पॉजिटिविटी ही मेरा स्ट्रेंथ है
हंस मत पगली और बखेड़ा जैसे अपारंपरिक धुन वाला गीत कई हफ्तों से लोगों की जुबान के साथ-साथ मोबाइल के रिंगटोन पर भी चढ़ा हुआ है. फिल्म के अबतक रिलीज हुए दो ही गानों ने विक्की प्रसाद को जरूरी पहचान दिला दी है. बचपन में ही पिता की छत्रछाया से महरूम हो चुके विक्की ने अपनी कामयाबी खुद के दम पर गढ़ी. पॉजिटिविटी, खुद पर भरोसा और हार्ड वर्क को वह कामयाबी मूलमंत्र मानते हैं. हिन्दी सिनेमाई गीतों से हटकर उनकी अपारंपरिक धूनों की बात चलने पर बेबाकी से कहते हैं अपनी धूनों को मैं कभी किसी सीमा में कैद नहीं करूंगा, वो निर्बाध बहेंगी और यकीन मानिये सीमाविहीन होने के बावजूद वो आपको मंत्रमुग्ध करेंगी.
तीन साल की उम्र से ही जुबां को लग चुका था संगीत का स्वाद
मेरे पापा की डेथ काफी यंग एज में ही हो गयी थी. जिसके बाद मैं अपनी नानी के साथ नार्थइस्ट में रहने लगा. नानाजी डिफेंस में थे. ऑन डय़ूटी डेथ की वजह से नानी को उनकी जगह डिफेंस में नौकरी मिल गयी थी. ट्रांसफरेबल जॉब होने की वजह से कई शहरों मसलन मिजोरम, नागालैंड, असम में रहने का मौका मिला. जब मैं तीन-चार साल का था तभी मुङो अपने एक टीचर की फेयरवेल पार्टी में गाने का मौका मिला. वहां मैंने कभी अलविदा ना कहना गाया जिसे पूरे स्कूल ने सराहा. फेयरवेल वाले टीचर तो इतने खुश हुए कि पांच रुपये का नोट निकालकर आशीर्वाद के साथ मेरी जेब में रख दिया. वहां से शुरू हुई संगीत की जर्नी आज भी अनवरत जारी है.
संगीत की बेचैनी मुंबई तक खींच लायी
संगीत से लगाव का आलम ये था कि बचपन से ही एक-एक गाने को तबतक सुनता जबतक उससे बोर नहीं हो जाता. शुरू से क विताएं लिखने का शौक था तो संगीत प्रेम की वजह से क विताएं भी लयात्मक ही हो जाती. आठवीं क्लास तक पहुंचते-पहुंचते फिल्मी गानें सुनकर बोर हो चुका था. फिर जेहन में ख्याल आया क्यूं ना खुद की धुनें बनाऊं. अपनी क विताओं को लेकर कुछ धुनें बनाई भी, पर बनाकर दूसरे दिन भूल जाता था. फिर मैंने धुनों की नोट्स बनानी शुरू कर दी. बारहवीं तक कुछ कारणों से मैं म्युजिक की विधिवत शिक्षा नहीं ले सका. फिर आगे की पढ़ाई के लिए इलाहाबाद आया तो लिट्रेचर की पढ़ाई के साथ-साथ गिटार के क्लासेज ज्वाइन कर लिये. ग्रेजुएशन के बाद 2010 में दिल्ली जाकर साउंड इंजीनियरिंग एंड म्युजिक प्रोडक्शन का कोर्स किया. और फ ाइनली 2012 में मुंबई की राह पकड़ ली.
