Sunday, October 29, 2017

बातचीत- प्रियंका ओम (लेखिका)

शब्दों से खेलते-खेलते बन गयी राइटर

इंगलिश लिट्रेचर से आनर्स, सेल्स एंड मार्केटिंग में एमबीए, तत्कालीन बिहार के जमशेदपुर की एक लड़की इन सब डिग्रियों को साथ लेकर शादी के बाद तंजानिया पहुंचती है. वैवाहिक जीवन और बच्चे के साथ गुजरते वक्त के बीच हिंदी के शब्दों से टूट चुका नाता फिर से जोड़ती है. कलम निर्बाध चल पड़ते हैं और कुछ ही वक्त में लेखनी का वो जुनून ‘वो अजीब लड़की’ की शक्ल में दुनिया के सामने होता है. नोबेल की लोकप्रियता ऐसी जो एक साल में ही उस महिला को आम से खास बना देता है. यह किसी फिल्म की स्क्रिप्ट नहीं, बल्कि हकीकत है प्रियंका ओम की जिनकी कहानी संग्रह के रूप में आई नोवेल ने उन्हें हिंदी पाठकों की चहेती बना दिया. पेश है प्रियंका की गौरव से बातचीत के कुछ अंश.

कहते हैं कुछ कर गुजरने का जज्बा हो तो वक्त की दीवार भी आपका रास्ता रोक नहीं पाती. जिंदगी की जिस दहलीज पर बाकी औरतें घर-परिवार की जिम्मेदारियों में उलझ अपने अस्तित्व से समझौता कर लेती हैं, उस उम्र में प्रियंका ओम ने अपने अंदर कहीं खो चुके  हिंदी लेखनी के प्रेम को फिर से जिंदा किया. पति और कुछ दोस्तों के प्रोत्साहन ने संजीवनी बुटी का काम किया. और देखते ही देखते मन में उमड़ते-घूमड़ते विचारों ने एक नोवेल का आकार ले लिया.

