाह देती है. फैमिली का साथ पा रौशन एक बार फिर उठ खड़ा होता है और खुद का फूड ट्रक का बिजनेस शुरू करता है.
क ागजों पर प्रभावशाली और हृदयस्पर्शी दिख रही कहानी परदे की बुनावट में भटकती जान पड़ती है. कलाकारों के उम्दा अभिनय के बावजूद रिश्तों की गर्माहट अपील तो करती है पर दिल तक नहीं पहुंच पाती. क्लाइमैक्स की कमजोरी भी सिनेमा को उम्दा बनाने की राह में आड़े आती है. दूसरी ओर आम सिनेमा के लटकों-झटकों से इतर कई बार एकरसता का अहसास भी कराती है. अभिनय के लिहाज से सैफ ऐसी फिल्मों के माहिर बन चुके हैं. पहले भी सलाम नमस्ते और हम-तुम जैसी फिल्मों में वो ऐसी कोशिश कर चुके हैं. राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित पद्मप्रिया भी अपने किरदार में आकर्षित करती हैं. पर आश्चर्यचकित करते हैं तो बेटे के किरदार में स्वर क ांबले. कम उम्र में ही चेहरे का उम्दा भावसंप्रेषण सूखद अहसास देता है. सहयोगी भुमिकाओं में चंदन रॉय सान्याल, मिलिंद सोमण और दानिश क ार्तिक भी सराहनीय हैं. 
क्यों देखें- भागदौड़ भरी जिंदगी में पीछे छूट चुके रिश्तों की गर्माहट महसूस करना चाहते हों तो एक बार देख सकते हैं
क्यों न देखें- किसी उम्दा कहानी की उम्मीद में हों तो निराशा होगी.

No comments: