यकीन की ट्यूबलाइट में चमके सलमान...
एक था टाइगर और बजरंगी भाईजान के बाद सलमान खान और कबीर खान की जुगलबंदी एक बार फिर ट्यूबलाइट के जरिये परदे पर अपनी चमक बिखेरने आयी है. पिछली दो फिल्मों से इतर इस बार कहानी में पाकिस्तान के बजाय चीन है. पर कहानी की पृष्ठभूमि अलग होने के बावजूद इमोशन और ट्रीटमेंट पिछली फिल्म की तरह ही है. हॉलीवूड फिल्म लिटिल ब्वाय से इंस्पायर्ड ट्यूबलाइट पूरी तरह इंसान के भरोसे और यकीन की कहानी है. भरोसा खुद पर, यकीन खुद पर. फिल्म की कहानी भले भारत-चीन युद्ध के समय की है पर कहानी के कई हिस्से आज भी उतने ही प्रासंगिक हैं. फिर बात चाहे गांधी दर्शन के जरूरत की हो, भारत में आ बसे चाइनीज लोगों के भारतीयता पर सवाल खड़ा करने की हो या सैनिकों के साथ-साथ जंग की भेंट चढ़ते उनके परिवार के उम्मीदों की हो. कबीर खान जंग वाले पक्ष की गहराई में न जाते हुए उससे प्रभावित समाज के इर्द-गिर्द अपनी कहानी बुनते हैं.
कहानी कुमाऊं के छोटे से गांव जगतपुर की है. जहां लक्ष्मण सिंह बिष्ट (सलमान खान) अपने छोटे भाई भरत सिंह बिष्ट (सोहेल खान) के साथ रहता है. बचपन में ही अनाथ हो चुका लक्ष्मण मंद बुद्धि है जिस वजह से सब उसे ट्यूबलाइट करकर चिढ़ाते हैं. पर दिमाग से कमजोर लक्ष्मण की खुद पर यकीन की ताकत इतनी मजबूत थी कि उसे लगता था कि खुद पर यकीन हो तो इंसान बड़े से बड़ा चट्टान भी हिला सकता है. और ये यकीन उसे बचपन में गांव आये गांधी जी के विचारों और दोनों भाईयों का पालन-पोषण करने वाले बन्ने चाचा (ओमपुरी) से हासिल हुई थी. दोनों गांव में हंसी-खुशी जी रहे थे तभी भारत-चीन में जंग छिड़ गयी. भरत फौज में भरती हो जंग के लिए चला जाता है. अकेले पड़ चुके लक्ष्मण को यकीन है कि जंग जल्द ही खत्म हो जाएगी और भरत फिर से गांव आ जाएगा. इस बीच गांव में लिलिंग (जू जू)और उसका बेटा गुओ (माटिन रे) रहने आते हैं. लिलिंग के पुर्वज चाइनीज थे पर वो खुद पूरी तरह हिंदूस्तानी मानती है. उसके गांव में आने से वहां माहौल में तनाव आ जाता है. सब उसे दुश्मन मुल्क का समझ उसकी भारतीयता पर सवाल खड़े करते हैं. लक्ष्मण अपने भाई को वापस लाने की उम्मीद में उनसे दोस्ती करता है. इस प्रक्रिया में उसका परिचय लिलिंग के अंदर की भावनाओं और जज्ब दर्द से होता है. इस बीच भरत के शहीद होने की गलत खबर आती है जिससे लक्ष्मण का यकीन डोल जाता है.
फिल्म अपने पहले हाफ में काफी शिथिलता का अहसास कराती है. कई दृश्य और बैकग्राउंड स्कोर जहां आपको बजरंगी भाईजान की याद भी दिलायेंगे वहीं कमजोर पटकथा कई भावुकता भरे दृश्यों को दिल तक पहुंचने भी नहीं देती. कहानी के बिखराव में फिल्म कई बार ट्यूबलाइट की तरह जलती-बुझती है पर सलमान की मासूमियत और भोलेपन से भरे लक्ष्मण के किरदार में उनका यकीन आखिरकार फिल्म को रौशन कर देता है. सलमान का यकीन ही फिल्म को बचा ले जाने का काम करता है. जू जू हालांकि अपनी प्रतिभा के अनुरूप स्पेस नहीं पा सकी पर अपने हिस्से आये दृश्यों में परिपक्वता का अहसास दिला जाती हैं. सोहेल खान, जीशान अय्यूब और ओमपुरी भी किरदार की विश्वसनीयता बढ़ाते हैं. पर सहज अभिनय से आश्चर्यचकित करते हैं तो बाल कलाकार माटिन रे. फिल्म के दो गाने सजन रेडियो और किंतु-परन्तु तो पहले ही चार्ट बस्टर में हैं पर इनके अलावा क ोई गीत जुबां पर नहीं चढ़ पाता.
क्यों देखें- सलमान की पिछली छवि से अलग उन्हें अभिनय की नयी छवि गढ़ते देखना हो तो.
क्यों न देखें- अगर कबीर खान की पिछली फिल्मों से अलग किसी उम्दा कहानी के उम्मीद में हो तो.