दिल्ली-मुंबई के दरम्यान किये संघर्षाें ने डाली सफलता की नींव
दिल्ली में साउंड इंजीनियरिंग के दौरान म्युजिक के छोटे-मोटे फ्रीलांस काम करना शुरू कर चुका था. चुंकि मुंबई में कोई गॉडफादर या जान-पहचान का इस फ ील्ड में नहीं था तो काफी दुविधा थी. फिर मैंने सोशल साइट्स के जरिये वहां क ॉन्टेक्ट्स बनाने शुरू किये और कुछ वक्त बाद मुंबई आ गया. आने के साथ ही इस फील्ड से जुड़े लोगों से मिलना शुरू किया. पर काफी वक्त बीतने के बाद भी कहीं से क ोई उम्मीद नजर नहीं आ रही थी. इस बीच कई छोटे-मोटे म्युजिक असाइनमेंट्स भी किये. पर धीरे-धीरे जेब के पैसे भी खत्म हो रहे थे. फिर सर्वाइवल के लिए केएफसी में जॉब शुरू किया. डेढ़ महीने के काम के मुङो तकरीबन आठ हजार रुपये मिले. तब हाथ में पैसा आते ही मैंने खुद से क मिट किया कि यहां तक तो ठीक है, आगे से एक भी पैसा कमाऊंगा तो म्युजिक की बदौलत ही. उन संघर्ष के दिनों में भी मैं हमेशा सफलता को ले पॉजिटिव ही रहा और वही मेरा सबसे बड़ा स्ट्रेंथ था.
पहली फिल्म मिलने की कहानी भी काफी फिल्मी थी
2013-14 के दौरान मेरा संघर्ष चरम पर था. जेब में घर का डिपॉजिट देने तक के पैसे नहीं थे, खाने की तो बात ही अलग थी. घर गये भी चार साल से ज्यादा हो चुके थे. एक दोस्त से पैसे लेकर कुछ दिनों के लिए गांव आया. इसी बीच एक काम मिलने की वजह से छुट्टियां बीच में ही छोड़कर वापस जाना पड़ा. संयोग ऐसा बना कि अगले एक साल तक खाने-रहने लायक पैसे मिलते रहे. पर सफलता को लेकर संदेह भी बढ़ रहा था. अचानक एक रात ऐसी घटना हुई जिसने मेरी जिंदगी बदल दी. चार अक्टूबर 2016 को बारिश की एक रात जब मैं छतरी खरीदने मार्केट गया था अचानक मेरे एक सर का फोन आया कि तुङो एक एड्रेस मैसेज कर रहा हूं, जिस हालत में है फटाफट आजा. मैंने पुछा तो कहा निर्देशक नीरज पांडेय से एक फिल्म के सिलसिले में तुङो मिलाना है. मेरी धड़कनें बढ़ चुकी थी. झटपट घर से कुछ धुन कलेक्ट की और कैप्री(हाफ पैंट) पहने ही पहुंच गया उनके पास. पता चला स्वच्छ भारत को ले अक्षय कुमार के साथ एक फिल्म बन रही है. अलग तरह की धुन चाहिए थी सो सर ने मेरा नाम सजेस्ट कर दिया. वहां मुङो कुछ लिरिक्स मिले जिसकी धुन के साथ वापस दुसरे दिन आने को कहा गया. वापसी से लेकर सारी रात धुनों की दुनिया में ही भटकता रहा. अगली सुबह जब उठा तबतक ऐसी धुन तैयार हो चुकी थी जिसपर मुङो खुद गर्व हो रहा था. बखेड़ा गाने की उस धुन ने नीरज पांडेय को भी पहली बार में ही मोह लिया.
मंजिलें और भी हैं
अक्षय और नीरज सर के साथ काम करना सपना सच होने जैसा है. फिल्म रिलीज होने के पहले ही गानें हिट हो चुके हैं. इस अहसास के साथ जिम्मेदारियां भी दोगुनी हो चली हैं. संजय मिश्र की एक फिल्म के साथ-साथ एक-दो और फिल्में हाथ आ चुकी हैं जिसमें मैं लीड म्युजिक कंपोजर के तौर पर काम कर रहा हूं. फ ोक म्युजिक से लगाव की वजह से नये-नये प्रयोग भी करना चाहता हूं.
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