Sunday, October 29, 2017

फिल्म समीक्षा

औसत से आगे नहीं जा पाती बादशाहो

डायरेक्टर मिलन लुथरिया और अजय देवगन का साथ कच्चे धागे(1999) से चला आ रहा है. दोनों ने मिलकर सिंगल स्क्रीन थियेटर के दर्शकों का जमकर मनोरंजन किया है. चोरी-चोरी, वंस अपॉन अ टाइम इन मुंबई के बाद बादशाहो इस जोड़ी की चौथी फिल्म है. पर इस बार मिलन पटकथा और कहानी की बुनावट के स्तर पर पटरी से फिसलते नजर आते हैं. बादशाहो इमरजेंसी के दौर की कहानी पर आधारित ऐसी फिल्म है जो आज के वक्त में भी सिंगल स्क्रीन थियेटर वाली फ ीलिंग्स पिरोकर ही बनायी गयी लगती है. फिल्म भले छोटे सेंटरों पर दर्शकों को लुभा दे पर मल्टीप्लेक्स दर्शकों को खींच पाने के लिए इसे खासी मशक्कत करनी पड़ेगी. खासकर आज के युवा वर्ग को. मिलन लुथरिया की ढीली कहानी अजय देवगन के साथ-साथ एक बड़ी स्टारकास्ट की भीड़ के बावजूद फिल्म को औसत से आगे नहीं जाने देती.
कहानी इमरजेंसी के उस दौर की है जब सरकार ने देश के तमाम राजवाड़ाओं की संपत्ति की रेकी शुरू कर दी थी. सरकार के पास जिन राजवाड़ों के संपत्तियों का ब्यौरा नहीं होता वो उन्हें जब्त कर सरकारी खजाने में जमा करवा ले रही थी. ऐसे वक्त में एक पॉलिटिशियन की नजर जयपुर की महारानी गीतांजली (इलियाना डिक्रुज) पर पड़ती है. वो उसे पाना चाहता है, पर गीतांजली उसे बिलकुल पसंद नहीं करती. ऐसे में पॉलिटिशियन इमरजेंसी का फायदा उठाकर गीतांजली को फंसाने के ख्याल से महारानी के खजाने को जप्त करवाने का षड्य़ंत्र करता है. क्योंकि महारानी ने सरकार की जानकारी के बिना खजाना महल में रखा था. खजाने को दिल्ली तक ले जाने का जिम्मा पुलिस अधिकारी सहर(विद्युत जामवाल) को दिया जाता है. उधर अपने खजाने को बचाने के लिए महारानी अपने खास भवानी सिंह (अजय देवगन) की मदद लेती है. भवानी और गीतांजली एक दूसरे को पसंद करते हैं. ऐसे में भवानी अपने साथियों दलिया (इमरान हाशमी), तिकला (संजय मिश्र)और संजना (ईशा गुप्ता) के साथ रास्ते में ही खजाना लूटने का प्लान बनाता है. प्यार, नफरत, षड्यंत्र और बदले की भावना पर बनी इस फिल्म का क्लाइमैक्स जरूरत से ज्यादा फिल्मी होने की वजह से थोड़ी खींज भी देता है.
पिछले महीने ही मधुर भंडारकर की इमरजेंसी पर बनी फिल्म इंदू सरकार के बूरे हश्र के बाद इस फिल्म से दर्शकों और समीक्षकों की उम्मीदे कुछ ज्यादा बढ़ गयी थी. फिल्म के ट्रेलर ने उन उम्मीदों को और बढ़ाने का ही काम किया था. पर कहानी का झोल और किरदारों की आधी-अधूरी डिटेलिंग की वजह से थियेटर में दर्शक उन सारी उम्मीदों पर पानी फिरा पाते हैं. फिल्म शुरूआत में इमरजेंसी के वक्त इंदिरा के दृश्यों के साथ एक संजीदे विषय का भान देती है जो हाफ टाइम तक कुछ हद तक बना रहता है. पर इंटरवल के बाद एक बार जब फिल्म पटरी से उतरती है तो फिर संभल नहीं पाती. हालांकि अभिनय के स्तर पर अजय देवगन, इमरान हाशमी, संजय मिश्र और ईशा गुप्ता ने संजीदगी के साथ पटकथा की इस कमी को पाटने का भरसक प्रयास किया पर अंत में उनका उम्दा अभिनय भी इस कमजोरी की भेंट चढ़ जाता है. फिल्म के गाने जरूर सूनने लायक बन पड़े हैं. रश्के कमर गाना तो पहले ही दर्शकों की पसंद बन चुका है. हां फिल्म की एक खासियत सुनीता राडिया क ी सिनेमेटोग्राफी है. दृश्यों का संयोजन और फिल्मांकन क ाबिले तारीफ है.