मार्केटिंग में इंटरेस्ट के बावजूद हिंदी प्रेम ने बना दिया लेखक
शुरुआती पढ़ाई जमशेदपुर से हुई. फिर आगे की पढ़ाई के लिए दिल्ली चली गयी. मेरे पिताजी डॉक्टर हैं तो शुरू से उनके यहां एमआर का आना-जाना लगा रहता था. एमआर्स के गेटअप, बातचीत की शैली और नजर आता लाइफस्टाइल हमेशा से मुङो अट्रैक्ट करता था. वहीं से मार्केटिंग के प्रति लगाव हुआ. इसी लगाव ने मुङो सेल्स एंड मार्केटिंग से एमबीए के बाद एक बड़े मीडिया हाऊस में जॉब भी दिला दिया. मीडिया हाऊस में काम करने के बावजूद मेरा इंटरेस्ट कभी भी एडिटोरियल साइड में नहीं रहा. पर एक बात जो शुरू से मुझमें थी वो ये कि वेल एजुकेटेड और साहित्यप्रेमी फैमिली से होने की वजह से पढ़ने का शौक. इस शौक की वजह से हिंदी के क ठिन शब्दों से भी काफी लगाव था. कई क्लिष्ठ शब्दों को मैं हमेशा इस्तेमाल करने में इन्जॉय करती थी. फिर शादी के बाद साऊथ अफ्रीका चली गयी. मन में ये भी तय था कि शादी के बाद जॉब नहीं करनी. कुछ वक्त बाद हिंदी शब्दों के उसी बिसरे प्रेम ने फिर मेरे अंदर हिलोर मारना शुरू कर दिया. तबतक सोशल साइट्स का दौर शुरू हो चुका था. मैंने ब्लॉग लेखन शुरू कर दिया. और इसी सफर पर चलते-चलते वो अजीब लड़की की रूपरेखा तैयार हो गयी.
खुद को साहित्यकार नहीं कहानीकार मानती हूं
साऊथ अफ्रीका पहुंचने के बाद पति के काम के सिलसिले में उनके साथ कई देशों में रहने का मौका मिला. नाइजीरिया, जांबिया, जोहान्सबर्ग, तंजानिया जैसी जगहों पर रहने का मौका मिला. इंगलिश लिट्रेचर से होने की वजह से वहां रहकर कई अंग्रेजी लेखकों को पढ़ा. चेतन भगत को पढ़ा. कई लोगों को भले इसपर आपत्तियां हो सकती हैं पर चेतन मुङो हमेशा से इसलिए पसंद रहे कि भाषा के स्तर पर अंग्रेजी में लिखने के बावजूद चेतन ने बहुत ही सिंपल शब्दों का चयन किया, जिसने उन्हें आसानी से बड़े मास लेवल तक पहुंचाया. तब मुङो लगा भाषा आप वही इस्तेमाल करो जिसे आसानी से लोगों तक पहुंचा सको. अफ्रीका में भी मैंने महसूस किया कि वहां के लोग आपस में बातचीत के लिए अपनी भाषा को ही तरजीह देते थे. यही सोचकर अंग्रेजी में लेखनी की शुरुआत करने के बावजुद मैंने आगे चलकर हिंदी में कहानियां लिखनी शुरू कर दी. और कहानियों के लिए आसान शब्दों का चयन किया. कई क ठिन शब्दों के जानकार साहित्यकार इसे साहित्य से खिलवाड़ भी मानते हैं. पर मेरी सोच में पाठकों से कनेक्ट करने का यह बेहतर माध्यम था.
सोशल मीडिया से ज्यादा किताब ने दिलायी ख्याति
कई लोग कहते हैं सोशल मीडिया के जमाने में किताब लिखने की क्या जरूरत, आप अपनी बातें या कहानियां इन माध्यमों से भी लोगों तक पहुंचा सकती थी. आज के सोशल मीडिया एक्टिव यूथ्स किताबों से कितना सरोकार रखेंगे. पर जहां तक मेरी समझ है किताबें हमेशा से मास लेवल की पसंद रही हैं और रहेंगी. मेरी किताब आने से पहले गिनती के लोग मेरे साथ सोशल साइट्स पर कनेक्टेड थे, पर इस किताब ने आज मुङो सोशल मीडिया पर सेलिब्रिटी बना दिया है. ये किताब खरीदने और पढ़ने का ही असर है कि लोग मुङो जानने लगे हैं. केवल इन साइट्स पर लिखकर शायद मैं यह मुकाम कभी हासिल नहीं कर पाती.
वो अजीब लड़की नाम की भी अलग कहानी है
नॉवेल लिखे जाने के बाद एक-दो प्रकाशकों द्वारा कुछ हेर-फेर की मांग को मैंने सिरे से नकार दिया. मैं अपने लेखन स्टाइल से समझौता नहीं करना चाहती थी. फिर मैं अंजूमन प्रकाशन के संपर्क में आयी. वहां भी एक अजीब वाक्या हुआ. प्रकाशक ने मेरी कहानियां अपनी मां को पढ़ने के लिए दी. कहानियों ने उनकी मां को इतना प्रभावित किया कि वे इसे छापने को तैयार हो गये. मैंने नॉवेल के टाइटल और कवर डिजाइन का जिम्मा भी उन्हें ही सौंप दिया. फ ाइनली प्रकाशक के सजेशन पर वो अजीब लड़की टायटल तय हुआ.
इतने मान-सम्मान की अपेक्षा बिलकुल नहीं थी
इमानदारी से कहूं तो कभी उम्मीद ही नहीं की थी कि  एक किताब मुङो अपने देश में इतना मान-सम्मान और ख्याति दिला देगा. शुरुआत में लगा था कि इस किताब के जरिये मैं भी राइटर बन जाऊंगी. फेसबुक पर कुछ लोग जान जाएंगे. क्योंकि तबतक फेसबुक ही मेरे लिए मेरी दुनिया थी. पर किताब को मिलते प्यार और उससे हासिल ख्याति मेरी अबतक की सबसे बड़ी उपलब्धि बन चुकी थी. 
वक्त के साथ साहित्य के स्वरूप में परिवर्तन जरूरी है
साहित्य में लेखनी के बदलते स्वरूप और टूटती वजर्नाएं भी समाज का ही हिस्सा है. प्रेमचंद के जमाने में समाजिक परिवेश कुछ और था जिसे उन्होंने अपने साहित्य में रचा. इस्मत चुगतई और मंटो ने उसी साहित्य को एक अलग स्वरूप दिया. आज का सामाजिक परिवेश कई सारी बंदिशों और बनी-बनाई इमेज को तोड़ने के कगार पर है. तब जब सामाजिक स्थितियां ऐसी हों तो उसका साहित्य में झलकना स्वाभाविक है. हमेशा से कहा जाता है साहित्य समाज का आइना होता है. फिर उसी समाज के साथ अगर साहित्य अपनी वजर्नाएं तोड़ता है तो हिचक कैसी.
लिखने के लिए पढ़ना जरूरी है
मुङो ताज्जुब होता है जब मैं यह देखती हूं कि लिखना तो सब चाहते हैं, राइटर सब बनना चाहते हैं. पर पढ़ना कोई नहीं चाहता. मेरे पास कई मैसेजेज आते हैं जो लेखक बनना चाहते हैं उन सबको मैं यही कहती हूं कि जिंदगी केवल नये र्ढे पर नहीं चलती, उसमें पुराने अनुभवों का समावेश होना भी जरूरी है. इन दोनों के मिश्रण से ही उम्दा कृति गढ़ी जा सकती है.  

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