सिर्फ
मनोरंजन नहीं,
समाज
की जरूरत है टॉयलेट:
एक
प्रेमकथा जैसी फिल्म
सिनेमा
अगर मनोरंजन के साथ-साथ
सामाजिक संदेश के चाशनी में
लपेट दिया जाए तो स्वाद स्वाभाविक
रू प से दोगुना हो जाता है.
राजकुमार
हिरानी की फिल्में इसका ज्वलंत
प्रमाण रही हैं.
निर्देशक
श्री नारायण सिंह की फिल्म
टॉयलेट एक प्रेमकथा कमोबेश
ऐसी ही धारा की फिल्म है.
स्वच्छ
भारत अभियान से प्रेरित इस
फिल्म का आधार देश में शौचालय
की जरूरत और लोगों की सोच बदलने
की जरूरत है.
संदेशात्मक
फिल्म के लिए सबसे बड़ा खतरा
ये होता है कि अगर उसमें मनोरंजन
का पूट ना मिलाया जाए तो फिल्म
मास(भीड़)
को
खींच पाने में असफल रहती है.
श्री
नारायण की फिल्म इस मामले में
लकी रही,
जिसे
अक्षय कुमार,
भूमि
पेडनेकर और दिव्येंदू शर्मा
की बेहतरीन अदायगी के साथ-साथ
सिद्धार्थ सिंह और गरिमा बहल
की मनोरंजक और कसी हुई पटकथा
का भरपूर साथ मिला.
फिल्म
अपने मनोरंजक तत्वों के साथ
थियेटर में भरपूर हंसाती है
पर हर बार उस हंसी के साथ-साथ
एक टीस भी दे जाती है.
टीस
औरत के उस दर्द का जो इतनी
तरक्की के बाद भी घर में एक
अदद शौचालय को तरसती है.
जो
खुले में शौच करने को मजबूर
है.
जो
अपने उस नंगेपन के दर्द को बस
पल्लू से मूंह छुपाकर ढकने
को विवश है.
बात
छोटी है पर उसके पीछे का दर्द
सदियों पुराना है.
यूपी
के छोटे से गांव में मर्दो की
सोहबत और रीति-रिवाजों
की जकड़न में पले केशव (अक्षय
कुमार)
की
सोच भी वैसी ही हो चली है.
पिता
के दकियानूसी विचारों के चलते
छत्तीस की उम्र में भी कुंवारा
है.
सोच
पर धर्म-कर्म
का ऐसा परदा कि मांगलिक दोष
निवारण के लिए पिता के कहने
पर भैंस से भी शादी कर लेता
है.
इसी
बीच उसे एक लड़की जया(भूमि
पेडनेकर)
से
प्रेम हो जाता है.
थोड़ी
परेशानियों के बाद दोनों की
शादी भी हो जाती है.
पर
असल समस्या तब शुरू होती है
जब जया को ससूराल आकर ये पता
चलता है कि उसके घर में शौचालय
की कोई व्यवस्था नहीं है.
बचपन
से शौचालय की आदी जया सूबह-सूबह
गांव की महिलाओं संग खूले में
जाने से इन्कार कर देती है.
जया
के कहने पर घर में शौचालय बनवाने
की बात पर केशव के रुढ़िवादी
पिता बवाल खड़ा कर देते हैं.
कुछ
दिनों तक तो केशव जुगत भिड़ाकर
किसी तरह जया की समस्या सुलझाता
है पर आखिरकार तंग आकर एक दिन
जया घर छोड़कर चली जाती है.
प}ी
के जाने के बाद केशव उसे वापस
लाने के लिए घर और गांव में
शौचालय बनवाने की ठान लेता
है.
अपने
पहले सीन से रौ में दिखी फिल्म
आखिर में थोड़ी ड्रामेटिक
जरूर हो गयी है,
पर
कहानी की सोच और बाकी मजबूत
पक्षों के आगे इतनी लिबर्टी
खलती नहीं है.
फिल्म
का सबसे मजबूत पक्ष कलाकारों
का उम्दा अभिनय रहा.
अक्षय
कुमार और भूमि पेडनेकर ने
किरदार की संजीदगी और यूपी
के ठेठ मिजाज को बखूबी आत्मसात
कर लिया.
पर
सबसे चकित करते हैं सह कलाकार
की भुमिका में दिव्येंदू
शर्मा.
दोस्त
की भुमिका में आये दिव्येंदू
की हर उपस्थिति और संवाद आयगी
का मिजाज अलग सुकून देता है.
चरित्र
किरदार में अनुपम खेर और सुधीर
पांडेय भी सराहनीय हैं.
गीत-संगीत
की बात करें तो गाने पहले ही
कई हफ्तों से चार्ट-बस्टर
पर हैं.
विक्की
प्रसाद का संगीत कहानी और
परिवेश के लिहाज से बिलकुल
मुफीद लगता है.
कुल
मिलाकर मामला यह है कि बीवी
(औरत)
पास
(घर
में)
चाहिए
तो घर में संडास चाहिए.
और
इस जुमले को हंसी में मत टालिए,
एक
बार टॉयलेट (एक
प्रेमकथा)
हो
आइए,
सोचिए,
औरतों
के दर्द को महसूस क ीजिए और
देश को खुले में शौच से मुक्त
क ीजिए,
यकीन
मानिये काफी हलका महसूस करेंगे.
क्यों
देखें-
सामाजिक
सरोकार वाले संदेशात्मक कहानी
को मनोरंजन के भरपूर मसालों
के साथ देखना चाहते हों तो.
क्यों
न देखें-
फिल्म
देखिए,
इसकी
कोई खास वजह नजर नहीं आयेगी.
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