क्यों देखें- अगर आप अजय देवगन, इमरान हाशमी या इलियाना के डाय हार्ड फैन हैं तो फिल्म देख सकते हैं.
क्यों न देखें- इमरजेंसी जैसे संजीदा विषय को सोचकर उम्दा कहानी तलाशेंगे तो निराशा हाथ लगेगी.
वजिर्त मुद्दे को खूबसूरत अंदाज में परोसती है शुभ मंगल सावधान
2013 में आर. एस. प्रसन्ना की तमिल फिल्म कल्याण समायल साधम् आयी थी. अपने अनूठे विषय के कारण फिल्म खासी सफल रही थी. आनंद एल रॉय ने जब इसके हिंदी रिमेक की बात सोची तो उन्होंने इसके निर्देशन की जिम्मेदारी भी प्रसन्ना को ही सौंप दी. प्रसन्ना ने भी मुल कहानी से छेड़छाड़ न करते हुए इसे हिंदी पट्टी के लिहाज से मनोरंजक बना दिया. विक्की डोनर के साथ हिंदी सिनेमा की सबसे बड़ी उपलब्धि ये रही कि अब हिंदी सिनेमा अपनी वजर्नाएं तोड़ने लगा है. बनी-बनायी लकीरों से बाहर निकल यह अब उन मुद्दों को भी कहानी में पिरोने लगा है जो सदियों से समाज में वजिर्त रही है. घर-परिवार-दोस्तों में ऐसे मुदद्े कभी चर्चा में भी शामिल नहीं हो पाये. शुभ मंगल सावधान भी ऐसे ही एक वजिर्त विषय को क ॉमिक अंदाज में खूबसूरती के साथ बयां करती फिल्म है. मर्दाना कमजोरी (मेल सेक्सूअल प्राब्लम) को केंद्र में रखकर आयुष्मान खुराना और भूमि पेडनेकर के अभिनय से सजी छोटे बजट की यह फिल्म कहानी और ट्रीटमेंट की वजह से आने वाले वक्त में निश्चय ही समाज में ऐसे विषय पर खुलकर बात करने का मौका देगी. विक्की डोनर जैसी फिल्म पहले ही इसका संकेत दे चुकी है.
दिल्ली की पृष्ठभूमि पर आधारित कहानी मुदित (आयुष्मान खुराना) और सुगंधा (भूमि पेडनेकर) की सगाई से शुरू होती है. सगाई और शादी के बीच के वक्त में ही मुदित को यह अहसास हो जाता है कि फिजीकली वो सुगंधा को खुश नहीं रख पायेगा. इस वजह से वो सुगंधा को खुद से दूर करने की कोशिश भी करता है. पर सुगंधा इसके लिए तैयार नहीं होती. पर जब इस बात का पता सुगंधा के पैरेंट्स को चलता है वो इस शादी के विरोध में उठ खड़े होते हैं. ऐसे वक्त में मुदित को सुगंधा का साथ मिलता है और फिर शुरू होता है इस समस्या के समाधान में घटते नाटकीय घटनाक्रमों का दौर.
शुभ मंगल सावधान अपने ठेठ मिजाज और उम्दा अभिनय की वजह से भी देखे जाने लायक है. आयुष्मान अपनी हर फिल्म से एक नयी उम्मीद जगा जाते हैं. देसी मिजाज की ऐसी फिल्मों के वो एक्सपर्ट बन चुके हैं. टॉयलेट एक प्रेमकथा के बाद भूमि पेडनेकर का अंदाज भी भाता है. दिल्ली की लड़की के किरदार में बॉडी लैंग्वेज और संवाद अदायगी को उन्होंने बखूबी पकड़ा है. दम लगा के हईशा के बाद आयुष्मान-भूमि की जोड़ी आकर्षित करती है. अन्य भुमिकाओं में बृजेन्द्र क ाला और सीमा पाहवा उल्लेखनीय हैं.
फिल्म फस्र्ट हाफ तक गुदगुदाते संवादों और हास्यात्मक घटनाओं की वजह से खूब हंसाती है, वहीं दूसरे हाफ में मुद्दे को गंभीरता के साथ ट्रीट करती नजर आती है. गाने भी कहानी को जरूरी गति देते हैं. कुल मिलाकर कहें तो एक जरूरी मुद्दे को हल्के-फुल्के अंदाज में बहस लायक मुद्दा बनाती फिल्म एक बार थियेटर में जरूर देखे जाने लायक है.




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