एक था टाइगर और बजरंगी भाईजान के बाद सलमान खान और कबीर खान की जुगलबंदी एक बार फिर ट्यूबलाइट के जरिये परदे पर अपनी चमक बिखेरने आयी है. पिछली दो फिल्मों से इतर इस बार कहानी में पाकिस्तान के बजाय चीन है. पर कहानी की पृष्ठभूमि अलग होने के बावजूद इमोशन और ट्रीटमेंट पिछली फिल्म की तरह ही है. हॉलीवूड फिल्म लिटिल ब्वाय से इंस्पायर्ड ट्यूबलाइट पूरी तरह इंसान के भरोसे और यकीन की कहानी है. भरोसा खुद पर, यकीन खुद पर. फिल्म की कहानी भले भारत-चीन युद्ध के समय की है पर कहानी के कई हिस्से आज भी उतने ही प्रासंगिक हैं. फिर बात चाहे गांधी दर्शन के जरूरत की हो, भारत में आ बसे चाइनीज लोगों के भारतीयता पर सवाल खड़ा करने की हो या सैनिकों के साथ-साथ जंग की भेंट चढ़ते उनके परिवार के उम्मीदों की हो. कबीर खान जंग वाले पक्ष की गहराई में न जाते हुए उससे प्रभावित समाज के इर्द-गिर्द अपनी कहानी बुनते हैं.
कहानी कुमाऊं के छोटे से गांव जगतपुर की है. जहां लक्ष्मण सिंह बिष्ट (सलमान खान) अपने छोटे भाई भरत सिंह बिष्ट (सोहेल खान) के साथ रहता है. बचपन में ही अनाथ हो चुका लक्ष्मण मंद बुद्धि है जिस वजह से सब उसे ट्यूबलाइट करकर चिढ़ाते हैं. पर दिमाग से कमजोर लक्ष्मण की खुद पर यकीन की ताकत इतनी मजबूत थी कि उसे लगता था कि खुद पर यकीन हो तो इंसान बड़े से बड़ा चट्टान भी हिला सकता है. और ये यकीन उसे बचपन में गांव आये गांधी जी के विचारों और दोनों भाईयों का पालन-पोषण करने वाले बन्ने चाचा (ओमपुरी) से हासिल हुई थी. दोनों गांव में हंसी-खुशी जी रहे थे तभी भारत-चीन में जंग छिड़ गयी. भरत फौज में भरती हो जंग के लिए चला जाता है. अकेले पड़ चुके लक्ष्मण को यकीन है कि जंग जल्द ही खत्म हो जाएगी और भरत फिर से गांव आ जाएगा. इस बीच गांव में लिलिंग (जू जू)और उसका बेटा गुओ (माटिन रे) रहने आते हैं. लिलिंग के पुर्वज चाइनीज थे पर वो खुद पूरी तरह हिंदूस्तानी मानती है. उसके गांव में आने से वहां माहौल में तनाव आ जाता है. सब उसे दुश्मन मुल्क का समझ उसकी भारतीयता पर सवाल खड़े करते हैं. लक्ष्मण अपने भाई को वापस लाने की उम्मीद में उनसे दोस्ती करता है. इस प्रक्रिया में उसका परिचय लिलिंग के अंदर की भावनाओं और जज्ब दर्द से होता है. इस बीच भरत के शहीद होने की गलत खबर आती है जिससे लक्ष्मण का यकीन डोल जाता है.
फिल्म अपने पहले हाफ में काफी शिथिलता का अहसास कराती है. कई दृश्य और बैकग्राउंड स्कोर जहां आपको बजरंगी भाईजान की याद भी दिलायेंगे वहीं कमजोर पटकथा कई भावुकता भरे दृश्यों को दिल तक पहुंचने भी नहीं देती. कहानी के बिखराव में फिल्म कई बार ट्यूबलाइट की तरह जलती-बुझती है पर सलमान की मासूमियत और भोलेपन से भरे लक्ष्मण के किरदार में उनका यकीन आखिरकार फिल्म को रौशन कर देता है. सलमान का यकीन ही फिल्म को बचा ले जाने का काम करता है. जू जू हालांकि अपनी प्रतिभा के अनुरूप स्पेस नहीं पा सकी पर अपने हिस्से आये दृश्यों में परिपक्वता का अहसास दिला जाती हैं. सोहेल खान, जीशान अय्यूब और ओमपुरी भी किरदार की विश्वसनीयता बढ़ाते हैं. पर सहज अभिनय से आश्चर्यचकित करते हैं तो बाल कलाकार माटिन रे. फिल्म के दो गाने सजन रेडियो और किंतु-परन्तु तो पहले ही चार्ट बस्टर में हैं पर इनके अलावा क ोई गीत जुबां पर नहीं चढ़ पाता.
क्यों देखें- सलमान की पिछली छवि से अलग उन्हें अभिनय की नयी छवि गढ़ते देखना हो तो.
क्यों न देखें- अगर कबीर खान की पिछली फिल्मों से अलग किसी उम्दा कहानी के उम्मीद में हो तो.
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